इस वार्ता में आपकी यदि रुचि हो तो जरूर अच्छी लगेगी। विषय मैथिली से जुड़ा था, बहस हिन्दी में हुई है। समय हो तो जरूर पढें।
विषय है वृहद्विष्णुपुराण में वर्णित मिथिला माहात्म्य जिसमें ऋषि पराशर के साथ मुमुक्षु मैत्रेयी विभिन्न जिज्ञासा के माध्यम से मिथिला वर्णन करने को कहती है। प्रसंग है कि मेरे एक मित्र बीरगंज (नेपाल) से हैं जो आजकल जानबुझकर मिथिला की सभ्यता, ऐतिहासिकता, भाषा-संस्कृति एवं समग्रता पर प्रश्न चिह्न खड़ाकर आम लोगों में एक नकारात्मक छवि बनाकर नेपाल की नयी संघीय संरचना में प्रदेश-२ का नामकरण मिथिला के अलावा ‘मध्य-मधेश’ करना चाहते हैं। समस्या इससे कतई नहीं है मुझको कि आप जो चाहो नाम रख लो… आखिर लोग तो ऐतिहासिक तौर पर सुस्थापित मिथिला के ही हैं जिनको अपना राज्य मिला है और अपनी प्रदेश सरकार चुनकर आगे समग्र विकास करेंगे। मेरे लिये तो वही मिथिला राज्य है। आप जो चाहें नाम रख लें, मिथिला का नाम पहले भी विदेह, बज्जि, तिरहुत, तीरभुक्ति, जनकनगरी, आदि अनेकों रहा है। समग्रता मिथिला में है, अत: लोग सन्दर्भ नाम इसी लोकप्रिय नाम से पुकारते हैं।
नेपाल में मधेश और मधेशी कहकर कालान्तर के कई शासकों ने उत्पीड़न देकर इन्हें दूसरे दर्जे का नागरिक मानकर कई अधिकारों से वंचित रखा। सेना में प्रवेश नहीं दी। इनके बसोवासवाली भूभागों पर शासकों ने कड़ी पहरा डाली। इनसे ही खेती तैयार करबाकर इन्हीं के खेतों का उपजा खुद ले गया। आदि-आदि। सरकारी नौकरियों में भी इनको कई बहानों में उचित अवसर, प्रोन्नति आदि बिल्कुल नहीं दिया। और, यह सब खासकर तब हुआ जब यहाँ के शाहवंशी राजाओं में राजा महेन्द्र के समय भारत से दूरी बनी, भारतीय सेनाओं का अधिकार नेपाल के हिमालय से हंटाकर भारतीय सीमाओं में रहने के लिये स्थिति बनायी गई, भारत और चीन दोनों मुल्कों से नेपाल अपनी कूटनीतिक-राजनयिक सम्बन्ध बनाने लगे, यूँ कहें कि भारतविरोधी एक तवका नेपाल में जोर-शोर से तैयार हुआ और मधेशी यानि जिन्हें भारतीय सीमाओं के दूसरे पार से बसने आये पहाड़ी मूलों के अलावे तराई मूल के लोगों की तरह देखा गया और जिनसे नेपाल की शासक यह सोचकर आन्तरिक तौर पर आशंकित रहे कि ये लोग नेपाल की भूभाग पर कब्जा कर लेंगे यदि इन्हें बढने दिया गया तो… अर्थात् मधेश व मधेशी ये दोनों टैगलाइन यहाँ की भारतविरोधी सत्ता के द्वारा तैयार की गई एक राजनीतिक पहचान है कहने में कोई हर्ज नहीं होगा। मधेश की भूगोल नेपाल की कुल २२ जिलों जो तराई एवं भारत की सीमाओं से लगी क्षेत्र है, उन्हें माना जाता है।
विगत कुछ दशकों से नेपाल में राणा शासन एवं शाहवंशीय राजतंत्र के खिलाफ कई आन्दोलन हुए हैं। प्रजातंत्र स्थापित करने के लिये भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के तकरीबन समानान्तर नेपाल में भी मुक्तिगामी आन्दोलन होते रहे हैं। यहाँ कई राजनीतिक उठा-पटक देखने को मिलता है इतिहास में। इसी दौड़ान लोकतंत्र के लिये किया गया आन्दोलन सर्वथा श्रेयस्कर और राष्ट्रीय हित में माना जाता है और इसको संज्ञा दिया जाता है ‘जनआन्दोलन’ का। इस जनआन्दोलन में नेपाली काँग्रेस की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। फिर नेपाल में कम्युनिष्ट आन्दोलन भी अपना अलग इतिहास रखता है। कम्युनिष्ट में भी कई धार देखने को मिलते हैं। और कम्युनिष्ट आन्दोलन में मुख्य रूप से परिवर्तनकारी आन्दोलन को ‘जनयुद्ध’ नाम दिया जाता है। माओवादी छापामारों ने जंगल में रहकर नेपाल की राजसत्ता के विरुद्ध और यहाँ तक कि संवैधानिक राजतंत्रात्मक बहुदल व्यवस्था की सरकारों के विरुद्ध भी लड़ाई लड़ी। और अन्ततोगत्वा लोकतांत्रिक गणतंत्र स्थापना कर नये संविधान सहित देश को आगे बढाने के लिये वृहत् शान्ति समझौता भारत के मध्यस्थता में भारतीय राजधानी दिल्ली में ही की गयी। राजतंत्र के हाथ से राज्य संचालन एवं निर्णय का अधिकार वापस लिया जाता है और जनता के द्वारा चुनी हुई संसदीय जनप्रतिनिधियों के हाथ में सत्ता सौंप दी जाती है। और अब शुरू होता है मधेश आन्दोलन। समान नागरिक अधिकार के लिये लड़ाई में मधेश के नेतागणों ने उग्र आन्दोलन किया। इनके द्वारा २२ दिन की बन्दी से नेपाल सरकार की सारी व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो गई। फिर सत्ता-संचालक राष्ट्रीय राजनीति की सबसे बड़ी घटक नेपाली काँग्रेस के तत्कालीन मुखिया एवं नेपाल में संक्रमणकालीन व्यवस्था के मुख्य संचालक गिरिजा प्रसाद कोईराला के साथ कई बुंदागत समझौता हुआ। ऐसा लगा कि मधेश और मधेशियों के मुद्दे से ही राष्ट्रीय राजनीति को आगे दशा-दिशा मिलेगी। लेकिन अचानक एक ऐसा मांग आगे आता है कि मधेशियों का मांग देश को तोड़नेवाला सिद्ध हो जाता है और यह आन्दोलन अधोगति को प्राप्त करती है।
फिलहाल, करीब १० वर्ष के संक्रमणकाल के बाद नया संविधान लागू हो चुका है। देश में संघीय लोकतांत्रिक गणतंत्र स्थापित की जा चुकी है। यहाँ तीन तह – केन्द्र, प्रदेश एवं स्थानीय निकाय – से जनता-चयनित जनप्रतिनिधियों के द्वारा शासन चलायी जा रही है। लेकिन नया संविधान अभीतक पूरी तरह से लागू न हो पाने के कारण बहुत कुछ बदस्तुर जारी है। अब जिस प्रकार से नया संविधान और संघीयता की अवधारणा रखी गयी है उसमें सभी नागरिकों के लिये समान अधिकार और सभी पहचान के साथ भाषा-भेष को समान राष्ट्रीय सम्मान के साथ देश को आगे बढाने की बात हो रही है। यहीं से शुरू होता है मिथिला प्रदेश बनाने की मजबूत आधार, लेकिन मधेश के मुद्दे से मिथिला के मुद्दे को जोड़कर गलत व्याख्या में लगे हुए हैं कुछ लोग और कुतर्क से नहीं बचते, खुद ही अपनी भाषा को और अधिक तोड़कर दीर्घ-प्रताड़णा की अवस्था से बाहर निकल अपनी मौलिकता का रक्षा के लिये ये आगे नहीं आ रहे हैं बल्कि अपने भीतर भी नया-नया अन्तर्संघर्ष को जन्म देने पर अमादा हैं यहाँ के लोग। मिथिला को जान-बुझकर एकल जातीय वर्चस्व वाली इतिहास दिखाकर किसी न किसी तरह से इसको ‘मधेश’ नाम जोड़कर दिखाने के लिये कुछेक लोगों ने एक समृद्ध सभ्यता को कलंकित करने का दुष्कार्य करते दिखाई देते हैं। ऐसा ही एक वाकया है युवा समाजशास्त्री भरत साह के द्वारा गलत एवं भ्रमपूर्ण कुतथ्यों को रखते हुए मिथिला के इतिहास को कलंकपूर्ण दिखाने की। हाल ही में इन्होंने वृहद्विष्णुपुराण को आधार बनाकर यह कहने का प्रयास किया कि ‘मिथिला’ सिर्फ एक नगर का नाम था जबकि देश या राज्य का नाम तीरभुक्ति-तिरहुत था। हालांकि यह भी स्थापित सत्य है कि मिथिला का अनेक उपनाम रहा है, जिसमें तिरहुत, तिरहुति, तीरभुक्ति, बज्जि, वृज्जि, विदेह आदि का नाम मुख्य है; फिर भी यह कहना कि मिथिला सिर्फ नगर का नाम रहा – ऐसा लोगों के दिमाग में मिथिला के नाम से दूरी बनाने के लिये जान-बुझकर किया जा रहा एक पूर्वाग्रही और षड्यन्त्रपूर्ण सोच है। आइये देखें, क्या वार्ता हुई है इस विषय में और किस तरह भ्रामक और गलत तथ्यों को उजागर किया गया है।
प्रवीण: भरतजी! आपका बहुत-बहुत आभार। एक बढियां स्रोत उपलब्ध कराये जिसे पढने से मैं कृत्-कृत्य हो रहा हूँ।
अब आइये उस विन्दु पर जिसके बारे में आप दावा कर रहे हैं।
१. आपके हिसाब से ‘मिथिला’ सिर्फ एक नगरी कहा गया है जो आजका जनकपुर को आप मानते हैं। कृपया किन-किन श्लोकों के आधार पर आप ऐसा माने बतायेंगे?
२. मैं यह देख पा रहा हूँ कि विश्वामित्र, गौतम, वाल्मीकि, याज्ञवल्क्य आदि का आश्रम का वर्णन भी इसी मिथिलानगरी के विभिन्न कोणों (स्थानों) में किया गया है। और, आज भी इन ऋषियों की स्थिति सुसंयोगवश हमें पता ही है। क्या इन विन्दुओं को सन्दर्भ में लेते हुए आप यह कैसे समझ लिये कि ऋषि पराशर ने मिथिला माहात्म्य में ‘मिथिला’ और ‘तिरहुति’ को दो अलग-अलग विन्दुओं से परिभाषित किया है?
३. आप गौर करिये, ऋषि पराशर से जब प्रश्न पूछा गया है कि आप अयोध्यापुरी की तरह मिथिलापुरी का भी वर्णन करें और बतायें कि यहाँ क्या-क्या दर्शनीय हैं… और फिर जब ऋषि ने जबाब दिया है तो सविस्तार बार-बार मिथिला, तिरहुति आदि नामों को उल्लेख करते हुए सीमा, नदी का नाम, हिमालय, देवशक्तियाँ, ऋषियों, ब्राह्मण यज्ञों, आदि का उल्लेख भी किया है। तो आप कैसे इस उलझन में पड़ गये कि निमि वंश के राजा मिथि का शासित क्षेत्र मिथिला ना होकर सिर्फ उनकी राजधानी ‘मिथिला’ है? कृपया श्लोक सहित अपनी बातों को रखेंगे।
एक बार आपको फिर से धन्यवाद कि मेरे परमईष्ट श्रीसीताराम की महिमा को पढने-गुनने के लिये आपने मुझे अवसर प्रदान किया। अति आनन्द आ रहा है मुझको। इतना दिन से मैं सोच रहा था कि आज से यह बहस आपसे बन्द करूँ, अब से करूँ… लेकिन आज बहस से मुझको इतना अच्छा सन्दर्भ आपने दिया है कि मेरा आस्था जानकी-राघव के प्रति और गहरा हुआ। और, आपको इसीलिये मैं बहुत पहले से काफी मानता रहा हूँ वह फिलहाल के विभिन्न वक्रोक्तियों, कुतर्कों और ब्यर्थ बहसों के बावजूद आपने सही साबित किया है। ईश्वर आपको सदा खुश रखे और ऐसे ही सही-सही सन्दर्भ रखते हुए बेहतर विमर्श में हमलोग समय खर्च करेंगे।
आपके जबाब की प्रतिक्षा में….
भरत: धन्यवाद, चलिये आपने कम से कम मिथिला की परिभाषाको देववाणी समझ प्रश्न के घेरे से दूर नहीं रखा !
प्रवीण: यही न बात है। जब पूछा गया है मिथिला के बारे में और जबाब दिया गया है तीरभुक्ति के बारे में तो क्या वो ऋषि-ज्ञानी हम जितने तर्कवान की तरह थे जो इतनी बड़ी वार्तालाप को जारी रख सके?
भरत:
प्रवीण:
प्रवीण: मैं पढ ही रहा हूँ… परन्तु आपके द्वारा रखे गये सन्दर्भों को समझते हुए पढ रहा हूँ, वार्ता भी जारी है। ठीक वैसे ही जैसे पराशर आप और मैत्रेयी मैं।
आप गौर कीजिये:
मैत्रेयी जी के शब्दों में ही….
श्लोक ३३-३४:
एतद्रहस्यमतुलं विज्ञानं जानकीपते।
पुनर्विस्तरत: किञ्चिछ्रोतु मिच्छामितत्वत:॥
स्वरूपंनामच व्यक्तं चरित्रञ्चापि विश्रुतम्।
केषाञ्चिदपि लोकेस्मिन् केषुशङ्कानविद्यते॥
अर्थात् (दिये गये अनुवाद से ही देखें)…
“वह रहस्य अतुलनीय जानकीपति रामचन्द्रजी का फिर विस्तारपूर्वक यथार्थत: सुनने की इच्छा है॥३३॥ उनका स्वरूप, उनका नाम, उनका चरित्र सुन चुका हूँ; किन्तु इस लोक में सुनकर किसे शङ्का न होती॥३४॥”
उपरोक्त दोनो श्लोक ३५-३६ से पहले मैत्रेयी जी ने पराशर जी से ऐसा इसलिये कहा कि तेरहवीं अध्याय में उन्होंने सीता और राम को एकाकार कहते हुए वर्णन किया है। साथ ही उन्होंने अयोध्यापुरी और मिथिलापुरी का वर्णन किया है। परन्तु उन भावनाओं से भरे व्याख्या को और विस्तार (व्यायामादि, स्वरूपों के संग) सुनने की इच्छा जताने के बाद पराशरजी ने उन्हें ‘तीरभुक्ति’ – अनुवाद में तिरहुति, यानि नदियों के तीरों पर बसा हुआ नगर कहते हुए समग्र मिथिला का रसास्वादन कराया है या यह भी कहा है कि तीरभुक्ति के अन्तर्गत सिर्फ राजधानी जो है वही मिथिलापुरी है?
भरत: हाहाहा! पूरा पढिये उसके बाद चर्चा करेंगे।
प्रवीण: आप विश्वास मानिये, हम पूरा पढेंगे। आज ही और अभी ही। केवल आप ‘पराशर’ की तरह जरा ‘हाँ-ना’ या फिर ‘सविस्तार, सव्यायाम, सस्वरूप’ बतलाइये मुझे यदि मैं गलत कह रहा होऊँ। आज ही आप और हम दोनों मोक्ष भी प्राप्त कर लेंगे। गारन्टी है।
अब गौर कीजिये,
श्लोक ३७ से ४३ तक गंगा से हिमालय के बीच कुल पन्द्रह नदियों से युक्त परमपवित्र ‘तीरभुक्ति (तिरहुत)’ का जिक्र करते हुए पूर्ण स्वरूप का वर्णन ऋषि पराशर जी ने मुमुक्षु मैत्रेयी के लिये किया है। और, निष्कर्ष पंक्तिके तौर पर श्लोक ४४ में क्याकहते हैं, सुन्दरता देखिये:
मिथिला नामनगरी, तत्रास्तेलोके विश्रुता।
पञ्चभि: कारणै:पुण्या, या विख्याता जगत्रये॥१४-४४॥
यानि ‘गंगानदी से लेकर हिमालय वन तक विस्तृत सीमा है॥४३॥’ के तुरन्त बाद उन्होंने जोड़ा है:
“मिथिलानाम की नगरी में रहनेवाले लोग विख्यात हैं और पाँच कारणों से पुण्यवती हैं जो तीनों भुवन में विख्यात है॥१४-४४॥”
फिर आगे निमि वंश की व्याख्या करते हुए वो कहे हैं कि उन्होंने जहाँ तपस्या की उसे ‘तपोवन’ से ख्याति मिली। यात्रियों ने उसे तपोवन सुवर्ण कानन से ख्याति दी। फिर वही नगरी मिथिला नाम से निर्माण की गयी और वहाँ पर मिथि उत्पन्न हुए। इसीलिये मिथिला नाम पड़ा।
अब जरा सोचिये, यह तपोवन की स्थिति क्या रही? तीरभुक्ति अन्तर्गत किसी एक स्थान की ही रही होगी। आपके तर्कों के हिसाब से देखा जाय तो वही एक ‘स्थान’ केवल मिथिला है। बाकी सारा तिरहुत है। ठीक है ना हमारी समझ?
भरत: हाहाहा! आप पहले पूरा पढिये फिर मैं आपको और भी लौजिकल बातें बताता हूँ जिससे ये सिद्ध होता है कि मिथिला केवल एक नगर है तीरभुक्ति की।
प्रवीण: भाई, भरत! कितना प्यारा नाम भी है… तब तो मिथिला के प्रति ये दीवानगी है कि खोज-खोजकर पढ रहे हैं। लेकिन समझ को यूँ संकुचित करेंगे तो फिर नाम का महिमा कहीं छोटा पड़ जायेगा। आप सिलसिलेवार हर बात को समझिये। विद्वता का सही शिक्षा आज न मिल जाये तो प्रवीणमा के नाम से बीरगंज में कुकूर पोसिये महाराज! और, पढते-पढते हम लिख भी रहे हैं सो समझ में आ रहल बा नू… ईहे सृजनकर्म कहात हय… ईहे फिर मैथिल के खाता से युनीकोड में सर्च मे जेकरा-तेकरा देखाई भैया। तब नु हमार मिथिला सनातन बा!!
भरत साह: हिहि… विदेह और तीरभुक्ति अविवादित शब्द हैं…. मिथिला में विवाद बहुत पहले से है, ये आपलोग जबतक नहीं मानेंगे तब तक झगड़ा होता रहेगा… तीरभुक्ति के साथ कभी नगर नहीं इस्तेमाल होता, विदेह के साथ भी विरलया ही नगर शब्द का इस्तेमाल होता है, लेकिन मिथिला के साथ हमेशा होता है।
अब फिर आगे बढते हैं –
उसी ‘तपोवन’ अर्थात् तपोवन सुवर्ण कानन जिसे ‘मिथिला’ नाम से निर्माण की गयी और वहाँ मिथि उत्पन्न हुए… जिसका नाम मिथिला पड़ा… वहाँ देखिये कि आगे क्या होता है। 🙂
पराशरजी कहते जा रहे हैं…..
यह देवरात की तपोभूमि शंकर को प्रसन्न करनेवाली है, जहाँपर रत्नरूप धनुष पाया गया (यानि कि धनुषा – जहाँ पुरातात्विक अवशेष भी मिले हैं, सही है न?) – तथा जो तपोभूमि उस धनुष से सुशोभित हुई॥४८॥ फिर सीरध्वज नाम का राजा सोना के हल से जोतने पर पृथ्वी से लड़की पाई इसलिये वह भूमि अर्थकरी हुई॥४९॥ (आज जिसे पुनौराधाम कहा जाता है जो भारतीय मिथिला की सीतामढी जिलान्तर्गत पड़ता है। भारत सरकार शीघ्र ही जानकी मन्दिर बनायेगी, अयोध्या में प्रस्तावित राम जन्मभूमि की तरह।) 🙂 पुत्रार्थ स्वयम्वर में धनुष-यज्ञ पहले किये; जहाँपर श्रीराम के अद्भुत कर्म से धनुष तोड़ा गया॥५०॥ (और इसका विस्तार आदिकवि वाल्मीकि जिसकी चर्चा स्वयं पराशर ने भी आगे किये हैं मिथिला माहात्म्य वर्णन में, जिसपर आज आपने मिथिला को नगर साबित करने का दावा किया है, उन्होंने स्वलिखित रामायण में की है जिसमें मिथिला के बारे सविस्तार चर्चा है। यानि पराशर ऋषि के प्रिन्सीपल साहेब वाल्मीकि थे मान सकते हैं नू?) 😉
पराशरजी कहते जा रहे हैं… श्लोक ५० से आगे…. ५१वाँ से….
🙂
“… इसलिये विशेषकर ब्रह्मादि देवता यत्नपूर्वक आराधना करते हैं, निवास करते हैं और तर जाते हैं॥५१॥”
यहाँ फिर गौर कीजिये आप, आपके हिसाब से यह केवल एक तपोवन है, जो मिथिला है, उपरोक्त कथित देवता केवल वहीं पार्टिकुलर भूमि में आते हैं, आराधना करते हैं, निवास करते हैं और तर जाते हैं। है कि नहीं?
पराशरजी अब क्या कह रहे हैं भरत भाई, जरा गम्भीरता से देखिये:
“मिथिला और तिरहुति सीता का निमिकानन है और ज्ञान का क्षेत्र है, कृपा का पीठ है और स्वर्णलाङ्गल पद्धति है॥५२॥ जानकी की जन्मभूमि मिथिला निष्पापा और निरपेक्षा है। यह राम को आनन्द देनेवाली और संसार को भी आनन्द देनेवाली तथा मंगलदायिनी है॥५३॥”
अब बताइये कि यहाँ मिथिला और तिरहुति को एक जैसा विशेषण देना और उसका विवरण एक ही साथ रख देना… यह क्या बतलाता है? मिथिला और तिरहुति दो अलग है तो सीता का निमिकानन और ज्ञान का क्षेत्र दो अलग-अलग प्रदेश को कह रहा है, जानकी की जन्मभूमि मिथिला ही को केवल निष्पापा और निरपेक्षा कहकर बाकी तिरहुति को वह सारी प्रिविलेज्ड नहीं दे रहे हैं पराशर ऋषि… और आगे ‘यह’ राम को आनन्द देनेवाली… संसार को आनन्द देनेवाली तथा मंगलदायिनी भी केवल ‘मिथिला’ जो आपकी समझ से तिरहुति से अलग है – उसी को केवल यह प्रिविलेज मिला। यही न?
श्लोक ५४ से ५७ में भी ‘द्वादशनाम’ को पढना-सुनना रघुकुलतिलक श्रीरामजी को पाने से तुलना करते हुए ‘भुक्ति-मुक्ति’ यानि भोग और मोक्ष दोनों पाने में ‘मिथिला’ ही सहायक है। उसको प्रयाग आदि से तुलना करते हुए और भी स्पष्ट तरीके से पराशर जी ने हितकर कहा है।
यहाँ पर आपके तर्कों से देखा जाय तो तिरहुति का बाकी क्षेत्र गया तेल लेने – उसका तो कोई महत्ता ही नहीं रहा। क्यों?
स्पष्टत: इस श्लोक को पढें तो –
इयं सर्व्वप्रकारेण रामतुष्टिकरी ध्रुवम्।
यथा साकेत नगरी जगत: कारण स्फुष्टम्॥५६॥
“सभी तरह यह मिथिला राम को निश्चय प्रसन्न करनेवाली है, जैसा कि साकेत नगरी संसार का कारण स्पष्ट है॥५६॥”
तो… तिरहुत का बाकी जगह जीरो-मूल्य का और मिथिलानगरी यानि तपोवन जिसे आपने कई बार पहले ‘जनकपुर या जनकपुर के आसपास’ आदि कहकर लोगों को बरगलाने से नहीं चूके हैं, केवल वहीं मात्र भुक्ति-मुक्ति का स्थान देख रहे हैं और बाकी को ‘मध्य-मधेश’, यही न?
अब आइये, कुछ और अति गम्भीर विन्दुओं पर ध्यान देते हैं….
पराशर जी आगे श्लोक ५७ से आगे क्या-क्या स्पष्ट किये हैं –
“उसी तरह यह नगरी आनन्दरुपिणी है। इसलिये महर्षि लोग तथा श्रेष्ठजन सभी परिग्रहों को छोड़कर॥५७॥ राम आराधना के लिये यत्नपूर्वक वास करते हैं। विश्वामित्रजी महाराज मिथिला के पूरब तरफ वास बनाये॥५८॥ विभातुक नाम के महायोगी का दक्षिण तरफ निवास है। दक्षिण-पश्चिम कोण में गौतम मुनि का पवित्र स्थान (आज का अहिल्यास्थान, दरभंगा जिला) है॥५९॥ वाल्मीकि जी पश्चिम दिशा में पर्णशाला बनाकर रहे (आज का वाल्मीकिनगर जो पश्चिम चम्पारण में पड़ता है) एवं उत्तर दिशा में याज्ञवल्क्य की कुटी है॥६०॥ इसी प्रकार से और भी महात्मा लोग निवास करते हैं। इस देश में दुर्भिक्षता नहीं है क्योंकि यह नदी प्रधान देश है॥६१॥ यह देश धन-धान्य से परिपूरित है, फल-फूलों से समन्वित है, प्रशस्त नर-नारी से युक्त है और आधि-व्याधि विवर्जित है॥६२॥ यह मिथिला सदा आम्रवन से सम्पन्न नदी-तट पर स्थित है। तीर में भोग के कारण तिरहुति कहलाता है॥६३॥”
आप भी इस ६१वीं श्लोक में प्रयुक्त शब्द देश और ‘यह’ यानि ‘मिथिला’ को शायद समझ ही गये हैं अब तक। ६२वीं श्लोक में इस देश का आत्मगौरव और फिर ६३वीं में आप जैसे गलत तर्क प्रस्तुत करनेवालों को खुलेआम आइना दिखाते हुए स्पष्ट तौर पर कह दिया गया है कि यह मिथिला ही तिरहुति क्यों और कैसे है। और आगे शायद कुछ अधिक विमर्श की आवश्यकता मैं नहीं समझता। फिलहाल यहीं पर रोक देता हूँ। आपको बहुत ही सक्षम गुरु लोग मिलेंगे जिसमें भवनाथ बाबू उपस्थित हैं और उनके पास कई शिलालेखों में प्रयुक्त ‘मिथिलादेश’ जो मिथिला की भूमि में जहाँ-तहाँ मिला है… एक तो आपने भी एक बार कहा था कोई गोरखपुर (वाल्मीकिनगर के समीप) में भी मिला था… तो आपको इसी से स्पष्ट हो जाना चाहिये कि मिथिलानगरी यानि मिथिलादेश और तिरहुत किस प्रकार से ‘पर्यायवाची शब्द’ बने। और इसकी महिमा क्यों इतने सारे विद्वानों ने गाया है। केवल वक्रोक्ति में फँसकर हमलोग अपना समय जाया न करें। अच्छी वस्तुओं से अच्छा ज्ञान जरूर प्राप्त करें। जीवन का यही तो लक्ष्य मुख्य है। अस्तु!
निष्कर्ष को कितना स्पष्ट तौर पर स्वयं पराशर जी ने लिखा है इसे पढिये, समझिये और मिथिला (बीरगंज) में रमिये:
हिमालयस्यवासार्थ मुनिभि: परिरञ्जित:।
राजानश्च महाभागा ज्ञानविज्ञान दर्शना:॥६४॥
हरि: हर:!!