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श्रीमद्देवीभागवत कथा आधारित ‘सीताहरण, राम केर शोक तथा लक्ष्मण द्वारा सान्त्वना’

श्रीमद्देवीभागवत – तृतीय स्कन्ध – अध्याय २९
 

सीताहरण, राम केर शोक तथा लक्ष्मण द्वारा हुनका सान्त्वना देनाय

 
व्यासजी बजलाह – रावणक कुविचारपूर्ण वचन सुनिकय सीता भय सँ व्याकुल भऽ काँपि गेलीह। पुनः मोन केँ स्थिर कय ओ कहलखिन, “हे पुलस्त्यक वंशज! काम केर वशीभूत भऽ अहाँ एहेन अनर्गल वचन कियैक कहि रहल छी। हम स्वैरिणी नारी नहि छी, बल्कि महाराज जनक केर कुल मे उत्पन्न भेल छी। हे दशकन्धर! अहाँ लंका चलि जाउ। नहि तँ श्रीराम निश्चय अहाँ केँ मारि देता। हमरे लेल अहाँक मृत्यु होयत; एहि मे सन्देह नहि अछि।”
 
एना कहैत ओ सीताजी जगत् केँ कनेनिहार रावण केँ प्रति ‘चलि जाउ! चलि जाउ!’ एहि तरहें कहैत पर्णकुटी मे अग्निकुण्ड समीप चलि गेलीह। एतबा काल मे ओ रावण अपन वास्तविक रूप धारण कय केँ तुरन्त पर्णकुटी मे हुनका पास चलि गेल तथा ओ भय सँ व्याकुल कनैत सीता केँ बलपूर्वक पकड़ि लेलक। “हा राम! हा राम!! हा लक्ष्मण! हा लक्ष्मण!!” एना बेर-बेर कहिकय विलाप करैत सीता केँ पकड़िकय आर हुनका अपना रथ पर बैसाकय रावण शीघ्रतापूर्वक निकलि गेल।
 
तखन अरुणपुत्र जटायु द्वारा जाइत समय ओहि रावण केँ मार्ग मे रोकल गेलैक। ओहि वन मे दुनू रावण आ जटायु मे भयंकर युद्ध भेलैक। हे तात! अन्त मे ओ राक्षस रावण जटायु केँ मारिकय सीता केँ संग लेने चलि गेल। तदनन्तर ओ दुष्टात्मा कुररी पक्षीक समान क्रन्दन करैत सीता केँ लंका मे लय जाय अशोक वाटिका मे राखि देलक तथा हुनक रखवाली करबाक लेल राक्षसी सभ केँ नियुक्त कय देलक। ओहि राक्षसक साम-दान आदि उपाय सँ पर्यन्त सीताजी अपन सतीत्व सँ विचलित नहि भेलीह।
 
ओम्हर श्रीरामजी स्वर्णमृग केँ शीघ्रहि मारिकय ओकरा लेने प्रसन्नतापूर्वक आश्रम दिश चलि पड़लाह। बाट मे अबैतकाल लक्ष्मण केँ देखिकय ओ बजलाह, “भाइ, ई अहाँ केहेन विषम कार्य कय देलहुँ? ओतय प्रिया सीता केँ असगरे छोड़ि तथा एहि पापीक आवाज सुनिकय अहाँ एम्हर कियैक चलि एलहुँ?”
 
तखन सीताक वचनरूपी बाण सँ आहत लक्ष्मण बजलाह, “प्रभो! हम काल केर प्रेरणा सँ एतय आबि गेल छी। एहि मे सन्देह नहि अछि।”
 
तदनन्तर ओ दुनू पर्णकुटी मे जाय केँ ओतुका स्थिति देखिकय अत्यन्त दुःखित भेलाह और जानकी केँ खोजबाक प्रयत्न करय लगलाह। ताकैत-ताकैत ओ ओहि स्थान पर पहुँचि गेलाह जतय पक्षीराज जटायु खसल पड़ल छलाह। ओ पृथ्वीपर मृतप्राय पड़ल छलाह। वैह कहलखिन जे रावण जानकीजी केँ एखनहि हरण कय केँ लय गेल। हम ओहि पापी केँ रोकलहुँ। मुदा ओ युद्ध मे हमरा मारिकय खसा देलक। एतेक कहैत ओ जटायु मरि गेल। तखन श्रीरामजी ओकर दाह-संस्कार कयलनि। ओकर समस्त और्ध्वदैहिक क्रिया सम्पन्न कय केँ श्रीराम तथा लक्ष्मण ओतय सँ आगू बढलाह।
 
रस्ता मे कबन्ध केर वध कय केँ भगवान् श्रीराम ओकरा शाप सँ मुक्त कयलनि आर ओकरहि कथनानुसार श्रीराम सुग्रीव संग मित्रता कयलनि। पुनः पराक्रमी बालि केर वध कय केँ श्रीराम द्वारा कार्यसाधन हेतु किष्किन्धा केर उत्तम राज्य अपन सखा सुग्रीव केँ दय देलनि। ओत्तहि लक्ष्मण सहित श्रीराम द्वारा रावणक द्वारा अपहृत अपन प्रिया जानकीक विषय मे मोन मे सोचैत वर्षा ऋतुक चारि मास व्यतीत कयल गेल। सीताक विरह मे अत्यन्त दुःखित श्रीराम एक दिन लक्ष्मण सँ कहला – “हे सौमित्रे! कैकेयी केर कामना पूरा भऽ गेलनि। एखन धरि जानकी नहि भेटलीह। हम हुनकर बिना जीबित नहि रहि सकैत छी। जनकतनया सीताक बिना हम अयोध्या नहि जाएब। राज्य चलि गेल, वनवास करय पड़ल, पिताजी मरि गेलाह आर आब प्रिया सीता सेहो हरि लेल गेलीह। एहि तरहें हमरा पीड़ित करैत दुर्दैव आगाँ नहि जानि कि करता! हे भरतानुज! प्राणीक प्रारब्ध केँ बुझि पेनाय अत्यन्त कठिन अछि। हे तात! आब हमरा दुनू गोटाक नहि जानि केहेन दुःखद गति होयत! मनुष्यक कुल मे जन्म पाबिकय हम राजकुमार भेलहुँ; तैयो हमरा लोकनि पूर्वजन्म मे कयल गेल कर्मक कारण वन मे अत्यधिक दुःख भोगि रहल छी। हे सौमित्रे! अहाँ सेहो भोग केर परित्याग कय केँ दैवयोग सँ हमरा संग निकैल पड़ल छी; तखन आब ई कठिन कष्ट केँ भोगू। हमरा लोकनिक कुल मे हमरा जेकाँ दुःख भोगयवला अकिञ्चन, असमर्थ तथा क्लेशयुक्त व्यक्ति नहि भेल अछि आ नहिये होयत। हे लक्ष्मण! आब हम कि करू? हम शोक सागर मे डूबि रहल छी। हमरा समान असहाय केँ एहि सँ पार पेबाक कोनो उपाय नहि सुझि रहल अछि। हे वीर! हमरा पास नहिये धन अछि, नहिये बल; एकटा मात्र अहाँ हमर संग देनिहार भाइ थिकहुँ। हे अनुज! अपनहि द्वारा कयल एहि कर्मभोगक विषय मे आब हम केकरा ऊपर तामश करी? इन्द्र और यम केर राज्य जेकाँ हाथ मे आयल राज्य क्षणे भरि मे चलि गेल आर वनवास प्राप्त भेल; विधि केर रचना के जानि सकैत अछि? बाल स्वभावक कारण सीता सेहो हमरा दुनू गोटाक संग चलि एलीह। दुष्टदैव द्वारा ओहि सुन्दरी केँ अत्यधिक दुःखपूर्ण स्थिति मे पहुँचा देल गेल। ओ सुन्दरी जानकी लंकापति रावणक घर मे कोन तरहें दुःखित जीवन व्यतीत कय रहल हेतीह? ओ पतिव्रता छथि, शीलवती छथि आर हमरा सँ अत्यधिक अनुराग रखैत छथि। हे लक्ष्मण! ओ जनकनन्दिनी ओहि रावणक वश मे कहियो नहि भऽ सकैत छथि। सुन्दर शरीरवाली ओ विदेहतनया सीता स्वैरिणीक जेकाँ भला कोन तरहें आचरण कय सकती? हे भरतानुज! ओ मैथिली अधिक नियंत्रण कयल गेलापर अपन प्राण त्यागि देती। मुदा ई सुनिश्चित अछि जे ओ रावण केर वशवर्तिनी नहि हेतीह। हे वीर! जँ जानकी मरि गेलीह तऽ हमहुँ निस्सन्देह अपन प्राण त्यागि देब; कियैक तँ हे लक्ष्मण! श्यामनयना सीता केर मृत भऽ गेलापर हमरा अपन देह सँ कि लाभ?”
 
एहि तरहें विलाप करैत कमलनयन श्रीराम केँ सत्यपूर्ण वाणी सँ सान्त्वना प्रदान करैत धर्मात्मा लक्ष्मण बजलाह – “हे महाबाहो! अहाँ एहि समय दैन्यभाव छोड़िकय धैर्यधारण करू। हम ओहि अधम राक्षस केँ मारिकय जानकीजी केँ वापस आनि लेब। विपत्ति एवं सम्पत्ति – एहि दुनू स्थिति मे धैर्य धारण करैत जे एक्के रंग रहैत अछि वैह धीर होइत अछि। मुदा अल्प बुद्धिवला लोक त सम्पत्तियोक दशा मे कष्टहि मे पड़ल रहैत अछि। संयोग तथा वियोग – ई दुनू दैवक अधीन होइत छैक। शरीर तऽ आत्मा सँ भिन्न अछि। तैँ ओकरा लेल शोक केहेन! जेना प्रतिकूल समय एलापर राज्य सँ निर्वासित भय हमरा सब केँ वनवास भोगय पड़ल तथा सीताहरण भेल, तहिना अनुकूल समय एलापर संयोग सेहो भऽ जायत। हे सीतापते! सुख तथा दुःखक भोग सँ छुटकारा कहाँ! ई तऽ निस्सन्देह भोगहे टा पड़ैत अछि। तैँ अपने एहि समय शोक केर त्याग कयल जाउ। बहुते रास बानर अछि; ई सब चारू दिशा मे जायत आ जानकीजीक खोज-खबरि लय आयत। पता लागि गेलापर मार्ग केर जानकारी जुटाकय हम अपने ओतय जायब आर आक्रमण कय केँ ओहि पापकर्मवला रावण केर वध कय केँ जानकीजी केँ जरूर आनि लेब। अथवा, हे अग्रज! जँ एतेक सँ काज नहि चलत तऽ हम भरत तथा शत्रुघ्न केँ सेहो सेना समेत बजा लेब और हम सब ओहि शत्रु केँ मारि देबैक। अहाँ वृथा (ब्यर्थहि) कियैक चिन्ता कय रहल छी? पूर्वकाल मे राजा रघु मात्र एकटा रथ सँ चारू दिशा केँ जीति लेने छलाह। हे राघवेन्द्र! अहाँ ओहि वंशक भऽ कय शोक कियैक कय रहल छी? असगरे हम सब देवता तथा दानव केँ जीतय मे समर्थ छी। तखन फेर अहाँ जेहेन सहायक केँ रहैत ओहि कुलकलंकी रावण केर वध करय मे कोन कठिनाई छैक? अथवा हे रघुनन्दन! हम महाराज जनक केँ सहायताक लेल बजाकय देवता लोकनिक कण्टक स्वरूप ओहि दुराचारी रावण केर वध कय देबैक। हे रघुनन्दन! सुखक बाद दुःख तथा दुःखक बाद सुख – पहिया धूरी जेकाँ आयल-जायल करैत अछि, सदैव एक स्थिति नहि रहैछ। सुख-दुःख केर एलापर जेकर मोन कातर (प्रभावित) जाइत छैक ओ शोकसागर मे निमग्न रहैत अछि आर कहियो सुखी नहि भऽ सकैत अछि। हे राघव! पूर्वकाल मे इन्द्र केर ऊपर सेहो विपत्ति आयल छलन्हि। तखन सब देवता लोकनि हुनकर स्थान पर राजा नहुष केँ स्थापित कय देने छलाह। ताहि समय इन्द्र भयवश अपन पद त्यागिकय बहुत दिन धरि कमल वन मे नुकाकय अज्ञातवास कएने छलाह। समय बदलला पर ओ फेरो अपन पद प्राप्त कय लेलनि आर नहुष केँ शापवश अजगर केर रूप मे परिणति दय पृथ्वीपर फेरो सँ आबय पड़लैक। ब्राह्मणक अपमान कय केँ इन्द्राणी केँ पेबाक इच्छाक कारण मात्र अगस्त्य मुनि द्वारा कोपपूर्वक शाप देला सँ राजा नहुष सर्पदेह वला बनि गेल छलाह। अतः हे राघव! दुःख एलापर शोक नहि करबाक चाही। विज्ञपुरुष केँ चाही जे एहेन परिस्थिति मे मोन केँ उद्यमशील बनाकय समय केर प्रतीक्षा करैत रहय। हे महाभाग! अहाँ सर्वज्ञ छी। हे जगतपते! अहाँ सर्वसमर्थ छी। तखन एकटा प्राकृत पुरुष केर समान अहाँ अपन मोन मे अत्यन्त शोक कियैक कय रहल छी?”
 
व्यासजी बजलाह – एहि तरहें लक्ष्मण केर बात सँ रघुनन्दन श्रीरामचन्द्रजी केँ सान्त्वना भेटलनि तथा ओ शोक त्यागिकय बिल्कुल निश्चिन्त भऽ गेलाह।
 
एहि तरहें अठारह हजार श्लोकवला श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता केर अन्तर्गत तृतीय स्कन्धक लक्ष्मणकृत रामशोकसान्त्वना नामक २९वाँ अध्याय पूर्ण भेल।
 
ॐ तत्सत्!
 
हरिः हरः!!

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