स्वाध्याय मे आइ ‘ब्राह्मण’ शब्द केर वृहत् विन्यास आ अर्थ आदि बुझबाक प्रयत्न कय रहल छी। जातिकर्म अनुसार आजुक युग मे कतेको तरहक जाति विद्यमान् अछि। हिन्दू धर्म मे वर्ण व्यवस्था कालान्तर मे आरो उपवर्गीकृत होइत ४ वर्ण सँ कतेको जातिक रूप मे परिणति पाबि चुकल अछि। मिथिलाक एकटा कहाबत जे बुढ-पुरानक मुंहें हमहुँ सब सुनलहुँ “चारि वर्ण छत्तीसो जाति’, ताहि अनुसार ई कहि सकैत छी जे छत्तीस जातिक परिकल्पना हमरा लोकनिक मिथिला समाज मे विद्यमान् रहैत आयल अछि। समयाभाव आ मिथिलाक अपन सामाजिक संरचना वा इतिहास केर अल्प अध्ययनक कारण एकरा पर आरो विशद् वेक्षण हमरा सँ संभव नहि अछि। बस, कहाबत धरि सीमित रहि निज जीवन केर – निज अस्तित्वक प्रयोग लेल मात्र आजुक स्वाध्याय मे ‘ब्राह्मण’ शब्दक अर्थ आर वर्तमान प्रचलित कर्म-व्यवस्था आदि विभिन्न अवस्था अनुसार ब्राह्मणक स्थिति पर मनन कय रहल छी बुझू।
अर्थ – साभार ‘शब्दसागर’
ब्राह्मण संज्ञा पुं॰ [सं॰] [स्त्री॰ ब्राह्मण]
१. चारि वर्ण मे सबसँ श्रेष्ठ वर्ण । प्राचीन आर्य केर लोकविभागक अनुसार सबसँ ऊँच मानल जायवला विभाग । हिंदू मे सबसँ ऊँच जाति जेकर प्रधान कर्म पठन-पाठन, यज्ञ ज्ञानोपदेश आदि होएछ।
२. उक्त जाति या वर्ण केर मनुष्य । विशेष — ऋग्वेद केर पुरूषसूक्त मे ब्राह्मणक उत्पत्ति विराट् या ब्रह्म केर मुख सँ कहल गेल अछि । अध्यापन, अध्ययन, यजन, याजन, दान आर प्रतिग्रह ई छह कर्म ब्राह्मणक कहल गेल अछि, एहि सँ हुनका लोकनि केँ षट्कर्मा सेहो कहल जाइत छन्हि । ब्राह्मण केर मुख मे गेल सामग्री देवता केँ भेटैत छन्हि; अर्थात् हुनकहि मुख सँ ओ ताहि समर्पित वस्तु केँ प्राप्त करैत छथि । ब्राह्मण केँ अपन उच्च पद केर मर्यादा रक्षित रखबका लेल आचरण अत्यंत शुद्ध ओ पवित्र राखय पड़ैत छन्हि । एहेन जीविका केर हुनका लेल निषेध अछि जाहि सँ कोनो प्राणी केँ दु:ख पहुँचय । मनु द्वारा कहल गेल अछि जे हुनका लोकनि केँ ऋत, अमृत, मृत, प्रमृत या सत्यानृत द्वारा जीविका निर्वाह करबाक चाही। ऋत केर अर्थ भेल भूमि पर पड़ल (खसल) अनाज केर दाना केँ चुनब (उंछ वृत्ति) या छोड़ल गेल बाली सँ दाना झाड़ब (शिलवृत्ति) । बिना मँगने जे किछु भेट जाय से लय लेब अमृत वृति थिक; भिक्षा माँगबाक नाम भेल मृतवृत्ति । कृषि ‘प्रमृत’ वृत्ति थिक तथा वाणिज्य सत्यानृत वृत्ति थिक । एहि वृत्ति सभक अनुसार ब्राह्मण चारि प्रकार केर कहल गेल छथि — कुशूलधान्यक, कुभीधान्यक, त्र्यैहिक और अश्वस्तनिक । जे तीन वर्ष धरिक लेल अन्नादि सामग्री संचित कय राखथि ओ कुशलधान्यक, जे एक वर्षक लेल संचित करथि ओ कुंभीधान्यक, जे तीन दिन केर लेल राखथि, हुनका त्र्यैहिक और जे नित्य संग्रह करथि आर नित्य खाइथ ओ अश्वस्तनिक कहाइत छथि । चारू मे अश्वस्तनिक श्रेष्ठ छथि । आदिम काल मे मंत्रकार या वेदपाठी ऋषि मात्र ब्राह्मण कहाइत छलाह । ब्राह्मण केर परिचय हुनक वेद, गोत्र और प्रवर सँ मात्र होइत छल । संहिता मे जे ऋषि आयल छथि, श्रोत ग्रंथ मे हुनकहि नाम पर गोत्र कहल गेल अछि । श्रोत ग्रंथ मे प्राय: ओ गोत्र गनायल गेल अछि । पर्या — द्विज । द्विजाति । अग्रजन्मा । भूदेव । बाडव । क्षिप्र । सूत्रकंठ । ज्येष्ठवर्ण । द्विजन्मा । वक्तृज । मैत्र । वेदवास । नय । गुरू । षट्कर्मा ।
३. वेद केर ओ भाग जे मंत्र नहि कहाइछ । वेद केर मंत्रादि – रिक्त अंश ।
४. विष्णु ।
५. शिव ।
६. अग्नि ।
७. पुरोहित ।
८. अठ्ठाईसम नक्षत्र । अभिजित् (को॰) ।
९. ब्रह्म समाज केर लेल प्रयुक्त संक्षिप्त रूप ।
वर्तमान अवस्था
उपरोक्त वर्णित शब्द अनुसार ‘ब्राह्मण’ केर दर्शन आजुक युग मे असंभव प्रतीत भऽ रहल अछि। तथापि, निजी अनुभव सँ आइयो एहेन कतेको नियम-निष्ठा सँ चलनिहार ब्राह्मण भेटैत छथि। आर जाहि तरहक जीवन पद्धति ‘ब्राह्मण’ लेल निर्दिष्ट अछि, सच मे आजुक युग मे एतेक कठोर नियम केँ वहन करैत जीवन चलायब नगण्य ब्राह्मण सँ मात्र संभव देखाइत अछि। एहेन समय मे जातीयताक कोन आधार पर ‘ब्राह्मण’ जाति-व्यवस्था के टिकल कहि सकब? ई एकटा प्रश्न हमर मस्तिष्क केँ बझा देने अछि। जहिना साधु-महात्मा, ऋषि-मुनि, योगी-संत आदिक दर्शन आजुक कलियुग मे दुर्लभ, तहिना विशुद्ध ब्राह्मणक दर्शन दुर्लभ देखैत छी।
फोटोः आनन्दजी झा, कुशोत्पाटन लेल आइ कुशी अमावस्या पर ब्राह्मणवृत्तिक दृश्य
तथापि ‘ब्राह्मण’ जाति व्यवस्था आइयो ‘ब्राह्मण’ कुल अथवा वंश मे जन्म हेबाक आधार पर कायल अछि, ईहो सच्चाई थिक। आइयो धरि एहेन कय गोट संस्कार भले विकृत स्वरूप मे मुदा जीबित अछि जे ब्राह्मण व्यवस्था केँ कायम रखैत देखबैत अछि। उपरोक्त शब्द आ अर्थ केर क्रमांक संख्या २ मे वर्णित जाति-कर्म केर आध्यात्मिक स्वरूप केँ जियैत रेयरेस्ट अफ रेयर ब्राह्मण मे हम देखि रहल छी। परञ्च भावनात्मक जीवनशैली मे उपरोक्त वर्णित विभिन्न कर्म, सदाचार, दिनचर्या निश्चित बहुल्य व्यक्ति ओ परिवार मे देखल जाइछ। आर एकर प्रत्यक्ष प्रभाव ब्राह्मण परिवारक सन्ततिक संस्कार मे सेहो देखल जा सकैत अछि। लेकिन ईहो कहय मे अतिश्योक्ति नहि होयत जे ब्राह्मणक संस्कार शत-प्रतिशत ब्राह्मण-परिवार मे आजुक युग मे नहि बाँचल। आइ परिस्थिति एहि व्यवस्था केँ धुमिल कय देलक। व्यक्ति अपन धर्म-कर्म केँ संरक्षित नहि राखि सकल। स्खलित अवस्था मे क्षीण शक्तिक संग ई व्यवस्था जिबैत अछि, ई हमर अवलोकन थिक। आर यैह कारण छैक जे ब्राह्मणक सर्वोच्चता पर वैदिक निर्देशन केँ लोक, अन्य जाति-समुदाय द्वारा कठोर आलोचना झेलय पड़ि रहलैक अछि। हमरा हिसाबे, स्वयं ब्राह्मणजन केँ अपन धर्म-कर्म आ सदाचार केँ कोना जोगाकय राखल जा सकत ताहि पर विशेष चिन्तन-मनन करबाक चाही।