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पितर लेल ‘मृत्युभोज’ करू नहि करू ‘श्राद्ध’ अवश्य करू

विचार

– प्रवीण नारायण चौधरी

पितर लेल ‘मृत्युभोज’ करू नहि करू ‘श्राद्ध’ अवश्य करू

(सन्दर्भः एखन अनिल चौधरी जी संग चर्चा चलि रहल छल, हुनका हिसाबे कर्मकाण्डीय पद्धति मे श्राद्ध आदि पर रोक लागक चाही, १३ दिन मे पाक हेबाक नीति परिवर्तन हेबाक चाही, दान-दक्षिणा आदि सब खत्म हेबाक चाही…. आदि।)
 
श्राद्ध या कोनो संस्कार परम्परा अनुसार होएत आबि रहल अछि। वेदविहित कर्मकाण्ड मे सब ठाम यैह कहल गेल अछि जे यथासाध्य, यथासंभव, यथोपचार, मंत्रहीन, क्रियाहीन, जहिना-तहिना अपन देवता वा पितर आदिक प्रसन्नता लेल अपन पूर्ण आस्था ओ विश्वास सँ हम ‘कर्त्ता’ ई अनुष्ठान कय रहल छी। हरेक संस्कार-कर्मक संकल्प होएत छैक, तदोपरान्त यज्ञ विधान अनुरूप हविष्य समर्पित करैत आगू बढैत अछि। यज्ञ-कार्य सही आ उचित ढंग सँ हो ताहि लेल एकटा होता (आचार्य) केर वरण कयल जाइत अछि। जहिना देवकर्म करेबाक लेल एक पुरोहित केर आवश्यकता अछि, तहिना श्राद्ध-कर्म करेबाक लेल सेहो एकटा पुरोहित केर आवश्यकता अछि। दुनू कर्म मे दान-दक्षिणा आदिक विधान यथासंभव उपलब्ध साधन सँ कयल जेबाक परंपरा सँ सब कियो अवगत छी।
 
तखन आडंबरी विधान आ आडंबरी सख-मौज मे जखन कर्मकाण्डीय पद्धति प्रवेश पबैत अछि तखन सब यज्ञ आ कि संस्कार कर्म अपन मूल आध्यात्मिक सरोकार त्यागिकय भौतिकतावादी – सांसारिक प्रदर्शनक जाल मे फँसैत चलि जाइत अछि। यैह आडंबर मनुष्य केँ कर्जो कय केँ गोटेक आडंबरी विधान किंवा कर्मकाण्ड पूरा करय लेल उकसाबैत छैक या बाध्य करैत छैक। समाज मे ताहि लेल एकटा सर्वोपयोगी नियम छैक। आपसी बैसार आ ताहि मार्फत निर्णय। मिथिला मे जखन कतहु कियो व्यक्तिक मृत्यु भऽ जाइत छैक तऽ ओकर आश्रितजन आ जुड़ल समाज (समुदाय, जाति, वर्ग, इत्यादि) आपस मे बैसिकय कर्त्ता ओ मृतकक परिजन संग ई तय करैत अछि जे श्राद्धकर्म मे कि सब करब उचित होयत। एहि मे नहिये कोनो पुरोहित आबिकय अपन राय दय सकैत छथि, नहिये समाजक लोक किनको पर कोनो दबाव बना सकैत छथि।
 
श्राद्धक वैज्ञानिक महत्ता सेहो बड़ा स्पष्ट छैक। घर मे शोक भेल, मृतक अपन शरीर छोड़ि चलि गेलाह, आब जे बाकी बचल लोक कष्ट मे हुनकर जीवन-स्मृति संग अपना केँ दुःख मे पबैत अछि तऽ शाश्वत सत्य मृत्यु केँ स्वीकार करैत शेष बचल जीवन केँ पुनः पटरी पर आनबाक – शुद्धीकरणक रूप मे ई अनिवार्य कर्म कहिकय शास्त्र निर्देशन करैत अछि। सनातन (हिन्दू) धर्म मे मानवरूपी जीवनक अन्त भेलाक बादो जीवनचक्र अनन्त होयबाक परिकल्पना मुताबिक ऐगला जीवन (मृत्योपरान्तक अस्तित्व) लेल पर्यन्त सद्गति – अर्थात् जहिना अहाँ अपन जीवन पर्यन्त अपन अनिवार्य आवश्यकता रोटी, कपड़ा, मकान संग सुख आ सुविधाक अनेकों वस्तुक चाहत रखैत छी, ठीक तहिना मृतक लेल मृतकक अभिन्न मुखाग्नि सँ कर्मकाण्डीय विध पूरा कयनिहार कर्त्ता ओ परिजन द्वारा यथासंभव अन्न, वस्त्र, शय्या, बर्तन, आ नव गृहस्थी लेल उपयुक्त हरेक समान दान करबाक आ एहि तरहें अपना केँ संतोष-सान्त्वना प्रदान करबाक आत्मस्वीकृत कर्म कयल जाइत छैक। एहि सँ शोकक निवारण होयबाक संग-संग मृतकक अपन परिवारक लोक, समाजक लोक आ परिचित समस्त स्वजन आदि मे एक प्रकारक माहौल बनि जाइत छैक जे आब हुनका सद्गति भेट गेलनि, आब हमरा लोकनि सेहो अपन जीवनचर्या मे पूर्ववत् मानव धर्म केर निर्वाह करैत सफलता दिश उन्मुख होइ।
 
मृत्युभोज बन्द करबाक तर्क
 
कतेको स्थानपर आइ-काल्हि ई खूब चर्चा मे अछि जे मृत्यु तऽ शोकक अवसर थिक, एहेन अवसर पर भोज-भात आ छहर-महर-तीन-पहर केर कोन प्रयोजन… दान आ भोजादि ब्यर्थ खर्चा… कर्म नाममात्र हेबाक चाही…. शुद्धीकरण लेल १३ दिन बहुत लम्बा समय भेल, एकरा ४-५ दिन मे समेट देबाक चाही…. आदि।
 
श्राद्ध कर्म आ विभिन्न दान आदि पर सवाल आरो विभिन्न तरहें उठायल जाइत अछि, किछु हद तक ई उचितो प्रतीत होमय लगैत अछि जे आखिर केकरो मरि गेलाक बाद ई सब ताम-झाम केर कि प्रयोजन आ कियैक न एकरा सब केँ बन्द कय देल जाय…. आदि।
 
एहि सन्दर्भ मे अनिलजी केँ कहल किछु शब्द एतय सेहो राखय चाहबः
 
ई सब कर्त्ता आ ओकर अपन पितर प्रति श्रद्धाक देखेबाक एकटा उचित मार्ग थिकैक। श्राद्ध या यज्ञ या कन्यादान या कोनो भी संस्कार लेल बाध्यकारी खर्चाक कतहु कोनो नियम शास्त्र वचनानुसार एकदम नहि छैक। मिथिला समाज मे श्राद्ध केकर केहेन हो ताहि लेल एकटा सामाजिक नियम सेहो छैक। कर्त्ता सहित मृत व्यक्तिक सम्पूर्ण परिवार आ समाज आपस मे बैसिकय तय करैत अछि। ताहि सँ कहल जे अहाँ कतबो कूद-फान कय लेब, अहाँ सँ वा हमरा सँ वा कोनो क्रान्तिकारी सँ ई सब फालतू कूतर्क पूरा नहि होयत।
 
एतय हम कूतर्क एहि लेल कहल अछि जे श्राद्धकर्म वा कोनो दान-पुण्य मनुष्य सदिखन अपन श्रद्धा, विवेक, उपलब्ध साधन आदि देखिकय स्वेच्छा सँ करैत अछि। समाजक बैसार मे सेहो ओकरे स्वेच्छा सर्वोपरि मानल जाइत छैक। तखन, जाहि वैज्ञानिक लाभ केर बात हम कएने छी आर जाहि तरहें धर्म निर्णयक अनेकों शास्त्र-पुराण आ वेदादिक निर्देशन भेटैत अछि ताहि मे कतहु आडम्बर आ बाध्यकारी नियम केर केकरो ऊपर लादि देबाक कोनो वचन नहि भेटैत अछि…. तखन अनेरे नास्तिक सिद्धान्तक प्रचारक जेकाँ केकरो आस्था आ सत्कर्म पर कुठाराघात कतहु सँ उचित नहि लगैत अछि। अहाँ स्वतंत्र छी, अपन स्वतंत्रता मुताबिक अपन पितर केँ कोना गति प्रदान करब ताहि लेल अपन धर्म निर्णय स्वयं करू। कियो अहाँ केँ कियैक रोकत!
 
वेदविद् लोकनिक दृष्टि मे श्राद्धक महत्व
 
श्रद्धया दीयते यस्मात् तच्छादम्
 
श्राद्ध सँ श्रेष्ठ संतान, आयु, आरोग्य, अतुल ऐश्वर्य और इच्छित वस्तु आदिक प्राप्ति होएत अछि।
 
पितर लोकनिक वास्ते श्रद्धा सँ कयल गेल मुक्ति कर्म केँ श्राद्ध कहल जाइत छैक तथा तृप्त करबाक क्रिया और देवता, ऋषि या पित केँ तिल मिश्रित जल अर्पित करबाक क्रिया केँ तर्पण कहल जाइत छैक। तर्पण करब टा पिंडदान करब थिक।
 
पुराण केर अनुसार जखन कोनो मनुष्य मरैत अछि या आत्मा शरीर केँ त्यागिकय यात्रा प्रारंभ करैत अछि तऽ एहि दरम्यान ओकरा तीन प्रकारक मार्ग भेटैत छैक। ओहि आत्मा केँ कोन मार्ग पर चलायल जायत ई मात्र ओकर कर्म पर टिकल रहैत छैक। ई तीन मार्ग थिक – अर्चि मार्ग, धूम मार्ग और उत्पत्ति-विनाश मार्ग।
 
जखन कियो अपन शरीर छोड़िकय चलि जाइत अछि तखन ओकर सब तरहक क्रियाकर्म करब जरूरी होएत छैक, कियैक तँ ई क्रियाकर्म ओहि आत्मा केँ आत्मिक बल दैत छैक आर ओ एहि सँ संतुष्ट होएत अछि। प्रत्येक आत्मा केँ भोजन, पानि आर मन केर शांतिक जरूरत होएत छैक और ओकर ई पूर्ति सिर्फ ओकर अपन परिजन टा कय सकैत छथि। परिजन लोकनि टा ओ आशा करैत अछि।
 
अंतिम संस्कार सँ लैत १० दिनक दस-गात्र निर्माणार्थ कयल गेल घाटक पिन्डदान, क्षौरकर्म, एकादशा, द्वादशा, माछ-माँस आदिक कर्म कयला उत्तर अपन मिथिला मे लोक शुद्ध होएत अछि। तदोपरान्त सत्यनारायण भगवानक पूजा करैत पुनः अपन जीवनक सामान्य दिनचर्या मे लौटि अबैत अछि। हमर अनुभव ई कहैत अछि जे पितर केँ जे सद्गति भेटैत अछि ओ त अपना जगह पर अछिये, एहि सँ सर्वथा कर्त्ता आ परिजन केँ जे सन्तुष्टि भेटैत अछि ओकर महत्व सर्वोपरि अछि।
 
यजुर्वेद, श्रुति, शास्त्र ओ पुराण सब यैह वर्णन करैत आबि रहल अछि जे पितर केर तृप्ति जरूरी छैक। मृत्यु लोक मे कयल गेल श्राद्ध वैह मानव पितर केँ तृप्त करैत अछि जे पितृलोक केर यात्रा पर छथि। ओ तृप्त भऽ कय श्राद्धकर्ता केर पूर्वज केँ जतय-कतहु हुनकर स्थिति होइन्ह, ताहि ठाम पहुँचिकय तृप्त करैत अछि। एहि तरहें अपन पितर केर पास श्राद्ध मे देल गेल वस्तु पहुंचैत अछि आ ओ श्राद्ध ग्रहण करयवला नित्य पितर मात्र श्राद्ध कर्त्ता केँ श्रेष्ठ वरदान दैत छथि।
 
 
किछु आरो बात कहबाक मोन होइत अछि…
 
सन्दर्भवश हमरा श्रीमद्भागवतकथाक गोकर्ण द्वारा अपन बेमात्रे भाइ धुंधकारी लेल श्राद्ध निमित्त कथावाचनक बात मोन पड़ि गेल अछि। तहिना मोन पड़ि गेल अछि ‘त्रिपिन्डी श्राद्ध’, जे अपन पितर केँ प्रसन्न नहि कय पबैत छथि हुनका पितर दोष केर बात कहिकय कर्मकाण्डीय पद्धति मे त्रिपिन्डी श्राद्धक बात सेहो कहल गेल अछि जाहि सँ पितृदोष दूर होइछ।
 
आब दान कयल गेल वस्तु केँ महापात्र ब्राह्मण यदि झंझारपुरक बाजार मे बेचि अबैथ आ कि दरभंगाक गुल्लोबाड़ा बजार केर ओहि सेठक दोकान मे जतय सँ अहाँ पंचदान श्राद्ध लेल बर्तन-वासन आदि कीनने रही – अहाँ कर्त्ता लेल ई सरोकारक विषय नहि रहि गेल। देव-पितर कर्म बड़ा भाव सँ करबाक चाही, ई सब आस्थाक विषय थिक। अस्तु!
 
॥ॐ अर्यमा न त्रिप्य्ताम इदं तिलोदकं तस्मै स्वधा नमः।…ॐ मृत्योर्मा अमृतं गमय॥
 
पितर मे अर्यमा श्रेष्ठ छथि। अर्यमा पितर लोकनिक देव छथि। अर्यमा केँ प्रणाम। हे! पिता, पितामह, और प्रपितामह। हे! माता, मातामह और प्रमातामह!! अपने लोकनि केँ सेहो बेर-बेर प्रणाम। अहाँ हमरा मृत्यु सँ अमृत दिश लय चली।
 
हरिः हरः!!

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