समकालीन कविता आ डा. चन्द्रमणि झा केर रचना – मुक्त-उन्मुक्त सँ

आदिकवि
 
– डा. चन्द्रमणि
 
निर्दोषकेँ उत्पीड़ित केनिहार
छीना-झपटी, लूटि-मारिकेँ
आजीविकाक साधन बनौनिहार
रत्नाकर!
अहाँ कोना बनि गेलौं आदिकवि वाल्मीकि
कोना बहल अहाँक हृदयसँ काव्य-रसाल
कोना भेल ई कमाल?
एतय तऽ लोकक कसाइ प्रवृत्ति
बढले जा रहल अछि
अहाँसँ एक डेग बढिकऽ
निज कुटम्बहु पर करैछ अत्याचार
राजनीतिक आड़िमे दुराचार-अनाचार
समाजमे घृणाक पसाही लगा रहल अछि
एक समाजकेँ दोसराक प्रति उकसा रहल अछि
निज मातृभूमिक भावभूमिकेँ
खण्ड-खण्ड कऽ झरका रहल अछि।
 
जमुनामे डूबि गेल
कि चढि गेल सहस्र नागक जिह्वा पर बँसुरी
तेँ, डम्फाक थाप पर चलैए विदेस-राग
हाय रे हमर भ्रातृत्व, हाय रे हमर भाग
 
क्रौंड-वधसँ आकुल-व्याकुल
क्रौंचीक विलाप पर
राक्षसक हृदय हेरा गेल
इम्पल्लांट भेल देवत्व लेने
मनुक्खक हृदय करुणाक नोरमे डुबकी लगा
सीताराम कथाकर्त्ताक भेल उदय
की आब शेष नहि रहल ओ तकनीक
रहैत त’ होइत बड़ नीक
 
पशुत्वसँ उठिकए देवत्व तक पहुँचबाक
अहाँक कथा
नहि पढैछ आजुक राक्षस
ओकरा चाही गोंग, बौका
अपनहिमे हेरायल उलझल
लोक सबहक रक्त, ओकर हिस्सा
नाँगर-लूल्ह सबहक बनल रहय शासक
सौंस मति आ सौंस देहक लोक
अछिये कते
जे अछि से कतियैल अछि
भोग-विलासमे भसियैल अछि
 
क्रौंचीक क्रन्दनसँ अहाँक अंतसक
घनीभूत करुणा बनि गेल काव्यधारा
वीणाक तारकेँ भेटल स्वर –
‘मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शास्वती समाः
यत् क्रौंचमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्’
हंताकेँ पड़ि गेल अशांतिक सराप
आब कोनो ब्रह्मर्षि नहि
तेँ, भस्म करबाक अशेष अछि ताप
 
आइ मातृहंता-भ्रातृहंता
होइत अछि उपकृत-पुरस्कृत
चढैछ ए.सी. कारमे, उड़ैछ वायुयान पर
जे रहै गोंतल मुँहसँ बोकरैए आगि
उड़ैए आसमान पर
एकर बूस्टर अछि राष्ट्रद्रोही पद-विमोहित
औरंगजेबक अवतार
जे अपनहि घरमे खाटक नीचाँ
खुनैए इनार लगातार
सह-सह करैए कंस-हिरण्यकश्यप
अपनहि रक्तमे घोरैए जहर
नहि पढैए अहाँक देल मंत्र आदिकवि
नहि उपजैछ एकरा हृदयमे करुणा-देशप्रेम
ई देश गोटपगरा रामक बलेँ चलैए
एखनहुँ किछु लोक
‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादऽपि’ रटैए
अहाँक धरैल बाटसँ भटकल-भोतियैल लोक
रामक अछैत मस्तीमे जीबैए
राजनीतिक कत्ता पीजबैए
मुदा, भरोस दैत अछि कृष्णक वाक्य –
‘अभ्युत्थानं धर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्’
बनि रहल अछि रामसेतु, चलि रहल तैयारी
अनुशासनमे अछि बानरी सेना
कए रहल रामादेशक प्रतीक्षा
वाल्मीकि! अओती अहाँक सीता
नहि पाबि सकता लंकेश तितीक्षा
भगवानक घर देर भेलै, अन्हेर कहियो भेलैए!
 
(पुस्तकः मुक्त-उन्मुक्त केर पहिल कविता – कवि डा. चन्द्रमणि झा द्वारा समकालीन कविता केर पहिल रचना)
 
हरिः हरः!!