मिथिलाक ऐतिहासिक धरोहरः गीत-गोविन्द आ जयदेव
मूल लेखः डा. लक्ष्मी प्रसाद श्रीवास्तव
अनुवादः प्रवीण नारायण चौधरी

‘यदि हरिस्मरणे सरस मनः यदि विलास कलासु कुतूहलम्
सरस कोमलकान्त पदावली भजु जयदेव सरस्वतीम्।’
एहिमे दशावरतारचरित केर अलावे राधा-कृष्ण केर मधुर भावक संयोग गीत केर श्रृंगारपूर्ण चित्रण थिक। जयदेव केर गीत-गोविन्द केर भाषा एतेक सरल अछि जे मिथिलाक नारी लोकनि एकरा झालि-मृदंग पर मगन भऽ कय गबैत छथि। मैथिल कोकिल अभिनव जयदेव केर गीतक प्रतिस्थापन विद्यापतिक गीत सँ मात्र भऽ सकल अछि। मिथिलाक स्त्रीगण लोकनि जयदेवक गीत-गोविन्द गबैत छथि, जाहिमे राधा-कृष्ण लीलाक वन-विहार आ बसंत-लीलाक भावपूर्ण वर्णन भेटैछ। एकर आध्यात्मिक अर्थ सेहो बुझल-मनन कएल जाएछ आर लौकिको अर्थ। गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय केर ई अति सम्माननीय ग्रंथ थिक। महाप्रभु चैतन्यदेव एकर गान करैत-करैत लीलाभाव मे तल्लीन भऽ कय मुर्च्छित भऽ जाएत छलाह।

मिथिलाक आदिकविक रूपमे जयदेव बहुचर्चित
संस्कृत साहित्य मे प्रगीतात्मक प्रबन्ध ‘गीत-गोविन्द’ नामक कृष्ण-काव्यक रचयिता आ १२म शताब्दीक महाकविक रूप मे जयदेव बहुचर्चित मिथिला कवि भेलाह। हिनक जन्मस्थान वर्तमान बंगालक ‘केन्द्रबिल्व’ नामक स्थान थिक, जे ओहि समय पूर्वी मिथिला केर एक भाग छल।
गीत-गोविन्द केर काव्य-महिमा एतेक उच्चकोटिक अछि जे जयदेव केँ त्रिकालवर्ती लोकलब्धि भेट गेल। किंवदन्ति अछि जे श्रीकृष्णक मधुर नाम – राधाकृष्ण, गोपीकृष्ण केर सरस सम्रण करैत भाव-विभोर जयदेव माय-बाप केर मृत्यु भेलाक बाद गृह-त्यागी बनि जगन्नाथपुरी मे बसय लगलाह। एक दिन तन्मय मुद्रा मे कवि केर आँखिक सोझाँ यमुना तट पर कदम्बक गाछ तर मुरली मनोहर श्याम केर मधुर मुस्कियाइत स्वरूप (मूर्त्ति) प्रकट भऽ गेल आर कविक मुंह सँ अाप-सँ-आप उच्चरित शब्द एना निकलय लागलः
“मेधैर्म्मेदुरम्बरं वनभुव श्यामास्तमाल द्रुमै –
नेक्तं भीरुरयं त्वमेव तदियं राधे ग्रहं प्राणय।
इत्थं नन्द निदेश तञ्चलितयोः प्रत्यध्व कुंजद्रुमं।
राधा माधवयोर्जयन्ति यमुना कूले रहः केलयः।”
हिनक पत्नी पद्मावती पति-परायणा छलीह। एक दिन ‘गीत-गोविन्द’ केर एक पदक रचना करैत काल जयदेव रुकि गेलाह। अन्तिम चरण पूरा नहि भऽ पाबि रहल छल। ओकरा अधूरा छोड़ि ओ गंगा-स्नान वास्ते निकैल गेलाह। एम्हर भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं जयदेवक रूप धारण कय हुनकर घर मे प्रवेश करैत कहला, “पद्मा! रस्ते मे गीतक अन्तिम चरण दिमाग मे आबि गेल, ताहि लेल लौटि गेल छी।” उक्त कविताक चरण एहि प्रकार पूरा कएल गेल –
‘देहिमे पद पल्लवमुदारम्’
एकरा बाद जयदेवरूपी कृष्ण पुनः गंगा-स्नान वास्ते निकैल पड़लाह। जयदेव जखन अपने वापस एलाह तखन ई रहस्य प्रकट भऽ गेल आर ओ अपन पत्नीक भाग्यक सराहना करैत बजलाह, “वैह हमर आराध्य छलाह, जिनकर दर्शन अहाँ केलहुँ।” विरहापन्न होएत जयदेव मधुर नाम आर्त्तभाव सँ सुमिरैत ‘श्रीराधामाधवी’ नाम मे संकल्पित भऽ कय रट लगाबय लगलाह आर अन्ततः ओहो प्रभु-दर्शन पाबिकय अपन भक्ति-साधना पूरा कएलनि। (गीत-गोविन्द मे वर्णित)
हरिः हरः!!