विश्वमाता सीता का अद्भुत माहात्म्यः पं. रुद्रधर झा

विश्वमाता सीता का अद्भुत माहात्म्य

– स्व. पं. रुद्रधर झा (अपनी पुस्तक ‘गूढ तत्त्व समीक्षा’ में)

जानकी केर पुकार – हमर बापक राज्य चाही – मिथिला राज्य चाही

यद्यपि पृथ्वी की सर्वोत्तम भूमि मिथिला की पावनतम भूमि से ब्रह्मज्ञानी महाराज जनक के द्वारा आविर्भूत हुई अयोनिजा परमेश्वरी भगवती विश्वमाता सीता का माहात्म्य वर्णनातीत है, तथापि अपनी वाणी को पवित्र करने के लिये ही उनकी आश्चर्यमय विशेषताओं में कुछ क्रमशः लिखी जा रही हैं। सीता जी की विशेषताएँ –

१. मिथिला में कुल परम्परा के व्यवहारानुसार कुमारियाँ ही सदा से तुलसी चौरा आदियों का परिमार्जन करती आ रही हैं। इसी परिपाटी के अनुसार पाँच वर्षों की अवस्था में ही सीता जी को वामहस्त (बांये हाथ) से शिवधनुष को उठाकर दक्षिणहस्त (दाहिने हाथ) से उसके नीचे की भूमि को परिसंस्कृत (घास पात को हटाकर गोबर मिट्टी के घोल से लीपना पोतना आदि क्रियाओं से साफ सुथरा) करती हुई रूप में राजा जनक ने देखते ही सोचा कि महेश्वर के महामारी पिनाक धनुष को फूल के समान बांये हाथ से परमेश्वरी ही उठा सकी हैं, अतः परमेश्वरी सीता का विवाह इस धनुष को तोड़ने वाले परमेश्वर महापुरुष के साथ ही समुचित होगा। अतएव राजा जनक ने प्रतिज्ञा की कि इस शिवधनुष को तोड़ने वाले महामानव के साथ ही महानारी सीताका विवाह होगा।

२. रामचरितमानस के उत्तर काण्ड में गोस्वामी तुलसीदास जी काकभुसुण्डी जी से गरूड़जी को कहाते हैं कि

‘मोह न नारि नारि के रूपा, पन्नगारि यह नीति अनूपा।’

वे ही गोस्वामी जी उसके बालकाण्ड में लिखते हैं कि

‘रङ्गभूमि जब सिय पगु धारी, देखि रूप मोहे नर नारी॥’

इन दोनों कथनों में प्रतीयमान विरोधाभास का समाधान क्या है? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि काकभुसुण्डी जी का जो उक्त कथन है, वह लौकिक रूप के विषय में है और गोस्वामी का जो उक्त कथन है, वह अलौकिक रूप के विषय में है। योनिजा नारी के रूप लौकिक होते हैं और अयोनिजा नारी के रूप अलौकिक। अतः अयोनिजा महानारी जानकी जी का रूप अलौकिक था, जिसे प्रमाणित करते हैं भगवान् राम बालकाण्ड में ही अपने इस वचन से –

‘जासु बिलोकि अलौकिक शोभा, सहज पुनीत मोर मन छोभा।’

अतएव उक्त दोनों कथनों में कोई विरोधाभास नहीं हैं।

३. रामचरितमानस के बालकाण्ड में उल्लेखित गोस्वामी जी की चौपाइयों से सिद्ध होता है कि महाभारी शिवधनुष को भगवान् राम जी ने नहीं तोड़ा, अपितु भगवती सीता जी ने ही तोड़ा। देखिये –

‘लेत चढावत खैंचत गाढें, काँहु न लखा देख सबु ठाढें।
तेहि छन मध्य राम धनु तोड़ा।’

जब निरन्तर टक-टकी लगाकर देखनेवालों में कोई भी नहीं देखा कि राम ने धनुष लिया, उसे चढाया, खींचा और तोड़ा। तब कोई भी गवाह नहीं है कि रामजी के द्वारा शिवधनुष को लेना, खींचना आदि उक्त कार्य हुए और उन्होंने उसे तोड़ा, इसके। जब रघुवंश की ‘रघुकुल रीति सदा चलि आई, प्रान जाइ पर वचनु न जाई’ वाली स्थिति है, तब रामजी और लक्ष्मणजी कभी असत्य भी बोलेंगे, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। देखिये – लक्ष्मणजी परशुरामजी से कहते हैं कि ‘छुअत टूट रघुपतिह न दोषू, मुनि बिनु काज करिय कत रोषू’ एवं रामजी भी उनसे कहते हैं कि ‘छुअतहिं टूट पिनाक पुराना, मैं केहि हेतु करौं अभिमाना’। ऐसी परिस्थिति में स्वतः सिद्ध है कि कोई भी चीज छूते ही तभी टूट सकती है, जबकि वह पहले से ही टूटी हो। तब यही कल्पना होती है कि परमेश्वरी सीताजी ने यह सोचकर कि रावण और वाणासुर महाबलशाली होते हुए भी जिस महाभारी शिवधनुष को छूने तक का भी साहस नहीं कर सके एवं जिस शिवधनुष की ‘भूप सहस दस एकहि बारा, लगे उठावन टरै न टारा’ वाली स्थिति है, उस शिवधनुष को परम सुकुमार महाकोमलाङ्ग बालक राम कैसे तोड़ सकेंगे, शिवधनुष से कहा कि ‘होहु हरूअ रघुपतिहि निहारी’ किन्तु उसे अपनी संकल्पशक्ति से तोड़ दिया। तब उक्त सभी चौपाइयों की संगति हो जाती है।

वस्तुतः संसार के सभी कार्य राम से सन्निहित सीताजी के द्वारा ही किये जाते हैं, अतएव इसको तथा शिवधनुष को मैंने ही तोड़ा इस बात को स्पष्ट कहती हुई भगवती सीताजी (अध्यात्म रामायण के बालकाण्ड के प्रथम सर्ग में ही) हनुमान जी से कहती हैं कि

‘तस्य सन्निधिमात्रेण सृजामीदमतन्द्रिता।
तत्सान्निध्यान्मया सृष्टं तस्मिन्नारोप्यतेऽबुधैः॥
अहल्याशापशमनं चापभङ्गोमहेशितु।
एवमादीनिकर्माणि मयैवाचरितान्यपि।
आरोपयन्ति रामेऽस्मिन्निर्विकारेऽखिलात्मनि॥’

उन (राम) के सन्निधान मात्र से कार्य करने के लिये उद्ता मैं इस (विश्व) को बनाती हूँ। उनके सान्निध्य से मुझसे बनाये को मूर्ख (लोग) उन (राम) में (उन्होंने बनाया ऐसा) आरोप करते हैं। ‘अहल्याशापोद्धार और शिवधनुष का टूटना’ इत्यादि सभी कार्य मेरे ही द्वारा किये गये को भी निर्विकार सर्वात्मा राम में (उन्होंने ही किया ऐसा) आरोप करते हैं।

रामचरितमानस के बालकाण्ड के आरम्भ में ही गोस्वामीजी कहते हैं कि –

उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम्।
सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम्॥

सृष्टि, पालन और संहारकारिणी, दुःखहरण करनेवाली और सकल कल्याण करनेवाली रामप्रिया सीता को मैं प्रणाम किया हूँ।

४. ‘आनन्द रामायण’ के आधार से लिखा जाता है कि जब छ वर्ष की सीता ११ वर्षीय राम के साथ विवाह हो जाने के बाद अयोध्या जाने के लिये पालकी (खड़खड़िया) पर बैठी, तब अपने प्रति अत्यन्त स्नेह के कारण अपने वियोग से रोते और विह्वल होते सभी मिथिलावासियों को देखकर उनके प्रति अपने लिये स्नेहका प्रतिदान दिये बिना मिथिला से अपने गमन को महान् अनुचित समझती हुई सीता ने अपने को महाभारी बना लिया, इसी कारण से जब राजा दशरथजी के चारों कहार पालकी नहीं उठा सके, तब भगवान् राम ने शीघ्रता से पालकी के पास आकर अपनी प्रियतमा सीता से कहा कि क्यों ऐसी लीला की? तब भगवती सीता ने कहा कि आप सब जानते हुए भी कैसे पूछते हैं? तब राम ने कहा कि जिसे जो देना हो, सो दो। तब सीता ने कहा कि किसे दूँ, कोई लेनेवाला भी हो, तब न। तब राम ने कहा कि तब इसका उपाय? तब सीता ने कहा कि इसका उपाय यही है कि समस्त मिथिलावासियों के प्रतिनिधि होकर हम आपसे जो वर मांगते हैं, आप कृपया उसे देकर हमें कृतार्थ करें। तब परमेश्वर राम ने कहा कि जो वरदान लेने की इच्छा हो, उसे मांगो। तब परमेश्वरी सीता ने कहा कि हम आपसे यही वार मांगते हैं कि जिस मिथिला में भूमि से हमारा आविर्भाव हुआ है, उस मिथिला में मरने के समय में जिस प्राणी को भूमियोग हो, उसे सीधे मोक्ष मिल जाये। तब राम ने कहा कि ‘एवमस्तु’ – ऐसा ही हो। अतएव मिथिला के बुद्धिमान लोग ‘काशीमरणान्मुक्तिः’ काशी में मरने से मुक्ति होती है, ‘वाराणस्यां तनुं त्यजेत्’ – काशी में शरीर को त्यागें, इन वेद एवं देवी भागवत के वचनों के रहने पर भी (काशी खण्ड के अनुसार काशी में मरने के बाद भी मुक्ति होने से पूर्व साठ हजार वर्ष तक भैरवीयातना होने की सम्भावना रहने के कारण) मरने के लिये काशी नहीं जाते हैं। और अभी भी मिथिला में मरने के समय में मुमूर्यु (मरणोन्मुख प्राणी) को भूमियोग कराने की प्रथा है एवं मिथिला में अभी भी किसी के मरने के बाद जिज्ञासार्थ आये हुए वृद्ध लोग पूछते हैं कि भूमियोग हुआ कि नहीं? इस प्रकार मरने के समय में मिथिला की भूमि के योग को मोक्षप्रद बनाकर जब सीताजी मिथिलावासियों के अपने प्रति असीम स्नेह का प्रतिदान देखकर उऋण हुईं, तभी पालकी उठी।

५. पुनः उसी रामायण के आधार से लिखा जा रहा है कि जब ‘निशिचर हीन करउ मही, भुज उठाइ प्रण कीन्ह’ के अनुसार भगवान राम संसार के रावणादि सभी राक्षसों का संहार करने के बाद सीता और लक्ष्मण के साथ अयोध्या आनेपर राजसिंहासनासीन होकर आनन्द से समय बिताते थे, तब भगवान राम एक दिन समीपस्थ लोगों को रावणादि राक्षसों के वधों का प्रकार सुनाये, पुनः दूसरे दिन भी जब उसी प्रकार को सुना रहे थे, तब उनके हुए अहंकार को दूर करने के लिये सीताजी ने कहा कि क्या बीस बाँहवाले रावण को मारने की कथा बार-बार लोगों को सुना रहे हैं, यदि आप सहस्रबाहु (हजार बांहवाले) रावण को मार सकें तो आपकी शक्तिमत्ता श्लाघनीय होगी। पत्नी की ललकार पति को असह्य होकर अत्यन्त उत्तेजित करती है, अतः भगवान राम परम उत्तेजित होकर लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न तथा हनुमान को साथ लेकर सहस्रबाहु रावण को मारने के लिये उसकी राजधानी में जाकर घण्टा (युद्धवाद्य) बजाने लगे, तब ब्रह्माजी से ‘किसी पुरुष के द्वारा तुम्हारी मृत्यु नहीं होगी’ इस वरदान प्राप्ति के कारण स्त्री को अबला समझकर अपने को सभी से अजेय माननेवाला सहस्रबाहु रावण ने बाहर आकर पाँच महाबाणों से उक्त पाँचों व्यक्तियों को अयोध्या भेज दिया। वे अयोध्या के उसी स्थानपर गिरे, जहाँ सीताजी अपनी सखी के साथ बात कर रही थी, तब भगवान राम अत्यन्त लज्जित होने के कारण पुनः उक्त चारों व्यक्तियों के साथ सहस्रबाहु रावण की राजधानी जाने के लिये प्रस्तुत हुए तो इस बार परमेश्वरी सीता जी भी साथ हो गईं। वहाँ पहुँचकर पूर्ववत् घण्टा बजाने के बाद अत्यन्त क्रोध विष्ट होकर बाहर आये सहस्रबाहु रावण ने अनुपम सुन्दरी एवं अलौकिक सुषमामयी सीता को पाने की लालसा से राम को ऐसा अमोघ महाबाण मारा, जिससे आहत राम मिर्गी रोगी की भाँति भूमि पर गिर कर मस्तक रगड़ने लगे, इस दृश्य को देखकर परमक्षोभाकुला सीता तुरन्त दक्षिण कालिका के रूप में परिवर्तित होकर सहस्रबाहु रावण को मार डालीं और उसके बाहुओं को काटकर उनसे घघरी बनाकर पहन ली, तब कोपाकुल शेष राक्षसों का संहारकर अत्यन्त कोपमय भयानक रूप से विचरण करती हुई उन्हें देखकर भयभीत देवगण के द्वारा अत्यन्त प्रार्थित होनेपर शंकर उनके मार्ग में शवरूप से लेट गये। तब उछलकर आती हुई दक्षिणकालिका के पैरों के अचानक शंकर की छाती पर पड़ने से नीचे देखनेपर शंकरको पहचानने से नग्ना होने के कारण अत्यन्त सकुचाने से शान्त हुई दक्षिणकालिका। देवगण के द्वारा बहुत संस्तुत होने से प्रसन्न होकर उनको अभय रहने का वरदान देती हुई अन्तर्धान होकर पुनः सीतारूप से राम के पास आ गयी।

यही दक्षिणकालिका मिथिला, बंगाल, नेपाल और उत्कल आदि देशों में कुलदेवता तथा ईष्टदेवता के रूप में पूजित तथा उपासित होती हैं। इसीका समर्थन अध्यात्म रामायण के युद्धकाण्ड के द्वितीय सर्ग में महादेव ने विभीषण के ‘कालीसीताभिधानेन जाता जनकनन्दिनी’ महाशक्ति काली ‘सीता’ नाम से जनकजी की पुत्री हुई हैं – इस वचन से किया है।

इसी प्रकार भगवान राम भी ‘रामः साक्षातु तारिणी’ राम तो साक्षात् तारा ही हैं – इस शारदातिलक आदि तन्त्र ग्रन्थों में उक्त वचन के अनुसार तारारूप में मिथिला और बंगाल आदि उक्त सभी देशों में कुलदेवता तथा इष्ट देवता के रूप में आराधित एवं उपासित होते हैं। अतएव किसी भक्त ने कहा है कि ‘अद्यमे तारिणी तारा रामरूपा भविष्यति’ – आज मेरे उद्धार करनेवाली तारा भगवती रामरूप धारण करेगी।

इस तरह विवेक बुद्धि से समझा जाय तो मिथिला, बंगाल और नेपाल आदि देशों के प्रायः सभी स्थानों में संसार के सभी नर-नारियों के आदर्श मर्यादा पुरुषोत्तम राम एवं मर्यादा महिलोत्तमा सीता ही कुल देवता तथा इष्ट देवता के रूप में पूजित एवं उपासित होते हैं।