विद्यापति पदावली एवं गीतिकाव्य पर डा. देवशंकर नवीन-१ केर दोसर भाग
मूल आलेखः विद्यापति पदावली एवं गीतिकाव्य (हिन्दी) – लेखकः डा. देवशंकर नवीन
अनुवादः प्रवीण नारायण चौधरी
असल मे गीतिकाव्यक असैर भावक केर मन पर दुइ दिशा मे होएत अछि। ई भावक केर चेतना और भावना – दुनू केँ उद्वेलित करैत अछि। एकर दुइ स्थूल पक्ष अछि – शब्द रचना और लय रचना। शब्द रचना, अर्थक माध्यम सँ भावक केर बुद्धिजगत केँ हिलकोरैत अछि और लय रचना, अपन संगीतात्मक प्रभाव सँ ओकर भावना-लोक केँ जगबैत तथा आलोड़ित करैत अछि। शायद यैह कारण हो जे एक श्रेष्ठ गीतिकाव्य केर कुशल गायन कोनो भावक केँ कोनो तपस्वीक स्थिति मे एकाग्र और लीन कय दैत अछि।
संगीत मनुष्यक भावना केँ विस्तार दैत अछि। ओ हमर सीमित भावना केँ व्यापक और विस्तृत भाव चित्त केर संग जोड़ैत अछि। ओ हमर प्रज्ञा केँ यथार्थक धरातल सँ उठाकय कल्पनाक भावलोक मे लीन कय दैत अछि। अर्थरहित स्वर केँ सुनैत रहलाक बादो ओकर गीतात्मकता हमरा अज्ञात भावलोक मे डुबा दैत अछि। स्वरक आरोह-अवरोह तथा राग-लहर सभक प्रभाव सँ हम बिना कोनो संकेतक ई बुझि लैत छी जे ई राग कोन स्थितिक द्योतक थीक – शोक केर, उल्लास केर, विदाई केर, या आनन्द केर। संगीत वास्तविक अर्थ मे एक अशरीरी कला थीक जे हमर मन केँ सीधा स्पर्श करैत अछि। ‘गीतिकाव्य’ केर सृजन मन केँ सीधे स्पर्श करयवाली एहि लय रचना केर सहारे होएत अछि; एतय वैयक्तिक अनुभूति केँ कोमल भावना केर एक अर्थहीन, किन्तु कोमल स्वरलहरी मे संक्षिप्त एवं प्रभावकारी शब्द-चित्र उतारल जाएत अछि।
स्पष्ट छैक जे गीतिकाव्य केर लेल गेयधर्मिता, अनुभूति केर संक्षिप्तता, भाव केर एकसूत्रता, प्रभाव केर श्रेष्ठता, सम्बद्धता विशेष रूप सँ उल्लेखनीय अछि। तैँ कोनो भावुक और सम्वेदनशील व्यक्ति टा एहेन रचना सभक सर्जक होयत। सामान्यतया भावुक और सम्वेदनशील व्यक्ति केँ जागतिक संघर्ष सँ विमुख रहयवला मानि लेल जाएत छैक, मुदा एहेन बात नहि छैक। वस्तुतः सहज जीवन क्रम मे भावना केँ व्यतिक्रम सँ जे अशान्ति उत्पन्न होएत छैक, ओ एकटा शक्तिशाली भाव केर जन्म दैत छैक। युगीन समस्या, मानवीय दैन्य, सामाजिक अनाचार, पारिवारिक विग्रह, कौटुम्बिक पाखण्ड – सब मिलिकय एकटा कवि केर मानसिक धरातल केँ उद्वेलित करैत छैक, कवि केर मन मे क्षोभ, व्यथा, आक्रोश, निराशा, अनास्था पैदा करैत छैक। और, एहि भाव सभक प्रभाव जतेक प्रभावकारी होएत छैक; कवि ओहि पर जतेक एकाग्र भऽ पबैत अछि, ओकर भावना ओतबी प्रबल भऽ पबैत छैक; जाहिर अछि जे ओकर गीतिरचना सेहो ओतबहि श्रेयष्कर हेतैक। एहि धारणा सँ डॉ. शिव प्रसाद सिंह सेहो लगभग सहमत छथि।
जाहिर अछि जे गीति मे अन्तर्निहित संगीतात्मकता और स्वानुभूतिमूलकता टा ओकर तात्त्विक लक्षण होएत छैक। यैह विशिष्टताक कारण गीति मे सहज उद्रेक, नवोन्मेष, सद्यः स्फूर्ति,स्वच्छन्दता, अनाडम्बर इत्यादि अबैत छैक। एहि आन्तरिक, सहजात और प्रवृत्तिगत वैशिष्ट्य पर ओकर रूपगत रचना-विधान निर्धारित होएत छैक। गीति केर प्राथमिक आवश्यकता होएत छैक संवेगात्मक एकता और भाव संकलन केर सुरक्षा। बगैर कोनो भूमिका बनेने सहज उद्रेक और सद्यः स्फूर्ति केर रूप मे गीति प्रारम्भ होएत अछि, जेकर मूल प्रेरणा सँ उद्दीप्त भाव अत्यन्त सुनियोजित ढंग सँ व्यक्त होएत छैक। गीति केर भाव-विकास केर चरम स्थिति अबिते देरी, ओकर अवसान भऽ जाएत छैक। कतेक बेर तऽ श्रेष्ठ कोटि केर गीति भावोत्तेजनाक चरम आबय सँ पहिनहि समाप्त भऽ जाएत छैक और अपन विशिष्ट प्रभाव छोड़ि जाएत छैक।
क्रमशः………
हम कह सकते हैं कि गीति की भावमूलक एकता के लिए उसके आकार की लघुता, उसका विशेष गुण साबित होता है। अनुभूतिमूलक संवेगात्मक एकता की स्थिति सामान्यतया देर तक बनी नहीं रहती। गीति के आकार की लघुता का इस अल्पजीविता के साथ सम्भवतः अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। लघुत्व और लघिमा का यह अनुगुम्फन किसी गीति को पुनरुक्ति, उपदेशात्मकता,वर्णनात्मकता और प्रभावहीनता से बचाता है, और सम्प्रेषणीयता एवं प्रभावोत्पादकता को उन्नत करता है। अर्थात, गीति की लघुकायता में ही कोई रचनाकार अपनी आत्मनिष्ठ भावानुभूति को समेकित, वेगमय और अखण्ड अभिव्यक्ति दे सकता है; और उस संवेग को सुरक्षित रख पाता है, जिसका उद्रेक उसके भीतर हुआ है।
गीति का कोई रूपगत रचना-विधान सुनिश्चित करना उचित नहीं है, इसका कोई भी अलंघ्य नियम तय नहीं किया जा सकता, स्वच्छन्दता ही इसका एक मात्र आवश्यक वैशिष्ट्य है। पर,भाव विकास की सहज प्रक्रिया इसकी वस्तुनिष्ठता तय कर देती है। बड़ी सहजता से हम देख पाते हैं कि भाव जागरित करने वाली प्रेरणा से गीति का प्रारम्भ होता है और वह किसी सम्बोधन के रूप में, भाव-प्रेरक परिस्थिति के संकेतक के रूप में, एवं भावोत्तेजना उत्पन्न करने वाले विचार के रूप में यह अभिव्यक्त होता है। सचाई है कि गीति के भाव-संचार का आधार-तत्त्व बोध-वृत्ति में निहित है, पर इस कारण उसमें कोई गहन बौद्धिकता अथवा तर्क-वृत्ति की खोज नहीं की जा सकती है। अन्तर्निहित बोध-वृत्ति से वह भाव प्रवणता का विकास अवश्य करता है, पर उसकी मदद से वह उसे दर्शन शास्त्रा की व्याख्या नहीं बना देता। गीति के प्रारम्भ में कवि, भावक के मन में प्रेरक परिस्थिति, विचार और स्मृति के संकेत से कुतूहल जगाता है,फिर उद्दीप्त भाव के विकास और बोध-वृत्ति से भाव की तीव्रता बढ़ती जाती है, और अन्त में भाव प्रवणता की चरम स्थिति आती है, जब वह भाव प्रवणता, भावक के मानस लोक को उद्बुद्ध करती हुई मन की सामान्य स्थिति में विलीन हो जाती है। हम निस्संकोच कह सकते हैं कि गीति स्वतःपूर्ण और प्रसंग-निरपेक्ष रचना है। गीति के इस वैशिष्ट्य के आधार पर इसे मुक्तक कहना उचित है। ध्वन्यालोक के अनुसार जिस काव्य में पूर्वापर-प्रसंग-निरपेक्ष रसचर्वणा का सामथ्र्य होता है, वही मुक्तक कहलाता है। अतः मुक्तक काव्य से उस काव्य-रूप का बोध होता है, जिसमें कथात्मक प्रबन्ध या विषयगत बहुत लम्बे निबन्ध की योजना नहीं होती। अर्थात प्रबन्धहीन, स्फुट सभी पद्यबद्ध रचनाएँ मुक्तक काव्य के अन्तर्गत आती है (साहित्यकोश, भाग-1,पृ. 502)। बड़ी सहजता से कहा जा सकता है कि समस्त श्रेष्ठ गीति रचना पूरी तरह से मुक्तक काव्य है।
सर्वमान्य सत्य है कि कोई भी काव्य तभी फलता फूलता है जब युग चेतना में भाव प्रवणता की तीव्रता होती है। विलासपूर्ण वातावरण में काव्य की उन्नति नहीं होती और मौलिकता के शिकंजे से संचालित यान्त्रिक सभ्यता उसे पनपने नहीं देती। प्रेम का व्यापक और शाश्वत भाव ही काव्य का आधारक भाव है। मानव मन की विभिन्न वृत्तियों का उद्गम केन्द्र प्रेम का भाव ही है। गीति में किसी उपदेश अथवा किसी आदर्श की अभिव्यक्ति नहीं होती, वहाँ भावक/सर्जक के व्यक्तित्व का निश्छल उद्घाटन होता है, उदात्त कल्पनाओं को उद्बुद्ध कर भावक को वहाँ सांसारिकता से ऊपर उठाया जाता है, शब्द अर्थ और लय की विलक्षण संगति से हृदय की विस्मृत भावनाओं और प्रसुप्त संस्कारों को जगाया जाता है।
रूप वैविध्य की दृष्टि से गीति के अनेक भेद दिखते हैं–गीत, भावगीति, सम्बोध-गीति, शोक गीति,वर्ग गीति, समाज गीति, राष्ट्रीय गीति। पर हरेक भेद का अपना पृथक अवसर, लय और मनोराग है।
गीति का प्राचीनतम रूप हमारे यहाँ संहिताओं में मिलता है। विदित है कि वह समय आर्यों के सामुदायिक योग-क्षेम का काल था। वहाँ तो अश्रु, हास, उल्लास, विषाद तक सामूहिक आचरण बन जाता था, वैयक्तिकता के लिए उसमें खास जगह नहीं थी। धार्मिक प्रेरणाओं से सामुदायिक स्तर पर रागात्मक अनुभूति जगाने के लिए यज्ञ अथवा संस्कारादि में अघानि, तुनव, कन्धवीणा, नाद जैसे वाद्ययन्त्रों के साथ वेदों की ऋचाएँ सस्वर गाई जाती थीं। इससे वहाँ उच्चारण, स्वर, लय,ताल आदि की क्रमबद्धता के कारण गीति के संगीत-तत्त्व की रक्षा तो होती थी, परन्तु प्राकृतिक दृश्यों के वर्णनात्मक विधान, और रूपक-कथाओं की विस्तृति के कारण वैयक्तिक भावना की तरलता सुरक्षित नहीं रह पाती थी। इसलिए कहा जाना चाहिए कि वैदिक गीतों में गीति के सभी तत्वों की रक्षा पूर्णतया नहीं होती थी। बल्कि तुलनात्मक रूप से देखा जाए तो वैयक्तिक साधना का काल होने की वजह से बौद्ध काल में वैयक्तिकता और आत्मनिष्ठता की गुंजाईश अधिक है,पर नैतिक आचरण और धार्मिक उपदेशों के प्रति विशेष आग्रह होने के कारण बौद्ध साहित्य में भी व्यक्ति के स्वाभाविक मनोरागों की अभिव्यक्ति के लिए स्वतन्त्र अवसर नहीं दिखा।
वाल्मीकि-रामायण की छन्दबद्ध रचनात्मकता और गेयधर्मिता के बावजूद इतिवृत्तात्मकता के कारण गीति के तत्व वहाँ संयोग से ही मिलते हैं। हाँ, इतना तो सच है कि कथात्मक होने के बावजूद कालिदास का दूतकाव्य ‘मेघदूत’, व्यक्तिनिष्ठता और भावपूर्णता के कारण गीति का निकटवर्ती माना जाता है। संस्कृत में जयदेव के ‘गीतगोविन्द’ को गीतिकाव्य का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण माना जाता है, जहाँ रागों के शास्त्रीय विधान और राधा-कृष्ण की क्रीड़ाओं का लालित्यपूर्ण वर्णन मनोरम है।
हिन्दी साहित्य के आदिकालीन प्रबन्धकाव्य अधिकांशतः वीरगाथा काव्य हैं, जिसमें शौर्य, पराक्रम तथा रति, प्रणय से परिपूर्ण छन्दबद्धता और गेयधर्मिता है; और वहाँ गीति की प्रवृत्ति देखी जा सकती है। पृथ्वीराज रासो (चन्द बरदाई), बीसलदेवरासो (नरपति नाल्ह), आल्हखण्ड (जगनिक) आदि गाथाओं का नाम उदाहरण के लिए लिया जा सकता है। कह सकते हैं कि इन गाथाओं में गीति और प्रबन्ध का सीमा-मिलन हुआ है।
कवि कोकिल विद्यापति के यहाँ ‘गीति’ की यह परम्परा कुछ इस तरह विकसित हुई, और इतनी ताकतवर हुई कि उसकी एक स्वतन्त्र दुनिया कायम हो गई। गीतियों का मूल विषय यहाँ यद्यपि राधा-कृष्ण विषयक प्रेम ही है, जो जयदेव के ‘गीतगोविन्द’ का भी विषय है। पर; यहाँ राधा-कृष्ण के प्रेम विषयक संयोग-वियोग की चित्त-वृत्तियों के संवेगात्मक चित्र के साथ-साथ गंगा और शिव की स्तुतियाँ भी मानव मन की तरल रागात्मक वृत्तियों को जागरित करती हैं। विद्यापति की पदावली में मानव-मन के गहन अनुराग और संगीतात्मकता का जैसा अनूठा मिलन समेकित हुआ है, उस आधार पर उन्हें हिन्दी-मैथिली का प्रथम गीतिकार मानना मुनासिब होगा।
महाकवि विद्यापति के रचनात्मक संस्पर्श से गीति-परम्परा न केवल पुष्ट हुई, बल्कि उसकी दिशाएँ स्पष्ट हुईं और पीढ़ियों तक उसकी धारा बढ़ती गई। भक्तिकाल के सन्त कवियों में कबीर, दादू, मलूकदास आदि के पदों में गीति के उत्कृष्ट रूप दिखाई देते हैं। दिलचस्प है कि धर्मोपदेश, मानव-धर्म की स्थापना, अभेद और सहानुभूति के प्रचार, पाखण्ड एवं कर्मकाण्ड के खण्डन आदि के भाव चित्र के बावजूद इन पदों से गीति की तरलता कम नहीं हुई है। वैष्णव भक्त कवियों के यहाँ तो गीति का और भी नैसर्गिक रूप निखर उठा। अष्टछाप के सभी सन्त कवियों में, तुलसीदास, चण्डीदास, मीराबाई के पदों में गीति के मनोहारी फलक देखे जा सकते हैं। रीतिकाल के दौरान उक्ति-वैचित्रय और अलंकारों के आधिक्य के कारण; अथवा अन्य किसी वाजिब कारणों से गीतिकाव्य की परम्परा के विकास अथवा वहन का अवकाश नहीं मिल पाया। पर आधुनिक काल में आकर गीतिकाव्य की गौरवशाली परम्परा फिर से मुखरित हो उठी। जगजाहिर है कि भारतीय वातारण का आधुनिक काल व्यक्ति-स्वातन्त्रय, अतीत गौरव और राष्ट्रीय जागरण का समय था, और यह ऐसा समय था, जब ये सारी धारणाएँ सामूहिक धारणा के रूप में परिगणित थीं, पर साथ-साथ यह भी सच है कि ये समस्त भावनाएँ हर नागरिक का वैयक्तिक मसला था। स्पष्ट है कि गीतिकाव्य के विकास-प्रसार के लिए यह बहुत ही सही समय था। भारतेन्दु हरिष्चन्द्र के पदों, श्रीधर पाठक के राष्ट्र-गीतों में गीति का निर्वहण हुआ और आगे द्विवेदी युग में, छायावाद, उत्तर छायावाद के समय तक में, और फिर नवगीत के रूप में बाद के दिनों में खूब पल्लवित-पुष्पित हुआ। निराला, प्रसाद, पन्त, महादेवी, रामकुमार वर्मा, हरिवंश राय बच्चन, सियारामशरण गुप्त, मैथिलीशरण गुप्त, सुभद्रा कुमारी चौहान, रामधारी सिंह ‘दिनकर’,गोपाल सिंह ‘नेपाली’ की रचनाओं में इसके विलक्षण रूप देखे जा सकते हैं।
गीतिकाव्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध में डॉ. शिव प्रसाद सिंह की राय है कि ‘काव्य की अन्य विधाओं की तरह गीतिकाव्य चूँकि सचेत बुद्धि व्यापार से उत्पन्न वस्तु नहीं है, इसलिए आदिम मानव के अति पुरातन और आरम्भिक भावों के साथ ही गीतिकाव्य का जन्म हुआ। हालाँकि यह कहना कठिन है कि गीतिकाव्य के आविर्भाव का निश्चित काम क्या है, किन्तु इतना तो सहज अनुमेय है कि संवेगों की तीव्रता और उद्वेलन की सामान्य परिस्थितियों में भावाकुल अभिव्यक्ति ने स्वरों का रूप लिया–ऐसे शब्द और अर्थ तथा उनकी पुनरावृत्ति–यही गीतिकाव्य है।’ (विद्यापति/पृ. 191)।
वैदिक काल से पूर्व की कोई प्रामाणिक जानकारी न होने की स्थिति में हम मान सकते हैं कि भारतीय गीतिकाव्य का आरम्भ वैदिक युग से हुआ। वैदिक गीतियों में गीतिकाव्य का स्वर मुखरित हुआ है। वैदिक ऋचाओं, भक्तिपरक स्तुतियों, समूहश्रम के समय श्रम की कठोरता की उपेक्षा और उसे भुलाने के निमित्त गाए जाने वाले समूहगीतों, वीरगाथाओं, प्रेमाख्यानों से होते हुए गीति यहाँ तक आ पहुँची कि अब यहाँ मानव मन की अत्यन्त कोमल भावना, एकान्त क्षण का मानसिक उद्वेग, मनुष्य की हार्दिक विह्वलता–सबके सब यहाँ व्यक्त होने लगीं। मैथिली और हिन्दी गीतिकाव्य के पहले रचनाकार विद्यापति हैं। पूर्व में चर्चा हो चुकी है कि विद्यापति दरबारी कवियों की परम्परा के रचनाकार होने के बावजूद जनजीवन के प्रति पूरी तरह जागरूक थे। डॉ. शिव प्रसाद सिंह की राय में ‘गीतिकाव्य में भाव की एकमेकता, गेयता, प्रभावान्विति और सम्बद्धता को विशेष लक्षण के रूप में स्वीकार कर सकते हैं। गीतिकाव्य की इन विशिष्टताओं को दृष्टि में रखते हुए हम सहज अनुमान कर सकते हैं कि इस काव्य विधा में साहित्य प्रणयन करने वाला कवि हृदय से कुछ भावुक और अपेक्षाकृत अधिक सम्वेदनशील व्यक्ति होगा।कृकवि के मन में गीतिकाव्यात्मक भाव की सृष्टि प्रायः शान्ति-विक्षेप के कारण ही होती है।कृयुग की समस्याएँ, संघर्षों की अवस्थाएँ भी कवि के मस्तिष्क को प्रभावित करती हैं (विद्यापति/पृ.190)।’ पूर्व में भी इन तथ्यों का उल्लेख हो चुका है। गीतिकाव्य की ये सारी विशेषताएँ विद्यापति पदावली के हर पद में उपस्थित हैं।
हिन्दी साहित्य का काल विभाजन करते हुए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ‘वीरगाथा काल’ में जिन ग्रन्थों को आधार बनाया, उनमें विद्यापति की दो कृतियों (कीर्तिलता, कीर्तिपताका) का उल्लेख है। इस वीरगाथात्मक काव्य में वीरगाथा के साथ-साथ अन्य कई सहगामी तत्वों पर कवि की लेखनी चली। पर समग्र रूप से यदि उनके काव्य संसार का अनुशीलन किया जाए तो ‘वीरगाथा काल’ के रचनाकार के साथ-साथ उनकी भक्तिपरक रचनाओं को देखते हुए उन्हें भक्तिकाल का पहला कवि माना जाना जायज होगा। जन-मानस और जन-भावना का जो सरल, सहज, अविरल स्रोत उनकी भक्तिपरक रचनाओं में एक साथ उपस्थित हैं, वह ईष्टदेव के प्रति समर्पण भाव के वैविध्य, गीति के उत्कर्ष, रचना कौशल की प्रगल्भता, जन चित्त-वृत्ति की परख, सामाजिक सरोकार–समस्त तत्वों के क्षितिज की ओर इशारा करती हैं। पूरी तरह से गम्भीर चित्रण, और जटिलता की कहीं कोई गुंजाईश नहीं–यह अद्भुत संयोग है।
उनकी प्रेम-प्रधान रचनाओं में कुछ और ही वैराट्य नजर आता है। बिना लाग-लपेट के यह कहने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि एक ही विद्यापति के यहाँ ‘वीरगाथा काल’, ‘भक्तिकाल’ और‘रीति काल’–तीनों की प्रवृत्तियाँ पूरी क्षमता के साथ हैं। यह दीगर बात है कि उनका जीवनकाल भक्तिकाल के पहले चरण में ही समाप्त हो जाता है। पर यह भी सत्य है कि एक बड़ा कवि अपनी रचना में भावी युग की घोषणा भी करता है। रचना फलक का यह वैराट्य कवि की गहन जीवन-दृष्टि का परिचायक है।
विद्यापति को अक्सर सौन्दर्योपासक कवि कहा जाता रहा है। बंगला के एक समीक्षक ने कहा है, ‘तिनि छिलेन सौन्दर्येर कवि’। लेकिन, यहाँ एक सावधानी की फिर आवश्यकता है। उनकी प्रेमपरक रचनाएँ इसका प्रमाण है कि ‘‘सौन्दर्य का उपासक कवि सौन्दर्य का भोक्ता नहीं,निर्माता भी होता है। वह शारीरिक सौन्दर्य को आँखों की वस्तु मानता है किन्तु हृदय को तृप्त करने के लिए कुछ और चाहिए जो मात्र माँसल सौन्दर्य में उपलब्ध नहीं है, वह ‘कुछ ही’विद्यापति का अपरूप है, सांसारिक होते हुए भी उससे थोड़ा भिन्न। रमणीयता की परिभाषा देते हुए उसकी ‘क्षण-क्षण परिवर्तित नूतनता’ को आवश्यक गुण बताता जाता है, विद्यापति भी इसीलिए केवल नूतन सौन्दर्य के उपासक हैं–उन्होंने इसे चिर नूतन यौवन, अभिराम यौवन का सम्बोधन दिया है।कृसौन्दर्य की पिपासा जब कवि के मन में जगती है तो उसे प्रकृति की प्रत्येक वस्तु सुन्दर लगती है, क्योंकि उसे अपने आदर्श सौन्दर्य की छाया ही सर्वत्र दिखाई पड़ती है (डॉ.शिवप्रसाद सिंह/विद्यापति/पृ.25)।’’
महाकवि विद्यापति के जन सरोकार, जनचेतना, भावनात्मक उत्कर्ष, अनुभूति की सूक्ष्मता का परिचय सही अर्थों में उनकी पदावली ही देती है, जो लोकभाषा में लिखी गई है। उनकी संस्कृत रचनाएँ तो उनके पाण्डित्य की द्योतिका हैं। पदावली की रचनाएँ मोटे तौर पर दो तरह की हैं–एक भक्तिपरक और दूसरी पे्रमपरक। भक्तिपरक रचनाओं के आधार पर विद्वानों में उन्हें शैव,शाक्त, वैष्णव आदि तरह-तरह के सम्प्रदाय में बैठाने का मतभेद चलता रहा है, शायद समग्रता से विद्यापति का मूल्यांकन न कर पाने की स्थिति में यह मतभेद चलता ही रहेगा। शृंगारिक रचनाओं में भी उनके फलक काफी विस्तृत और बहुमुखगामी हैं। पर सारी स्थितियों के साथ जो एक विशेषता सर्वनिष्ठ है, वह है इन रचनाओं की गीतिमयता। गेयधर्मिता का यह उत्कृष्ट समायोजन महाकवि के अनूठे शिल्प का दर्शन कराता है। विद्वानों की बैठक से लेकर चूल्हे-चौके तक, गृहस्थों की मण्डली से लेकर साधुओं के समुदाय तक, भक्तों-पुजारियों से लेकर प्रेमी-प्रेमिका के प्रणय तक में यदि विद्यापति के गीत इतने प्रसिद्ध, प्रशंसित और मनोहारी हैं, लोक कण्ठ में बसी हुई सांस्कृतिक चेतना की तरह प्रिय हैं, तो इसके प्रमुख कारणों में से गीतिमयता का महत्त्व कम नहीं है। महाकवि के ये गीत शब्दानुशासन, छन्दानुशासन पर इनकी गहरी पकड़,उनके जन सरोकार तथा प्रामणिक जीवनानुभूति को तो उजागर करते ही हैं, संगीत शास्त्रा पर उनके नियन्त्रण को भी उद्भाषित करते हैं। और इन सबों के संयुक्त प्रभाव का ही फल है कि विद्यापति के गीत भावक के मन पर जादू का असर छोड़ते हैं।
कहा जा चुका है कि प्रवृत्ति के आधार पर हिन्दी के आदिकाल और मध्यकाल–दोनों में विद्यापति की रचनाएँ दखल रखती हैं। यद्यपि भक्तिकाल के प्रारम्भ में ही महाकवि चल बसे। सन् 1405 के आसपास शिव सिंह का देहान्त हुआ, और कहा जाता है कि परम आत्मीय मित्र शिव सिंह के देहावसान के बाद उन्होंने शृंगार प्रधान रचनाएँ नहीं कीं। अर्थात् जो भी शृंगारिक रचनाएँ हैं वे भक्तिकाल से पूर्व ही रची गईं। फिर भी पदावली की शृंगारिक रचनाएँ, अपने समय के तीन सौ वर्ष बाद की शृंगारिक रचनाओं पर भारी पड़ती हैं।
डॉ. आदित्यनाथ का कहना है, ‘‘रति के कलरव को वाणी द्वारा शुद्ध सौन्दर्य के रूप में मुखरित करने हेतु, भीषण क्षमता, दारुण सिद्धि और अटूट विश्वास जरूरी है, भले ही वह किसी युग की रचना क्यों न हो। जयदेव, विद्यापति, चण्डीदास इन्हीं शक्तियों से जनमनहारी हुए। सूर को यही क्षमता प्राप्त थी। लेकिन परवर्ती रीतिकाल के रचयिता में इसका अभाव था, उनकी रूप-आसक्ति सहज और तन्मय नहीं थी। उन्होंने मन के सहज स्फोट से नहीं लिखा, मन को चिन्तन के दबाव से पीड़ित किया और तब पद-रचना की। इसीलिए रीतिकाल का शृंगार या तो कलुषित लगता है या कृत्रिम। ध्येय दूषित होने से समस्त परवर्ती काव्य दूषित हो गया।’’ जबकि वयःसन्धि की बालाओं के उरोज वर्णन, विपरीत रति अथवा समागम चित्र आदि का चित्रण करने वाली विद्यापति की रचनाएँ अश्लील नहीं लगतीं, भरी सभा में उसका परायण थोड़ा भी संकोच,कुण्ठा या लज्जा महसूस नहीं कराती। प्रो. मैनेजर पाण्डेय कहते हैं, ‘‘प्रेम व्यक्ति के सामाजिक सम्बन्धों का आधारभूत तत्व है। समाज के ज्ञान और अपने बीच अपनी स्थिति का बोध प्र्रेम के कारण ही सम्भव होता है। प्रेम के कारण ही समाज का संगठित स्वरूप निर्मित होता है।कृव्यक्ति में जीवन की कामना जितनी तीव्र होती है प्रेम की भावना भी उतनी ही प्रबल होती है।कृप्रेम में भावनाओं तथा अनुभूतियों के पारस्परिक तनाव को दूर कर उनमें सामंजस्य-स्थापना की शक्ति है और अनुभूतियों के सामंजस्य से ही लालित्य बोध का उद्भव होता है। सौन्दर्य एक अनुभव है और इस अनुभव में निहित रागात्मक अंश प्रेमजन्य ही होता है। प्रेम सर्जनात्मक भाव है। वह जीवन और काव्य में सृजन की प्रेरक शक्ति है (भक्ति आन्दोलन और सूरदास का काव्य/पृ. 156-157)।’’
प्रेम की भावना तथा अनुभूति की दुर्बलता के कारण ही रचनाओं में जीवन का वास्तविक मर्म नहीं उभर पाता। और तब जाकर वहाँ प्रेम तत्व और गीति तत्व दोनों का दुर्बल हो जाना जायज लगता है। डॉ. शिव प्रसाद सिंह को तो हिन्दी के सम्पूर्ण भक्ति-रीति साहित्य में गीतिकाव्य की शुद्ध प्रकृति का स्पष्ट आभास नहीं मिलता (विद्यापति/पृ. 195)। ‘प्रेम’ की अनुभूति वस्तुतः मनुष्य को स्वच्छन्द करता है, उन्मुक्त करता है। वह किसी मर्यादा और किसी बन्धन को नहीं मानता। गीतिकाव्य के लिए भी इसी उन्मुक्तता, स्वच्छन्दता और रूढ़ि विरोध की जरूरत है। जो उस काल में विद्यापति के अलावा शायद उस रूप में अन्य किसी में नहीं पाया जाता था और यही कारण है कि गीतिकाव्य का जो उत्कर्ष उनके यहाँ दिखता है, वह शायद परवर्ती कवियों के यहाँ नहीं के बराबर।
गीतकाव्य को व्याख्याथित करते हुए प्रो. मैनेजर पाण्डेय लिखते हैं, ‘‘गीतकाव्य व्यक्ति के सम्वेदनशील चित्त में रूपायित भावनाओं का आवेगमय लयात्मक सहज प्रकाशन है। भवनाओं की तीव्र आत्मानुभूति गीतकाव्य में कवि के व्यक्ति चित्त और लोकचित्त का एकात्म्य जरूरी होता है(भक्ति आन्दोलन और सूरदास का काव्य/पृ. 28)।’’ इस आलोक में यदि विद्यापति के गीतों का अनुशीलन किया जाए तो साफ-साफ दिखता है कि यहाँ कवि का जीवनानुभव, आम जनता का अनुभव बनकर उतर आया है। व्यक्ति चित्त और लोक चित्त का ऐसा एकात्म्य अन्यत्र कम दिखता हैः
सपने देखल हरि, गेलाहुँ पुलकें पुरि
जागल कुसुम सरासन रे।
ताहि अवसर गोरि नीन्द भाँगलि मोरि,
मनहि मलिन भेल वासन रे।
की सखि पओलह सुतलि जगओलह
सपनेहुँ संग छड़ओलह रे।
विरह व्याकुल नायिका नीन्द से सोई हुई है। स्वप्न में अपने प्रिय(कृष्ण) से मिलकर पुलकित है। कामदेव उनके अंग-अंग में जाग उठे हैं पर ऐसे ही अवसर पर राधा की सखि उसे जगा देती है। एक विरहिनी की इस दारुण दशा को विद्यापति ने अपनी उक्त पंक्तियों में व्यक्त किया है। नायिका अपनी सखि को उलाहना देती है कि सपने में भी मुझे तुमने अपने प्रिय से मन भर नहीं मिलने दिया। मेरा यह सुख छीनकर तुम्हें क्या मिला।कृयह लोक चित्त की दशा है। यह दशा केवल विद्यापति की राधा की ही नहीं, विरह की आग में झुलसती किसी भी नायिका की हो सकती है। नारी मन की इस व्यथा को राधा के सहारे व्यक्त करते हुए महाकवि ने आवेगमय भावनाओं का जिस लयात्मकता के साथ चित्रण किया है, उसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है। कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए, कि व्यक्ति चित्त की भावनाओं को व्यक्त करते हुए महाकवि विद्यापति लोकचित्त की भावनाओं के इकलौते गायक हैं, जिनकी गीति शैली और अभिव्यक्ति कौशल में जनभावनाएँ आकार भी पाती हैं, ध्वनि भी पाती हैं और अपने समग्र प्रभाव के साथ उपस्थित होती हैं।
गीतिकाव्य की विकास परम्परा के मद्देनजर महाकवि विद्यापति की गीति शैली का यह स्पर्श मात्र है।
विद्यापति पदावली की गेयधर्मी विशेषताएँ
विद्यापति के पदों की सबसे बड़ी विशेषता उसकी संगीतात्मकता ही है। विद्वानों से लेकर हलवाहों तक की मण्डली में विद्यापति के पदों की लोकप्रियता का मूल कारण इसकी सहज संगीतात्मकता, सरल सम्प्रेषणीयता और उसमें व्याप्त लोक चित्त की भावनाओं का अनुगूँज ही है। गीतिमयता इन गीतिकाव्यों का प्राण-तत्व है। विदित है कि मैथिली में रचे गए उनके सारे पद गीति हैं। गेयधर्मिता की परिपूर्णता का ही परिणाम है कि गायन के समय न तो किसी सिद्ध संगीतज्ञ को रागों के सारे शास्त्रीय विधानों को लागू करने में; संगीत शास्त्रा के नियम-कायदे लगाने में; लय, ताल, छन्द, मात्र की गणना में कोई भी त्रुटि दिखती; न ही संगीत शास्त्रा के व्याकरणिक शिष्टाचार से अनभिज्ञ किसी निपट साधारण व्यक्ति को। सारे ही लोग इन्हें तन्मयता से गाकर आत्मसुख प्राप्त करते हैं। अचम्भे की बात है कि एक ही गीत (उदाहरण देना आवश्यक हो तो तत्काल कखन हरब दुख मोर हे भोलानाथ को ले लें) को बगैर कहीं किसी शब्द और मात्र परिवर्तन के लोग कभी प्रातकालीय राग में गाते हैं, कभी सोहर की तरह, कभी समदाओन की तरह, कभी किसी और ही राग में, जबकि शास्त्रीय संगीत के अनुशासन में ये सारे अलग-अलग राग पर आश्रित हैं। वस्तुतः इन गीतों की संरचना में ही संगीतात्मकता इस तरह पिरोई हुई है कि लयबद्ध करने में गायकों को कोई असुविधा नहीं होती। प्रो. मैनेजर पाण्डेय का कहना है कि ‘‘गीतकाव्य में काव्यानुभूति के साथ गीतकार की तन्मयता के अनुरूप ही पाठकीय तन्मयता सम्भव होती है। गीतकाव्य वैयक्तिक अनुभूति की व्यंजना है, किन्तु उसमें लोक-हृदय का स्पन्दन भी होता है, यही कारण है कि वैयक्तिक गीत समूहगीत बन जाते हैं (भक्ति आन्दोलन और सूरदास का काव्य/पृ. 260)।’’
विद्यापति के गीतों में यह बहुत बड़ी विशेषता है कि यहाँ सारे काव्यगीतों में गीतकारों की तन्मयता के अनुरूप पाठकीय तन्मयता के सारे तत्व उपस्थित हैं, जिस कारण वे तत्क्षण उनमें लीन होकर एकात्म्य स्थापित कर लेते हैं। पाठक, भावक और गायक–तीनों ही वर्गों के लोग इन गीतों में उतनी ही तन्मयता से खो जाते हैं, जितनी रचनाकार की रही होगी। उनकी गीति रचनाएँ, चाहे भक्तिपरक हों अथवा शृंगारपरक, शक्ति वन्दना हो या गंगा स्तुति या शिव नचारी;विरह-विलाप हो या मिलन-सुख के गीत… सबके-सब भावक को लीन करने में सफल हैं। पावस की रात में मेघ जब अपनी सारी कलाओं से बरस रहा होता है, तब घर में अकेली बैठी कोई युवती अपने पिया की अनुपस्थिति की पीड़ा किस तरह सहती है, इसको चित्रित करते समय महाकवि ने जब ‘सखि हे हमर दुखक नहि ओर’ गीत लिखा होगा तो कितनी तन्यमयता रही होगी, यह कल्पना उस गीत की पंक्तियों को देखकर की जा सकती है। इस गीत में यौन पिपासा, देह लिप्सा और उद्धत कामुकता से आतुर किसी कामुक युवती की अश्लील काम भावना नहीं, विरह की आत्यन्तिक पीड़ा सहती, प्रेम रंग में रंगी एक प्रेम तपस्विनी की व्यथा व्यक्त हुई है, जिसे सुनकर, पढ़कर या गाकर लोग उस दृश्य से एकात्म्य स्थापित कर लेता है। इन गीतों में मणि कांचन संयोग की दशा ये है कि एक तरफ चित्रण ऐसे उत्कर्ष पर और दूसरी तरफ गीतिमयता यह, कि पढ़ते हुए पाठक के भीतर आप से आप कोई संगीत बज उठे। शब्दों के उच्चारण होते ही अनुभव हो कि शायद आसपास कोई वाद्य यन्त्र बज रहा है, कोई मादक संगीत चल रहा है, जो भीतर से हृदय को कहीं कुरेदता है:
झम्पि घन गरजन्ति सन्तत भुवन भरि बरिसन्तिया
कन्त पाहुन काम दारुण सघने खर शर हन्तिया।
कुलिश कत शत पात मुदिर मयूर नाचत मातिया
मत्त दादुर डाके डाहुकि फाटि जायत छातिया।
विद्यापति के इन गीतों को आदर्श मानने वाले भावकों को प्रो. मैनेजर पाण्डेय की यह धारणा सही लगेगी कि ‘‘गीत काव्य में नाद-तत्व या संगीत सम्वेदना से उद्भूत लयात्मक बोध अनिवार्य होता है। गीत और संगीत का सम्बन्ध आत्मिक है, आन्तरिक है। गीत काव्य में भावों की गति लयात्मक होती है।कृसंगीत गीतकाव्य का सहज अंग है। गीतकाव्य में कहीं संगीत से काव्यत्व दब जाता है और कहीं काव्यत्व से संगीत अनुशासित होता है, लेकिन श्रेष्ठ गीतकाव्य में काव्य और संगीत का पूर्ण सामंजस्य होता है(भक्ति आन्दोलन और सूरदास का काव्य/पृ. 261)।’’महाकवि विद्यापति के इन गीतों को देखते हुए स्पष्ट होता है कि यहाँ भावों की लयात्मक गति में काव्य और संगीत का अनूठा सामंजस्य है। प्रो. पाण्डेय कहते हैं, ‘‘विद्यापति के पदों में सौन्दर्य चेतना का आलोक भावानुभूति की तीव्रता, घनत्व एवं व्यापकता और लोकगीत तथा संगीत की आन्तरिक सुसंगति है। कुछ आलोचकों का मत है कि विद्यापति के गीत लोकगीत के अधिक निकट हैं और उनमें संगीत की शास्त्रीयता का अभाव है। विद्यापति के गीतों में संगीत के तत्वों का अभाव नहीं है, क्योंकि लोचन कवि ने रागतरंगिनी में विद्यापति के गीतों की संगीतात्मकता का विशद विवेचन किया है। विद्यापति के गीतों का प्रभाव सूरदास के लीला पदों के रूप में दिखाई पड़ता है…विद्यापति और सूरदास दोनों ही भक्ति आन्दोलन के कवि हैं, दोनों के काव्य में लोक गीत की मौखिक परम्परा का सर्जनात्मक रूप व्यक्त हुआ है। ये दोनों ही हिन्दी जगत के दो जनपदों की भाषा के ग्रामगीतों के कलात्मक रूप के निर्माता और उन गीतों में जन संस्कृति के रचनाकार हैं (भक्ति आन्दोलन और सूरदास का काव्य/पृ. 264)।’’
जिन आलोचकों ने विद्यापति के गीतों को लोकगीत के करीब और इनमें शास्त्रीयता का अभाव माना है, उन्होंने अपना निर्णय शायद बहुत जल्दबाजी में दिया है और विद्यापति के गीतों का बगैर अनुशीलन किए दिया है। विभिन्न स्थानों से विद्यापति की जो पदावलियाँ हासिल हुई हैं,उसमें संकलित पदों के शीर्ष पर रागों का नाम उल्लिखित है कि कौन-सा गीत किस राग में गाया जाएगा। मालव राग, धनछरी, सामरी, अहिरानी, केदार, कानड़ा, कोलाथ, सारंगी, गुंजरी, बसन्त,विभास, नटराग, ललित वरली आदि रागों का उल्लेख पदों के शीर्ष पर है। जिन आलोचकों ने‘बाजत द्रिगि-द्रिगि धौद्रिम द्रिमिया’ जैसे विद्यापति के कई गीत पढ़े होंगे और विद्यापति के अन्य सारे गीतों में भी राग की सुसंगति बैठाकर उसे देखा होगा, वे निश्चय ही ऐसी भाम्रक बातें नहीं करेंगे और प्रो. पाण्डेय की तरह ही विद्यापति के गीतों में लोक गीतों और संगीतों की सुसंगति पाएँगे, यहाँ ग्रामगीतों के कलात्मक रूप पाएँगे और यहाँ जन संस्कृति की मौजूदगी पाएँगे। विद्यापति के गीतों में संगीत की शास्त्रीयता का अभाव ढूँढने वाले विद्वानों को यह समझना चाहिए कि संगीत की शास्त्रीयता का जो रूप उन्हें आज दिख रहा है, उसके विकास-सूत्र का भी कोई न कोई छोर उन्हीं वैदिक गीतियों और लोककण्ठ में बन्धा होगा जहाँ से विकसित होकर काव्य की एक धारा गीतिकाव्य तक पहुँची है। संगीत की शास्त्रीयता का निर्धारण कोई रातों रात नहीं हो गया। मानव सभ्यता के विकास की तरह, इसकी भी एक विकास परम्परा है।
महाकवि विद्यापति के सारे गीतों का समुचित संकलन अभी तक तो हो नहीं पाया है, परन्तु यह उनके पदों की गीतात्मक विशेषता ही है कि असंख्य गीत लोक कण्ठ में बस गए हैं और यह कवि का लोक सम्बन्ध तथा लोक संस्कृति से गहरी सम्बद्धता ही है कि इन गीतों में विभिन्न सामाजिक रीति-रिवाज मौजूद हैं, जिस कारण वे गीत जनपद की ललनाओं द्वारा उपनयन,विवाह, मुण्डन, पूजा-पाठ, कीर्तन-भजन, सोहर, समदाओन, जन्म-मरण आदि अवसरों पर गाए जाते हैं और बिल्कुल उन अवसरों के लिए सटीक बैठते हैं।
प्रो. मैनेजर पाण्डेय ने गीतिकाव्य में संगीत के तीन स्वरों की उपस्थिति मानी है–शब्द संगीत,नाद संगीत और भाव या विचार संगीत। इस आशय की चर्चा पूर्व में भी हो चुकी है कि गीतिकाव्य हमें हृदय और मस्तिष्क–दोनों धरातलों पर उद्बुद्ध करता है। लय से भावना को सहलाता है और अर्थ से मस्तिष्क अर्थात् विचार को। प्रो. पाण्डेय की इस पंक्ति से यहाँ समर्थन लिया जा सकता है कि ‘‘शब्द संगीत और नाद संगीत से क्रमशः अर्थ संगीत तथा लय संगीत की रचना होती है (भक्ति आन्दोलन और सूरदास का काव्य/पृ. 261)।’’
महाकवि विद्यापति के कई गीत यदि लोक कण्ठ में रच-बस गए हैं तो उसका कारण यही है कि यहाँ शब्द संगीत नाद संगीत और भाव संगीत–तीनों एकमेक होकर ऐसी त्रिवेणी बहा रहा है,मानो गीतिकाव्य का आनन्दातिरेक यहीं से शुरू होकर यहीं खत्म हुआ चाहता है। जब ‘के पतिया लए जायत रे’, ‘सखि हे, हमर दुखक नहि ओर’, ‘सखि की पूछसि अनुभव मोहि’, ‘प्रथम समागम भुषल अनंग’, ‘उगना रे मोर कतए गेलाह’, ‘जय-जय भैरवि असुर भयाउनि’, ‘बड़ सुखसार पाओल तुअ तीरे’कृजैसे गीतों के पद पढ़े जाते हैं तो इनमें शब्द संगीत, नाद संगीत और भाव संगीत की ऐसी ताकत भरी हुई है कि बिना किसी प्रयास के नितान्त अपटु और लयहीन मनुष्य के मुँह से भी गीत फूट पड़ता है। उनके गीतों को गाने की जरूरत नहीं होती, यहाँ संगीत तत्व इतना बलवान है कि वह स्वतः फूट पड़ता है।
प्रो. मैनेजर पाण्डेय कहते हैं, ‘‘कभी-कभी शिष्ट साहित्य का वह अंश जिसमें जनमानस की दशाओं की सहज व्यंजना होती है, लोक साहित्य का अंग बन जाता है।’’ विद्यापति के गीतों के सन्दर्भ में यह कथन सौ फीसदी सच है। जनपद में लोकगीतों की तरह व्याप्त उनके गीतों का कारण ढूँढने में पाठकों को अधिक परेशानी नहीं होनी चाहिए। यहाँ मनुष्य के राग-विराग, संयोग-वियोग, क्रोध-स्नेह— रंग और पानी की तरह घुला-मिला है। यह विभाजन रेखा खींचना कठिन है कि जनपद की कौन-सी कहावत और कौन सा मुहावरा उनके गीतों में आकर साहित्य बन गया है और कौन सी पंक्ति लोक कण्ठ में जाकर कहावत बन गई है। किसी के आगमन के लिए काक-शकुन की प्राचीन परम्परा मिथिला में है। महाकवि विद्यापति जब विरह व्याकुल नायिका द्वारा ‘काग’ की खुशामद करने वाले गीत में इस लोक सत्य को व्यक्त करते हैं तो वह एक परिष्कृत रूप के साथ सामने आता है। आज भी इस पद की पंक्ति किसी प्रतीक्षा करती नायिका के मुँह से निकल जाता है:
मोरा रे अँगनवाँ चनन केरि गछिया
ताहि चढ़ि कुररय काग रे
सोने चोंच बाँधि देब तोयँ वायस
जओं पिया आवत आज रे।
आम जन-जीवन की सामान्य सचाई है कि किसी भी तरुणी का प्रीतम जब उससे अलग रहता है तो सतत वह उसके सम्बन्ध में ही सोचती रहती है। कामदग्धा नायिका की जो आकांक्षाएँ जाग्रतावस्था में पूरी नहीं होती और हरदम जिसके लिए व्याकुल रहतीं, स्वप्न में उसकी पूर्ति शुरू हो जाती है। लेकिन इस आकांक्षा पूर्ति की लालसा इतनी उत्कट रहती है कि वैसे हाल में वह सोई नहीं रह पाती। अपनी आंगिक और वाचिक चेष्टाओं के कारण जग जाती है। फलस्वरूप नीन्द में पूरी होने वाली आकांक्षा भी अपूर्ण रह जाती है:
सुतलि छलहुँ हम घरबा रे गरबा मोतिहार
राति जखनि भिनुसरबा रे पिया आएल हमार
—
केहनि अभागलि बैरिनि रे भाँगलि मोहि निन्द
भल कए नहिं देखि पाओल रे गुनमय गोविन्द
स्वप्न-सुख और स्वप्न का सुख-भंग विद्यापति के यहाँ कई रूपों में कई-कई गीतों में दिखता है। लोक जीवन की अनुभूतियों के कई-कई चित्र उनके यहाँ काफी स्वच्छ, निष्कपट और सरल रूप में अपने पूरे सामथ्र्य के साथ मौजूद हैं।
कायदे से समीक्षा की जाए तो साफ दिखेगा कि साहित्य में रस की जिस सरिता की कल्पना भावकों ने की है, महाकवि विद्यापति की पदावली ही उस सरिता का उदाहरण है जहाँ संगीत की स्वरलहरी अपनी पूरी नाद शक्ति के साथ शब्दों, अर्थों, भावों, विचारों और लोक यथार्थों के सारे चित्रों को बहाए जा रही है, एकदम शान्त और समुज्ज्वल रूप में। कोई अशान्ति नहीं, कोई अभद्रता नहीं, कोई उच्छृंखलता नहीं। इस साहित्य धारा में यमुना की शान्ति और धीरता, गंगा की निश्छलता, सहजात उन्मत्तता, भावोचित-स्थानोचित-पात्रोचित-कालोचित अल्हड़पन, तीक्ष्णता और सरस्वती की पवित्रता और अदृश्यता हर तरह से मौजूद है। उनकी पदावली को पढ़कर उठनेवाले हर भावक को विद्यापति के शब्दों में कहना पड़ेगा–‘बड़ सुखसार पाओल तुअ तीरे’–जैसे स्वयं महाकवि ने इहलोक से विदा लेते समय गंगा की स्तुति में कहा था।
भक्ति एवं शृंगार का द्वन्द्व और विद्यापति पदावली
भक्ति और शृंगार–भले ही दो बातें हों, पर दोनों का उत्स एक ही है। दोनों का मूल अनुराग और समर्पण है। दोनों ही भाव व्यक्ति के मन में प्रेम से शुरू होते हैं। वैसे तो अभी भी कुछ लोग मिल जाएँगे जो भक्ति और प्रेम को दो दिशाओं का व्यापार मानते हैं। वे सोचते हैं कि जब तक मनुष्य को ज्ञान नहीं होता, युवावस्था के उन्माद में वह स्त्री के रूप जाल में मोहवश फँसा रहता है, भोग में लिप्त रहता है; जब आँखें खुलती हैं, ज्ञान चक्षु खुलता है, भक्ति-भाव से वह ईश्वर की ओर मुड़ता है। पर ऐसा सोचना सर्वथा उचित नहीं है। वास्तविक अर्थों में दोनों ही उपक्रमों का प्रस्थान बिन्दु एक ही है, व्यापार क्रम एक ही है। दोनों क्रिया-व्यापार प्रेम के कारण ही होता है और दोनों ही में समर्पण भाव रहता है, स्वीकार भाव रहता है। प्रेम में प्रेमिका, प्रेमी के प्रति समर्पित होती है या प्रेमी-प्रेमिका के प्रति, ठीक इसी तरह भक्ति में भक्त, भगवान के प्रति समर्पित होते हैं। मीराबाई की काव्य साधना का उदाहरण हमारे सामने है, जहाँ उन्हें कृष्ण की प्रिया मानें या कृष्ण की भक्त…संशय हर स्थिति में मौजूद रहेगा। प्रो. मैनेजर पाण्डेय सही कहते हैं, ‘‘ईश्वरीय प्रेम के लिए मानवीय प्रेम की अनुभूति और उसके स्वरूप का बोध आवश्यक है। व्यक्ति, समाज और सम्पूर्ण सृष्टि के साथ लौकिक प्रेम ही ईश्वरोन्मुख होकर भक्ति का रूप धारण कर लेता है। प्रेम जोड़ने और मिलाने की शक्ति है और यही शक्ति भक्त और भगवान के बीच सक्रिय होती है। ईश्वरीय प्रेम में भक्त भगवान के साथ संयुक्त होकर पूर्ण हो जाता है।…ईश्वर असीम अननत और सर्वव्याप्त है, व्यक्ति ससीम और लोकबद्ध है। लेकिन असीम और ससीम, सर्वोच्च सत्ता और आत्मा का योग पे्रम से ही सम्भव है। प्रेम के लिए द्वैत आवश्यक है। प्रेमी, प्रिय में अपनी आत्मा को ही खोजता और पाता है। प्रेमानन्द में प्रेमी अपनी आत्मा का प्रिय की आत्मा से संयोग करता है। आत्मा प्रेम के सतत विकास-पथ पर परमात्मा के संयोग की कामना से गतिमान है (भक्ति आन्दोलन और सूरदास का काव्य/पृ. 157)।’’
विद्यापति पदावली, भक्ति और शृंगार के बीच विषुवत् रेखा जैसी इसी विभाजक सीमा को समझने हेतु अनुपम उदाहरण है। महाकवि ने माधव की प्रार्थना करते हुए लिखा है–‘तोहें जनमि पुन तोहें समाओब, सागर लहरि समाना।’ उत्स और विलीन हो जाने का यह एकात्म, आत्मा और परमात्मा की यह एकात्मता उनके यहाँ शृंगारिक पदों में बड़ी आसानी से मिलती है। अपने प्रेम-ईष्ट के प्रति उपासिका का समर्पण इसी तरह का भक्तिपूर्ण समर्पण है।
भक्ति के कई-कई रूप हमारे सामने निखरे हैं। सगुण, निर्गुण–दोनों भक्ति के विविध पहलू पर विस्तार से विचार करना यहाँ हमारा ध्येय नहीं। पर आम तौर पर भक्ति में ईष्ट के प्रति भक्त का समर्पण भाव, प्रशंसा भाव, कृतज्ञता भाव, लीन होने की स्थिति, एकात्म स्थापित करने की स्थिति पाई जाती है। हम सब जानते हैं कि ये सारी स्थितियाँ शृंगार, अर्थात् ‘प्र्रेम’ में भी विद्यमान हैं। यहाँ भक्ति और शृंगार को स्पष्ट करने के लिए बेहतर हो कि हम क्रमशः ईष्ट-भक्त प्रेम तथा स्त्री-पुरुष प्रेम पदों का इस्तेमाल करें।
पुराकाल से लेकर आज तक के भक्ति गीतों, प्रार्थनाओं, श्लोकों या ऋचाओं को देखें तो वहाँ भक्ति के नाम पर यही समर्पण, कृतज्ञता, श्लाघा, एकात्मता आदि व्यक्त हैं। तुलसी अपने ईष्ट‘राम’ के रूप, गुण, परिवार, कृति, कर्तव्य, महिमा आदि का बखान करते हुए, अपनी दीनता बखानते हुए ईष्टदेव को प्रसन्न करते हैं और अपने लिए मुक्ति माँग लेते हैं। कहीं पर अपने ईष्टदेव की ब्याज-प्रशंसा और उनसे नेह नहीं रखने वालों की भत्र्सना करते हैं। मीरा तो दो कदम और आगे बढ़कर वहाँ दोनों तरह के प्रेम को एकीकृत कर देती हैं। यहाँ तो स्त्री-पुरुष और भक्त-भगवान की कोई सीमा रेखा ही नहीं रह जाती। वे कृष्ण को अपना पति ही मान बैठती है, ‘गिरिधर मेरो साँचो प्रियतम।’ पूर्ण समर्पण और मुग्ध प्रशंसा–ये दोनों भाव उनके यहाँ व्याप्त हैं।
विद्यापति के भक्ति प्रधान गीतों और शृंगार प्रधान गीतों की विवेचना थोड़ी सावधानी से करने की जरूरत है। क्योंकि, अन्य भक्तिकालीन कवियों की तरह उनके यहाँ न तो एकेश्वरवाद है, न ही अन्य शृंगारिक कवियों की तरह लोलुप भोगवाद। एक डूबे हुए काव्य रसिक के इस समर्पण में ऐसी जीवनानुभूति है कि कहीं भक्ति, शृंगार पर, और ज्यादातर जगहों पर शृंगार, भक्ति पर चढ़ता नजर आता है। उनके यहाँ भक्ति और शृंगार की धाराएँ कई-कई दिशाओं में फूटकर उनके जीवनानुभव को फैलाती हैं और कवि के वैराट्य को दर्शाती हैं।
भक्ति और शृंगार के जो मानदण्ड आज के प्रवक्ताओं की राय में व्याप्त हैं, उस आधार पर महाकवि विद्यापति के काव्य संसार को बाँटें, तो राधा कृष्ण विषयक ज्यादातर गीत शृंगारिक हैं,पर जो भक्ति गीत हैं, उनमें प्रमुख हैं–शिव स्तुति, गंगा स्तुति, काली वन्दना, कृष्ण प्रार्थना आदि। उल्लेख हुआ है कि स्त्री-पुरुष प्रेम विषयक जो भी शृंगारिक पद विद्यापति ने लिखे, वे अपने जीवन के अन्तिम तीस-बत्तीस वर्षों से पूर्व ही। अर्थात् शिव सिंह जैसे प्रिय मित्र की मृत्यु के बाद उन्होंने शृंगारिक रचनाएँ नहीं कीं। शृंगार और भक्ति को परस्पर विरोधी मानने वाली धारणा से मुक्त होने के लिए डॉ. शिव प्रसाद सिंह का मत गौरतलब है, ‘‘विद्यापति के काव्य के विषय में प्रायः ये शंकाएँ की जाती हैं कि यह रहस्यवादी भक्ति काव्य है, या केवल शृंगार प्रधान प्रेम काव्य। भक्ति और शृंगार के विषय में भी हमारे मन में कुछ धारणाएँ बद्धमूल हो गई हैं। बहुत से लोग विद्यापति आदि के नख-शिख वर्णनों को देखकर इतने घबरा जाते हैं कि उन्हें इन कवियों की भक्ति-भावना पर ही अविश्वास होने लगता है। प्रत्येक महाकवि अपनी परम्परा का परिणाम होता है। यह सच है कि जीवन्त कवि पुरानी रूढ़ियों को तोड़कर नई भावधारा की सृष्टि करता है और पुराने प्रथा-प्रथिक वर्णनों की शृंखला का विच्छेद कर नए उपमान-मुहावरे, प्रतीकों का निर्माण करता है। किन्तु कोई अपनी परम्परा से एकदम विच्छिन्न कभी हो ही नहीं सकता। विद्यापति के काव्य को समझने के लिए तत्कालीन काव्य की मर्यादाओं को, नियमावलियों को तथा कविजनोचित उस परम्परा को समझना होगा, जो उन्हें विरासत के रूप में मिली थी (विद्यापति/पृ. 96)।’’
भक्ति और शृंगार–दोनों प्रवृत्तियाँ मध्यकाल के साहित्य में पाई जाती हैं। यह दीगर बात है कि भक्तिकाल का समय निर्धारण साहित्येतिहास में जब से होता है, उसके चार-पाँच वर्ष बाद से विद्यापति ने शृंगारिक गीतों की रचना छोड़ दी। कहा जा सकता है कि उनकी शृंगारिक रचनाओं का प्रायः सर्वांश भक्तिकाल के पूर्व ही रचा गया। लेकिन भक्तिकाल की जो भी रचनाएँ हैं, उनका सम्बन्ध किसी न किसी तरह अपभ्रंश साहित्य की भक्तिपरक रचनाओं से कमोवेश होगा। डॉ. शिव प्रसाद सिंह की राय में अपभ्रंश साहित्य की भक्तिपरक रचनाओं की मुख्य विशेषताएँ राधाकृष्ण सम्बन्धी पदों में भक्ति और शृंगार का समन्वय, शृंगार का अत्यन्त मुखर रूप, संगीत-प्रेम-भक्ति का समन्वय आदि हैं (विद्यापति/पृ. 96)।
हो न हो विद्यापति के पदों में संगीतमयता, प्रेम और भक्ति के इतने उत्कृष्ट रूप का कारण उस विरासत का प्रभाव भी हो। पर आचार्य शुक्ल की राय में भक्तिपरक रचनाओं में शृंगारिक पुट होना कुछ ठीक-सा नहीं हुआ। सूर के पदों के हवाले से आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इस बात की शिकायत की है कि भक्ति रचना में शृंगारमय आत्मोत्सर्ग की अभिव्यंजना का समाज पर कल्याणकारी असर नहीं हुआ। विषय वासना में रत रहने वाले स्थूल दृष्टि के लोगों पर इसका प्रभाव ठीक नहीं पड़ा। आगे के साहित्य में उन्मादकारिणी उक्तियों से भरी शृंगारिक रचनाओं को उन्होंने इसके परिणाम के रूप में देखा है।
विद्यापति के यहाँ भक्ति और शृंगार का यह रूप कुछ भिन्न है। यहाँ लोग चाहें तो आज की परिपाटी के अनुसार शृंगार और भक्ति की रचनाओं को अलग-अलग करके देख सकते हैं। ऐसे सच यह भी है कि विद्यापति के मैथिली में लिखे गए राधा-कृष्ण प्रेम विषयक गीतों को कई कृष्ण भक्त भक्तिगीत के रूप में गाते हैं।
गीत गोविन्दम् में एक श्लोक है जिसमें जयदेव को कहना पड़ता कि यदि आपका मन सरस हो,हरि-स्मरण करना चाहें और विलास के कुतूहल में रमना चाहें तो आप जयदेव की मधुर कोमलकान्त पदावली सुनें। भागवत में तो श्रद्धा और रति को भक्ति की सीढ़ी माना गया है। तन्त्र साधना वाले साहित्य युग में ‘पंचमकार सेवन’ भी गौरतलब है।
विद्यापति के पदों के सन्दर्भ में प्रो. मैनेजर पाण्डेय के कथन के सहारे ही बातें खुलती हैं कि लौकिक प्रेम ही ईश्वरोन्मुख होकर भक्ति में परिणत हो जाता है। लौकिक प्रेम भी जोड़ने का काम करता है और ईश्वरीय प्रेम भी। एकात्म की जो स्थिति भक्ति में दिखाई देती है और विद्यापति जिसे आत्मा परमात्मा के मिलन रूप में कहते हैं–‘तोहे जनमि पुनि तोहे समाओब सागर लहरि समाना’–यह स्थिति लौकिक प्रेम में कैसे फलित होती है, यह देखने के लिए कृष्ण के विरह में नायिका द्वारा गाया गया वह गीत है–‘अनुखन माधव माधव सुमरइत राधा भेल मधाई।’ अर्थात् सुध-बुध खोकर प्रेम दीवानी होने वाली राधा की जो व्याकुलता यहाँ है, भक्ति में यही व्याकुलता और विह्वलता भक्तों की होती है।
संगीत के अलावा भक्ति और शृंगार की यह तात्विकता जहाँ एकमेक होती है, वहाँ विद्यापति के कुछ भक्तिपरक पदों में शृंगार और भक्ति का संघर्ष भी परिलक्षित होता है। जो विद्यापति शृंगारिक गीतों में समर्पण और सौन्दर्य की हद तक लीन हैं; रमण, विलास, विरह, मिलन के इतने पक्षों को इतनी तल्लीनता से चित्रित करते हैं; और ‘यौवन बिनु तन, तन बिनु यौवन, की यौनव पिय दूरे’ कहते हुए पिया के बिना तन और यौवन की सार्थकता ही नहीं समझते, वही विद्यापति अपने भक्तिपरक गीतों में विनीत हो जाते हैं और पूर्व में किए गए रमण और आराम को निरर्थक बता देते हैं:
आध जनम हम निन्दे गमाओल,
जरा शिशु कत दिन गेला,
निधुवन रमणी रसरंगे मातल,
तोहे भजब कोन बेला।
ये वही विद्यापति हैं, इतने मनोग्राही शृंगारिक गीतों की रचना करने के बाद, अन्त समय में‘तातल सैकत वारि बिन्दु सम सुत मित रमणि समाजे’ कह देते हैं। जिन्होंने शृंगारिक गीतों की नायिका के मनोवेग को जीवन दिया है, उसे प्राणवान किया है, वे विद्यापति उस ‘रमणि’ को तप्त बालू पर पानी की बून्द के समान कहकर भगवान के शरणागत होते हैं।
जावत जनम हम तुअ न सेवल पद,
युवति मनि मञे मेलि,
अमृत तेजि किए हलाहल पीउल,
सम्पदे विपदहि भेलि
कहकर महाकवि स्वयं शृंगार और भक्ति के सारे द्वैध को खत्म कर देते हैं, ऐसा मानना शायद पूरी तरह ठीक न हो। पूरा जीवन मैंने आपकी चरण-वन्दना नहीं की, युवतियों के साथ बिताया,अमृत (ईष्ट भक्ति) छोड़कर विषपान किया–यह भावना कवि की शालीनता ही दिखाती है। दो कालखण्डों और दो मनःस्थितियों में एक ही रचनाकार द्वारा रचनाधर्म का यह फर्क कवि का पश्चाताप नहीं, उनकी तल्लीनता प्रदर्शित करता है कि वह जहाँ कहीं भी है, मुकम्मल है। हम शृंगारिक कवि विद्यापति और भक्त कवि विद्यापति को तौलने और समझने का प्रयास तो अवश्य ही करें, उन्हें लड़ाने का प्रयास नहीं कर सकते। दोनों दोनों से या तो पराजित हो जाएँगे या दोनों दोनों पर विजय पाएँगे।
विद्यापति पदावली का भाषिक वैशिष्ट्य
विद्यापति पदावली की भाषा मैथिली है। अपनी भाषा और अपनी रचनाओं के बारे में विद्यापति इतने आश्वस्त थे, उन्हें इतना आत्म-विश्वास था कि अपनी प्रारम्भिक कृति ‘कीर्तिलता’, जिसे कुछ विद्वानों ने बाद के दिनों की रचना मानने का तर्क दिया है, में उन्होंने घोषणा कर दी–‘बालचन्द विज्जावइ भासा। दुहु नहि लग्गइ दुज्जन हासा’ अर्थात् बालचन्द्रमा और विद्यापति की भाषा–दोनों ही दुर्जनों के उपहास से परे हैं। इसी तरह ‘महुअर बुज्झइ, कुसुम रस, कब्व कलाउ छइल्ल’–अर्थात् मधुकर ही कुसुम रस का स्वाद जान सकता है, जैसे काव्य रसिक ही काव्य कला का मर्म समझ सकता है। जनोन्मुख होने के सम्बन्ध में तो उन्होंने साफ-साफ लिखा–
सक्कअ वाणी बुहअण भावइ।
पाउअ रस को मम्म न पावइ।
देसिल वअना सब जन मिट्ठा।
तें तैसन जम्पओ अवहट्टा।
अर्थात् संस्कृत भाषा बुद्धिमानों को ही भाती है। प्राकृत में रस का मर्म नहीं मिलता। देशी भाषा सबको मीठी लगती है, इसीलिए इस प्रकार अवहट्ट में मैं काव्य लिखता हूँ।
जाहिर है कि लोकरुचि और लोकहित के पक्ष में सोचने वाले इतने बड़े चिन्तक, जब पदावली रचने में लगे होंगे तो उन्होंने भाषा के बारे में एक बार फिर से सोचा होगा और उसकी भाषा तत्कालीन समाज की लोकभाषा मैथिली अपनाई होगी और अपने पदों में समकालीन समाज की चित्तवृत्ति का चित्र खींचा होगा।
मैथिली विद्यापति की मातृभाषा थी। उस काल के साहित्य या उससे पूर्व भी ज्योतिरीश्वर ठाकुर रचित ‘वर्णरत्नाकर’ के अनुशीलन से पता चलता है कि मैथिली उस समय की पर्याप्त समुन्नत भाषा है। ‘वर्णरत्नाकर’ जैसा प्रसिद्ध, उत्कृष्ट और प्राचीन गद्य ग्रन्थ अन्य किसी भी भाषा में उपलब्ध नहीं है। इस सत्य को स्वीकारने में पं. शिवनन्दन ठाकुर भी नहीं हिचकते (महाकवि विद्यापति/मैथिली संस्करण/पृ. 64)। इस बात में कुछेक शोध में असहमति दिखाई देती है कि विद्वापति पदावली ‘कीर्तिलता’ और ‘कीर्तिपताका’ के बाद की रचना है; पर यह सर्वमान्य तथ्य है कि मैथिली में उन्होंने विपुल परिमाण में मुक्तक काव्य लिखे हैं, और उन्हें हम विद्वापति पदावली के नाम से जानते हैं।
विद्यापति की भाषा पर विचार करते हुए पं. शिवनन्दन ठाकुर लिखते हैं, ‘‘भाषा के इतिहास–और विशेषतः उस भाषा का इतिहास जिस पर अनेक अत्याचार हुआ हो और अभी भी हो रहा हो, जो विभिन्न विद्वानों द्वारा कभी बंगला तो कभी हिन्दी पर्यन्त बना दिया गया हो तथा जिसके मन्त्रमुग्धकारी पदों का प्रकाशन भाषाविज्ञान एवं मैथिली से अपरिचित अन्य भाषा-भाषी द्वारा होने के कारण अन्यान्य भाषाओं के रंग में इस तरह रंग दिया गया हो कि उसे विद्यापतिकालीन मैथिली के शुद्ध रूप में उपस्थित करना कठिन ही नहीं असम्भव जैसा हो गया हो–वह स्थिति वस्तुतः अत्यन्त रोचक और चित्ताकर्षक होगा (महाकवि विद्यापति/ मैथिली संस्करण/पृ. 189)।’’
महाकवि विद्यापति के गीतों के ज्यादातर संग्रहों में पदावली का पाठ विशुद्ध नहीं है। पदावली पर प्रान्तीय भाषाओं के प्रभाव एवं सम्पादकों का मैथिली से अपरिचित रहने के कारण, पदों की भ्रामक व्याख्या कर दी गई है। नगेन्द्रनाथ गुप्त द्वारा सम्पादित पदावली में तो वैसी भी रचनाओं को विद्यापति रचित मानकर संकलित कर दिया गया है जो ‘रागतरंगिणी’ की प्राचीन प्रति में दूसरे कवियों के नाम से संकलित हैं।–इस तरह के कई तथ्यों पर पं. शिवनन्दन ठाकुर ने विस्तार से विचार किया है। पाठ दोष की इस अराजक स्थिति में विद्यापति के पदों की भाषा पर विचार करना कठिन है। डॉ. शिवप्रसाद सिंह भी स्वीकारते हैं कि, ‘‘पदावली की भाषा के अध्ययन में सबसे बड़ी कठिनाई किसी प्रामाणिक संशोधित संस्करण के अभाव की है। पदावली के अधिकांश संस्करण लिपिकारों की लेखन-विधि (वतजीवहतंचील) के कारण भ्रष्ट हो चुके हैं। अधिकांश पाण्डुलिपियाँ चूँकि नेपाल में मिलती हैं, इस कारण नेवारी लिपि का अनिवार्य प्रभाव दिखाई पड़ता है। बंगाक्षरों में लिखी हुई पाण्डुलिपियाँ न केवल शब्दों का गलत उच्चारण उपस्थित करती हैं, बल्कि उनके स्थलों पर ढाँचे में बंगीय प्रभाव ले आती है (विद्यापति/पृ. 204-205)।’’
ऐसे में पदावली की भाषा पर विचार करना परेशानी वाला काम तो अवश्य है। प्रो. रमानाथ झा की राय में यदि विद्यापति के गीत की किसी पंक्ति की संरचना अथवा सम्बद्धता कलुषित लगे तो समझना चाहिए कि वहाँ या तो कोई भूल है अथवा पाठ सही नहीं है (पुरुष परीक्षा की भूमिका/पृ. 58-59)। स्पष्ट है कि महाकवि के कई गीतों के अर्थग्रहण में जो बाधा आती है,उसके कारणों की एक लम्बी सूची है। फिर भी हमें जो पाठ प्राप्त हैं, उस आधार पर तो कुछ निष्कर्ष निकाला ही जा सकता है।
पदावली की भाषा पर विचार करने के लिए यदि भाषा वैज्ञानिक पद्धति अपनाई जाए तो बात लम्बी खिंच जाएगी। इसके ध्वनि विज्ञान, परसर्ग, विभक्ति, क्रियापद, संज्ञा रूप, सर्वनाम रूप आदि-आदि पर डॉ. शिव प्रसाद सिंह ने विस्तार से विचार किया है। पं. शिवनन्दन ठाकुर ने भी इस पर काफी विवेचन प्रस्तुत किया है। हम यहाँ इन पदों के भाषा रूप की समग्रता और उसके समग्र प्रभाव की चर्चा करेंगे।
जिन पाठ दोषों की चर्चा ऊपर हुई है, उसके बावजूद विद्यापति के गीतों की सम्प्रेषण शक्ति का असर यह है कि ये गीत भावकों को अपने साथ लेकर चल देते हैं। भावक अपने में नहीं रहते,इन गीतों के अर्थात् उन चित्रणों और दृश्यों के गुलाम हो जाते। वे शब्द चित्र इतने जीवन्त होते हैं कि भावक उसकी काल्पनिकता से अनभिज्ञ हो जाते और चित्र उनके सामने प्राणवान हो उठते हैं। बोल-चाल की भाषा के शब्द और जनपद में व्याप्त लोकोक्तियों और मुहावरों को भुनाने की ऐसी अच्छी तरकीब अन्यत्र कम देखने को मिलेगी। कहा जा सकता है कि अपने काव्य उपादानों का हर सम्भव दोहन महाकवि ने किया है। यह दोहन किसी श्रेष्ठ कला-कौशल और उत्तम प्रतिभा वाले रचनाकार से ही सम्भव है। लोक जीवन में व्याप्त मुहावरों का इनके गीतों में न केवल उपयोग हुआ है, बल्कि उसकी पृष्ठभूमि उनके यहाँ बकायदा गीत का विषय भी बना है।‘मोरा रे अँगनवाँ चनन केर गछिया’, ‘पिआ मोरा बालक हम तरुणी गे’ जैसे गीतों का लोककण्ठ में बस जाना इसी का परिणाम है।
पदावली में संस्कृत, अपभ्रंश, ब्रजभाषा, नेपाली, बंग प्रान्तीय, ओड़िया, असमिया आदि के शब्दों और अनेक कारक रूपों के साथ-साथ मगही, भोजपुरी जैसी उपभाषाओं के बड़े सफल और सहज प्रयोग हुए हैं। ‘भू परिक्रमा’ पुस्तक के अवलोकन से विद्यापति के भौगोलिक ज्ञान और परिभ्रमण का अन्दाज लगता है। जाहिर है कि कई स्थानों के भ्रमण के क्रम में उनकी ईमानदार लेखनी ने हर जगह के भ्रमण और हर भाषा के अनुशीलन का प्रभाव भूल जाने का प्रयास नहीं किया होगा। हाल-हाल तक बंगाल के विद्वानों में विद्यापति को बंगला के रचनाकार घोषित करने की अफरा-तफरी मची हुई थी, इसका कारण शायद यही रहा हो।
मूलतः मैथिली में रचित इन गीतों में बाहरी भाषाओं से लिए गए इन शब्दों, पदों या अन्य कारक रूपों के बावजूद कहीं सम्प्रेषण में गतिरोध नहीं होता–यह महाकवि की श्रेष्ठ रचनाधर्मिता और तल्लीन जनसरोकार से ली गई अनुभूति का ही फल है। ‘नअनक नीर चरन तर गेल’, ‘पुरुष भमर सम कुसुमे कुसुमे रम’, ‘प्रथमहि हाथ पयोधर लागु’, ‘निसि निसिअरे भम, भीम भुअंगभ’ जैसे गीतों को देखकर ऐसा तो स्पष्ट होता ही है।
उनकी भाषा की तल्खी यह रही कि समीपवर्ती कई अन्य भाषाओं के रचनाकार उनसे प्रभावित हुए बगैर नहीं रहे। बंगला, ओड़िया और असमिया के तत्कालीन साहित्य में या बहुभाषाविद प्रारम्भिक श्रेष्ठ रचनाकारों के यहाँ इन प्रभावों की तलाश की जा सकती है। पं. शिवनन्दन ठाकुर के अनुसार विद्यापति की कोमलकान्त पदावली पर बंगलाभाषी मुग्ध हो गए। उस भाषा के अनुकरण पर एक नई भाषा बनी जिसे अभी तक बंगलाभाषी लोग ब्रजबुलि कहते हैं। इस भाषा में सैकड़ों वैष्णव पद एवं कविताओं की रचना बंग प्रदेश में हुई। उन काव्यों को देखकर अभी भी कहना पड़ता है कि वह मैथिली है, ब्रजभाषा अथवा बंगला नहीं । इस सम्बन्ध में डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी और डॉ. दिनेश चन्द्रसेन आदि का मत है कि कई बंगाली रचनाकार मैथिली पर मुग्ध होकर उसमें रचना करने लगे। शताधिक बंगाली कवियों ने इस भाषा में काव्य रचना की। अनुकरण का प्रवाह तो ऐसा हुआ कि कवि गुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर पर्यन्त इसमें प्रवाहित हुए, पर इस दिशा में कोई अनुसन्धान नहीं हुआ कि यह भाषा कहाँ की है। भ्रम में इसे ‘ब्रजबुलि’ कहा जाता रहा, शोध करने पर निश्चित रूप से तय होगा कि यह मैथिली है।
उनकी भाषा के प्रभाव के सम्बन्ध में, उनकी भाषा की सम्प्रेषणीयता के सम्बन्ध में व्याकरणिक विधानों की व्याख्या तो भाषाई अनुसन्धान के लिए उपयुक्त होगा, पर इतना तय है कि इन गीतों में क्रियापद, भाषारूप, कारक रूप, परसर्ग, वर्तनी, क्रियारूप आदि की एकरूपता नहीं मिलती है। हालाँकि प्रामाणिक और प्रथम पाठ को देखे बिना यह कहा जाना बहुत उचित नहीं है, पर इस हाल में भी किसी सिद्धहस्त रचनाकार के लिए यह दोष नहीं है। वह भाषा का कैदी नहीं होता,वह भाषा को स्वरूप देता है। और, हमें यह कहना चाहिए कि महाकवि ने मैथिली भाषा को एक स्वरूप दिया, विविधता दी, विस्तार दिया, प्रवाह दिया।
परवर्ती पीढ़ियों पर विद्यापति का प्रभाव
किसी भी शक्तिशाली घटक के सान्निध्य में रहने पर उसका प्रभाव पड़ जाना सामान्य-सी बात है। चुम्बकों के बीच निरन्तर रखे रहने पर लोहे में भी चुम्बकीय गुण आ जाते हैं। महाकवि विद्यापति की काव्य परम्परा, विषय और शिल्प के स्तरों पर इतनी सशक्त थी कि न केवल मैथिली, बल्कि पूर्वोत्तर भारत की समस्त रचना-प्रक्रिया उनसे प्रभावित हो उठीं। रागतरंगिणी में संकलित पदों का विधिवत अनुशीलन करने पर विद्यापति के प्रभाव का प्रमाण मिलता है। राधाकृष्ण विषयक काव्य सृजन की परम्परा विद्यापति से पूर्व भी थी। पर विद्यापति ने राधा कृष्ण विषयक प्रेम को अपने गीतों के माध्यम से जो विस्तार दिया, उसका सहज प्रभाव उनके समकालीन कई रचनाकारों पर पड़ा। भाव, शिल्प, छन्द–सब तरह से समकालीन रचना प्रक्रिया विद्यापति से प्रभावित हुई। मिलन-विरह, नख-शिख वर्णन, मान-अभिसार, भक्ति-शृंगार आदि विषयों पर तरह-तरह के छन्दों में गीत रचे गए। पदों के अन्त में भनिता, मिलन की उत्कण्ठा,विरह में व्यथा और व्याकुलता, मिलन के बावजूद अतृप्ति आदि-आदि उपादान उस समय के कई कवियों के यहाँ पाए गए। रागतरंगिणी में संकलित रचनाओं को देखने पर भी यह तय होता है।
परवर्ती काव्यधारा में मैथिली के सन्दर्भ में यही कहा जा सकता है कि लम्बे अन्तराल तक विद्यापति की परम्परा का ही लगभग निर्वाह हुआ। गोविन्ददास, उमापति, रत्नपाणि, हर्षनाथ,हरिदास, महाराजा महेश ठाकुर, लोचन प्रभृति ने तो महाकवि की परम्परा को ही आगे बढ़ाया। कुछ संकलनकत्र्ताओं ने तो अपनी रचनाओं की भनिता में विद्यापति का नाम जोड़ दिया और इस कारण अनुसन्धित्सु लोगों के लिए भी एक मुसीबत खड़ी हो गई। गोविन्ददास ने तो विद्यापति को खुलेआम अपना प्रेरणा-स्रोत ही मान लिया–
कविपति विद्यापति मतिमाने,
जाक गीत जगचीत चोराओल
गोविन्द गौरि सरस रस जाने।
गरज कि केवल भाव ही नहीं, छन्द ही नहीं, विषय ही नहीं, भाषा रूप और उसके विविध व्याकरणिक पक्षों पर और वर्तनी तक पर विद्यापति का प्रभाव पड़ता रहा। हिन्दी के रीतिकलीन और भक्तिकालीन कवियों की तो एक लम्बी सूची बन सकती है, जिनकी रचनाओं में विद्यापति के प्रभाव दिखते हैं। सूरदास, बिहारी, देव, नन्ददास, केसवदास, बल्कि अष्टछाप के सारे कवि,मतिराम, मीराबाई, तुलसीदास, रसखान, जायसी, पद्माकर आदि की रचनाओं में या तो विद्यापति का सीधा प्रभाव दिखता है या विद्यापति द्वारा प्रारम्भ किए गए भावों, अर्थों, प्रतीकों का विकास।
सूरदास के यहाँ राधा-कृष्ण विषयक पदों में शृंगार और भक्ति का अपूर्व समागम है। सौन्दर्यपरक दोहों में सूर के यहाँ विद्यापति का स्पष्ट प्रभाव ढूँढने में कोई संशय नहीं होता। प्रो. मैनेजर पाण्डेय ने भी यह बात कही है कि ‘‘विद्यापति के गीतों का प्रभाव सूरदास के लीला पदों पर दिखाई पड़ता है (भक्ति आन्दोलन और सूरदास का काव्य/पृ. 264)।’’ पिय मिलन के समय की आतुरता, विह्वलता, बेचैनी, अपनी सहज अभिव्यक्तियों पर अनियन्त्रण और अनायास चेष्टाओं का जो प्रखर रूप सूर की नायिका में है, वह विद्यापति की परम्परा का ही है। हिन्दी के अन्य परवर्ती कवियों पर भी उनके गीतों का प्रभाव खोजा जा सकता है।
सर्वमान्य तथ्य होना चाहिए कि विद्यापति के यहाँ रीति-परक रचनाओं का प्राथमिक संकेत दर्ज हुआ है। उन्हें प्रथम रीति कवि मानने में किसी को कोई दुविधा नहीं होनी चाहिए। हिन्दी कविता में वे कृष्ण-भक्ति धारा और शृंगार-धारा के उद्गाता-कवि हैं। हिन्दी में वैष्णव कविता, भक्ति-कविता, शृंगारिक कविता, मुक्तक कविता, गीति कविता आदि का प्रारम्भ उन्हीं की लेखनी से होता है। विद्यापति के परवर्ती काल की काव्य-धारा पर ध्यान दें तो पता चलता है कि विषय-वस्तु, प्रवृत्ति, और शैली…सभी दृष्टि से हिन्दी के परवर्ती काव्य पर उनका अद्वितीय असर है। हिन्दी की भक्तिकालीन कृष्ण काव्य-धारा के करीब-करीब कवियों पर उनकी रचना शैली और वस्तु-विवेचना का अनुपम प्रभाव दिखता है। अष्टछाप के कवियों पर विद्यापति की स्पष्ट छाया तो दिखती ही है। कृष्ण-भक्ति शाखा के कवियों के अलावा रीतिकाल के रीतिबद्ध और रीतिसिद्ध कवियों पर उनका सर्वाधिक प्रभाव है। इसके बाद के कवियों में तुलनात्मक दृष्टि से देखने पर भारतेन्दु युग और छायावाद तथा उत्तर छायावाद के समय में यह प्रभाव थोड़ा अवश्य दिखता है, पर इस कारण यह भी नहीं मानना चाहिए कि आधुनिक काल में आकर रचनाकारों की नजर में महाकवि विद्यापति का महत्त्व कम हो गया। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने ‘मेरी पसन्द की कविताएँ’ तथा सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ ने ‘चण्डीदास और विद्यापति’ में महाकवि विद्यापति के सम्बन्ध में अपनी अनुरक्ति स्पष्ट की है।
महाकवि विद्यापति की पंक्ति ‘तोहे जनमि पुनि तोहे समाओब, सागर लहरि समाना’ को यदि कबीर की पंक्ति ‘दरियाव की लहर दरियाव है जी, दरियाव और लहर में भिन्न कोयम?’ को मिलाकर देखें तो भाव-साम्य की स्पष्ट छवि सामने आती है।
इसी तरह कृष्ण के अनुपस्थित होते ही विद्यापति की नायिका की सारी स्थिति सूनी हो जाती है। उनका मनोभाव कवि ने इस प्रकार व्यक्त किया है–
सुन भेल मन्दिर, सुन भेल नगरी;
सुन भेल दस दिस, सुन भेल सगरी’
और इधर गिरिधर गोपाल की अनुपस्थिति में मीराबाई की दशा भी कुछ ऐसी ही हो जाती है-
सूनो गाँव, देश सब सूनो, सूनी सेज अटारी…
इन दोनों उद्धरण को एक साथ देखकर प्रवृत्तिगत और शिल्पगत वैशिष्ट्य की समान छवि स्पष्ट हो जाती है।
इसी तरह निराला के पद्यखण्ड–
नवगति, नवलय, ताल छन्द नव
नवल कण्ठ, नव जलद मन्द्र रव
नव नभ के नव विहग वृन्द को
नव स्वर नव वर दे…
पर विद्यापति की पंक्ति–
नव वृन्दावन नव नव तरुगण
नव नव विकसित फूल
नवल वसन्त नवल मलयानिल
मातल नव अतिकूल…
का स्पष्ट प्रभाव दिखता है।
नागार्जुन और राजकमल चौधरी के लिए तो विद्यापति आदर्श कवि रहे हैं। नागार्जुन ने तो विद्यापति के पदों का अनुवाद भी किया और राजकमल चौधरी ने अपनी कई कविताओं में बड़ी श्रद्धा से उन्हें स्मरण किया है।
हिन्दी के आधुनिक काल में आकर ंदेखें तो निराला, नागार्जुन, राजकमल चौधरी के साथ-साथ अन्य कई रचनाकारों की रचनाओं में भी विद्यापति के स्पष्ट प्रभाव दिखाई देते हैं। और यह केवल मैथिली तथा हिन्दी की बात नहीं है, असल में महाकवि विद्यापति के गीतों की प्रभाव-शक्ति ही इतनी प्रबल रही कि प्रान्तेतर भाषाओं तक पर प्रभाव हुए बगैर नहीं रहा। बंगाल,आसाम, ओड़ीसा तथा नेपाल की साहित्यिक परम्पराओं पर भी विद्यापति के गीतों का प्रभाव पड़ा। बंगाल में तथा आसाम में विद्यापति की मान्यता वैष्णव भक्त के रूप में हुई। विद्यापति के जिन गीतों को मिथिला में शृंगारिक गीत की सत्ता प्राप्त थी, बंगाल में वही कीर्तन के रूप में अभिगृहीत हुए। चैतन्यदेव समेत कई वैष्णव भक्तों ने इसका अनुसरण किया। कई बंगला कवियों ने इस भाषा तथा भाव का अनुकरण करते हुए काव्य सृजन किए जो ‘ब्रजबुलि साहित्य’के नाम से ख्यात हुआ।
वैष्णव धर्म का प्रचार जब पूर्वांचल में पूरी तरह हो गया तो उस क्षेत्र में विद्यापति के गीतों का गायन होने लगा। आसाम का ‘वरगीत’ तथा ‘अंकिया नाट’ विद्यापति के प्रभाव से पल्लवित पुष्पित हुआ। इस साहित्य में रचे गए गीतों के भाव, विषय और शैली, विद्यापति के प्रभाव से परिपूर्ण हैं।
ब्रजबुलि साहित्य के माध्यम से विद्यापति के गीतों का प्रभाव ओड़ीसा के साहित्य पर भी पड़ा। सोलहवीं शताब्दी के कुछ मैथिली कवि ओड़ीसा के शासक नरसिंह देव के दरबार में थे, जिन पर विद्यापति की रचनाधर्मिता का भरपूर असर है। और नेपाल में तो सहज ही, विद्यापति का असर दिखेगा। सिंहभूपति, जगज्ज्योतिर्मल्ल और भूपतीन्द्र जैसे कई रचनाकार सतरहवींे शताब्दी में ऐसे हुए, जो नेपाल में रहकर अपने आश्रयदाता के शासन काल में विद्यापति की परम्परा से प्रभावित होकर रचना करते रहे। आज भी विद्यापति पदावली का जो कुछ संग्रह प्राप्त हो पाया है, उसका एक बड़ा भाग नेपाल से ही प्राप्त हुआ है।
प्रभाव ग्रहण करना हर सहृदय से सम्भव है, ठीक उसी तरह प्रभाव छोड़ना हर शक्तिशाली घटक से सम्भव है। ऐसा सदा से होता आया है। इलिएट जैसे महान रचनाकार भी इस सम्बन्ध में स्वीकार करते हैं कि ‘‘प्रभाव ग्रहण करना किसी कवि की शक्ति और क्षमता की अचूक कसौटी है। अपरिपक्व कवि अनुकरण करते हैं, परिपक्व कवि चुराते हैं। बुरे कवि (असफल-अपरिपक्व) जो कुछ दूसरों से ग्रहण करते हैं उसे विकृत कर डालते हैं, अच्छे कवि (सफल-अपरिपक्व) जो कुछ दूसरों से ग्रहण करते हैं, उसे सर्वथा भिन्न रूप में या अच्छे ढंग से प्रस्तुत करते हैं। एक सफल कवि सामान्यतया प्राचीन लेखकों या भिन्न भाषा या भिन्न रुचि के लेखकों से प्रभाव ग्रहण करता है (द’ सेक्रेड वुड/पृ. 125)।’’ प्रसंगवश यहाँ एजरा पाउण्ड का उल्लेख भी अनुचित न होगा। उन्होंने कहा है कि ‘‘कवि को यथासम्भव महान कलाकारों से प्रभाव ग्रहण करना चाहिए,लेकिन उसे या तो शालीनता के साथ प्रभाव स्वीकार कर लेना चाहिए, या छिपा लेना चाहिए (लिट्रेरी एसेज/पृ. 5)।’’ विद्यापति के गीतों में ऐसी शक्ति है जिसने न केवल उनके तत्काल बाद वाली पीढ़ी के रचनाकारों को प्रभावित किया बल्कि पीढ़ी दर पीढ़ी उसका प्रभाव छाया रहा। परवर्ती काल की कई पीढ़ियों के कई सम्भावनाशील रचनाकार की रचनाधर्मिता उनसे यथायोग्य प्रभावित हुई। प्रभाव कई बार ऐसा भी हो जाता है कि वह साफ-साफ दिखता नहीं। एक श्रेष्ठ प्रतिभा अपनी पूर्ववर्ती श्रेष्ठ प्रतिभा के प्रभाव को इस कदर पचा लेती है कि भावकों के सामने साफ-साफ परिलक्षित नहीं हो पाता।
महाकवि विद्यापति के गीतों के प्रभाव से प्रभावित हुए बगैर जब कोई साधारण जीव भी नहीं रह पाया तो कोई रचनाकार कैसे निष्प्रभावित रह जाता। बंगला के विद्वान सुशील कुमार चक्रवर्ती ने तो साफ कहा कि– No other persons in the world, not even my brother, sister or wife has given me such joy as these lyric peots (Vidyapati and Chandidas) have done. और कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने तो साफ-साफ स्वीकारा कि– The songs and poems of vidyapati were one of my earliest delights that stirred my youthfut imagination. बंगला के एक और चिन्तक कहते हैं–उपमाय तिनि कालिदासौ मत सिद्धिहस्त छिलेन।
विद्यापति के अवसान को अभी बहुत दिन नहीं हुए; छह-सात सौ वर्षों का समय इतिहास के लिए बहुत ज्यादा समय नहीं होता है। पर इतने कम दिनों में ही विद्यापति की छवि हमारे सामने एक मिथक जैसी बन गई है। सौन्दर्य का कवि, भक्त कवि, वैष्णव कवि, शाक्त कवि, शैव कवि…उन्हें सब कहा गया। दूसरी ओर नजर डालें तो मिलेगा कि उनको किम्बदन्ती पुरुष भी माना गया। उनके जन्म के पूर्व से लेकर पश्चात तक की जनश्रुतियों की प्रामाणिकता की खोज की जानी चाहिए। जनश्रुति है कि विद्यापति के पिता गणपति ठाकुर को पुत्र नहीं होता था। कपिलेश्वर स्थान (मधुबनी जिला में अवस्थित एक शिव-मन्दिर) में शिव की आराधना के पश्चात उनका जन्म हुआ। वे महाराजा शिव सिंह से दो वर्ष बड़े थे। नौ-दस वर्ष की अवस्था से ही वे पिता के साथ राजा गणेश्वर के दरबार में जाने लगे थे। कीर्तिलता की रचना उन्होंने 19-20 वर्ष की अवस्था में की (वैसे इस तथ्य का खण्डन करते हुए बड़े अकाट्य तर्क प्रस्तुत करते हैं) । सिंहासनारूढ़ होते ही शिव सिंह ने उन्हें ‘विस्फी’ गाँव दान में दे दिया। जनश्रुति है कि कर नहीं देने के अपराध में एक बार शिव सिंह को दिल्ली के इस्लाम बादशाह ने आमन्त्रित कर दिल्ली बुलाया और वहाँ गिरफ्तार कर लिया। विद्यापति उनको छुड़ाने दिल्ली पहुँचे। बादशाह ने उन्हें अदृष्ट रचना करने को कहा। उन्हें एक सन्दूक में बन्द कर कुएँ में लटका दिया गया और बाहर किसी युवती को आग फूँकने के लिए कहा गया। फिर कवि को बाहर निकाल कर कविता लिखने के लिए कहा गया। ऐसे ही उनके परोक्ष में किसी युवती को स्नान करने के लिए कहा गया और इस घटना पर उन्हें कविता लिखने को कहा गया। कवि ने ऐसे अवसर पर कविता लिखी। ‘सुन्दरि! निहुरि फुकू आगि’ और ‘कामिनी करए असनाने’ गीत ऐसे ही अवसर के हैं। बादशाह गीत सुनकर प्रसन्न हुए और शिव सिंह को लेकर महाकवि वापस आए। कहा जाता है कि एक समय महादेव प्रसन्न होकर गुप्त रूप से उगना के रूप में विद्यापति की सेवा करने लगे थे। उगना से सम्बन्धित कई कथाएँ प्रचलित हैं। कहा जाता है कि स्वप्न दर्शन के आधार पर उन्होंने अपने मृत्यु की घोषणा की और गंगा किनारे देह त्याग को चल पड़े। काफी दूर जाने के बाद एक जगह रुककर बोले कि जब गंगा मैया के दर्शन हेतु बेटा इतनी दूर आ सकता है तो कुछ दूर माँ को भी आना पड़ेगा, और गंगा वहाँ तक आई। इन किम्बदन्तियों का ऐतिहासिक प्रमाण क्या है–यह शोध का विषय है। पर इतना तय है कि उनकी रचनाओं का जो प्रमाण हमारे सामने उपलब्ध है, अभी पूरी तरह उस पर ही शोध नहीं हो पाया है।
विद्वानों की परिपाटी तो रचनाकारों को परिभाषित, और सीमित करने की है, तथा उन पर निर्णयात्मक वाक्य कहने की है। पर विद्यापति के सम्बन्ध में विद्वानों के सामने सतत समस्या आती रही है। उनका फलक इतना विस्तृत है कि वे विद्वानों की पहचान-शक्ति की सीमा में समा नहीं पाते। उनके पास जितनी भी पारिभाषिक शब्दावलियाँ हैं, वे विद्यापति के लिए अपूर्ण हो जाते हैं। वीरगाथा कवि कहा जाए तो प्रेम छूट जाता है, भक्त कवि कहा जाए तो शृंगार छूट जाता है। यह भी कह दिया जाए तो लोक चेतना को उजागर करने वाला उनका रूप अनदेखा रह जाता है। कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि अपनी भाषा की सादगी, प्रयोग में ग्राम्य और भदेसपन रहने के बावजूद महाकवि विद्यापति का जो विराट रूप हमारे सामने है,वह सम्पूर्ण भारतीय भाषाओं में अनोखा और अद्वितीय है। उनके यहाँ काव्य की जिस किसी कसौटी से भी समीक्षा शुरू करें, काव्य के जिस किसी पहलू को उठाएँ, वहाँ लावण्य की सन्तृप्ति जैसी पूर्णता दिखती है, एकदम से उचित, न थोड़ा ज्यादा न थोड़ा कम। उनकी सौन्दर्यप्रियता की चर्चा करते हुए डॉ. शिव प्रसाद सिंह कहते हैं कि ‘‘सौन्दर्य उनका दर्शन है, सौन्दर्य उनकी जीवन-दृष्टि। इस सौन्दर्य को उन्होंने नाना रूपों में देखा था, इसे कुशल मणिकार की तरह उन्होंने चुना,सजाया, सँवारा और आलोकित किया था। सौन्दर्य मन को कितना भाव विह्वल और एकोन्मुख कर देता है, इसे विद्यापति जानते थे (विद्यापति/पृ. 154)।’’
सौन्दर्य से सम्बद्ध विद्यापति की रचनाओं के अनुशीलन से यही बात सामने आती है कि वे सौन्दर्य के भोक्ता नहीं स्रष्टा थे, सौन्दर्य उनकी आँखों, प्रवृत्तियों और मन में था। उन्हें मिलन की हर स्थिति प्रिय थी, विरह की हर स्थिति व्याकुल करने लायक थी और मिलन में बाधा उत्पन्न करने वाले हरेक तत्व अप्रिय और त्याज्य थे। भले ही वह प्रेमी प्रेमिका के मिलन में उपस्थित बाधा लोकलाज अथवा गुरुजनों की धाक हो या भक्त-भगवान के मिलन में उपस्थित बाधा विषय वासना और आलस्य ही क्यों न हो।
संगीत और प्रेम–मानव जीवन को आत्मिक सुख के चरम पर पहुँचाता है। मैथिली में रचे गए उनके सारे गीतों को ध्यान से देखें, चाहे वह शृंगारिक हों या आध्यात्मिक–तो यह बात स्पष्ट हो जाएगी। इन गीतों में व्याप्त ये दोनों तत्व उसी तल्लीनता से भावकों तक पहुँच जाए, इसके लिए उन्होंने ग्राम्य पद, लोकोक्ति, बोल-चाल की भाषा, जनपद के लोकाचार–सबका सहारा लिया और सफल हुए। कुल मिलाकर विद्यापति पदावली सम्पूर्ण रूप से एक जीवन जीने का अवसर देती है। भाषा प्रयोग उनके यहाँ प्राणवान हो उठता है, उक्ति वैचित्रय ऐसा प्रतीत होता, कि उनके यहाँ बोल उठते हैं।
सहायक ग्रन्थों की सूची
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हिन्दी साहित्यकोश, भाग-2/धीरेन्द्र वर्मा/ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी/1986
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हिन्दी साहित्य की भूमिका/आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी/राजकमल प्रकाशन, दिल्ली/1991
हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास/बच्चन सिंह/राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली/2000
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मध्यकालीन भारत में इतिहास लेखन, धर्म और राज्य का स्वरूप/सतीश चन्द्रा/एन.ए.खान‘शाहिद’ (अनु.)/ग्रन्थशिल्पी, दिल्ली/1999
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मैनेजर पाण्डेयःसंकलित निबन्ध/नेशनल बुक ट्रस्ट, दिल्ली/2008
डबरे पर सूरज का बिम्ब (मुक्तिबोध की रचनाएँ)/चन्द्रकान्त देवताले(सं.)/नेशनल बुक ट्रस्ट,दिल्ली/2002
महाकवि विद्यापति/पं. शिवनन्दन ठाकुर/(अनु.) प्रो. विद्यापति ठाकुर/मैथिली अकादेमी,पटना/1979
विद्यापति/डॉ. शिवप्रसाद सिंह/लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद/1994
विद्यापति अनुशीलन, खण्ड-1/डॉ. वीरेन्द्र श्रीवास्तव(सं.)/बिहार हिन्दी ग्रन्थ अकादेमी, पटना/1973
विद्यापति अनुशीलन, खण्ड-1/डॉ. वीरेन्द्र श्रीवास्तव(सं.)/बिहार हिन्दी ग्रन्थ अकादेमी, पटना/1973
सूर के पद और रचना दृष्टि/डॉ. विजय बहादुर सिंह/हिन्दी प्रचारक पब्लिकेशन्स, वाराणसी/1997
विद्यापति पदावली भाग-1-2/बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना
कीर्तिलता (विद्यापति)/महामहोपाध्याय डॉ. उमेश मिश्र (सं.)/अखिल भारतीय मैथिली साहित्य समिति, इलाहाबाद/1960
विद्यापति-सूर-बिहारी का काव्य सौन्दर्य/प्रा.शरद कणबरकर/चिन्तन प्रकश्षन, कानपुर/1989
विश्व कवि विद्यापति/सीताराम झा ‘श्याम’/प्रकाशन विभाग, दिल्ली/2005
भक्तिकालीन कवियों के काव्य सिद्धान्त/डॉ. सुरेश चन्द्र गुप्त/आर्य बुक डिपो, दिल्ली/1986
लोकसंस्कृति के प्रवर्तक सूर/डॉ. रामशरण गौड़/विभूति प्रकाशन, दिल्ली/1982
रीतिकाव्य: एक नया मूल्यांकन/डॉ. जगदीश्वर प्रसाद/नई कहानी, इलाहाबाद/ 1993
मैथिली साहित्य का इतिहास/दुर्गानाथ झा ‘श्रीश’