युवा मैथिली सृजन
घनश्याम झा, राघोपुर दरभंगाक कविता आ कथा
मैथिल सँ विनती
विनती करैय छी मिथिलावासी,
मैथिली जुनि बिसरू मैथिल भाषी।
गाम बिसरलौ, नाम बिसरलौ,
चौकी आ दलान बिसरलौ,
कन्सारक भुजल ओ भुजा,
जुडिशीतलक थाल बिसरलौं।
विनती करैय छी मिथिलावासी ,
मैथिली जुनि बिसरू मैथिल भाषी।
पाग बिसरलौं, पान बिसरलौं,
पोखरि, माछ, मखान बिसरलौं,
सामा चकेबा, साँझ, पराती,
विद्यापतिक ओ गान बिसरलौं।
विनती करैय छी मिथिलावासी ,
मैथिली जुनि बिसरू मैथिल भाषी।
करकर करैत ओ तिलकोर,
मिठका तिलबा गुड़क बोर,
गामक भोज अरू सरोकार,
कतहु कि भेटत सगरो संसार।
विनती करैय छी मिथिलावासी ,
मैथिली जुनि बिसरू मैथिल भाषी।
कतहु कमाबु कतहु खटाबु,
ओतहि मिथिलाक नाम बढाबु,
विद्यापति, माँ जानकीक गाथा,
गाबु आ सभके गाबि सुनाबु।
विनती करैय छी मिथिलावासी ,
मैथिली जुनि बिसरू मैथिल भाषी।
मिठगर बोली अपन मैथिली,
सब कियौ बाजु आउर बजाबु,
घनश्यामक विनती जुनि ठुकराबु,
अपन मिथिला केर लाज बचाबु।
विनती करैय छी मिथिलावासी ,
मैथिली जुनि बिसरू मैथिल भाषी।
मैथिली कथाः बिटियाक स्नेह
सुगना फटल -पुरान वस्त्र पहिरने, धुल सँ लतपथ शरीर मे रोडक किनार रात्रिक आठ बजे बैसल छल, भुख सँ छडपटा रहल छल, माथा सँ पसीना टप टप चुबैत छलैक । घुमैत-घुमैत ओकरा चक्कर आइब गेल रहैक, माथ पर हाथ दय सोचैय लागल जे आइयो भुखले रहऽ पड़त ।
सामने ड्योढी जेकाँ भुकभुक इजोत नजैर पडलैय, सोचलक चलि कऽ देखियै कोनो भोज-भातक इंतजाम छय कि ? दूरहि सँ देखलक लोक सभ ठार भ क हाथ मे थारी ल क खा रहल अछि । सोचलक हमहु जाईत छी । किछु मांगि आबि आ अपन छुद्धा केँ शांत क ली । आगु बढल । पता चललैय इन्जीनियर महेश बाबूक बेटी पिंकी केर आठम जन्म दिवस छियैन । सैंकडो गाड़ीक धरिया धसान अछि । सब अपन-अपन काज मे मस्त अछि । कियो उपहार भेंट कय रहल छथि त कियो भोजन क रहल छथि , किछु गोटे नृत्य करऽ मे व्यस्त छथि । आगु बढल । सबसँ नजैर चोरबैत थारीक समीप पहुंचल, एतबा मे महेश बाबूूक नजैर ओकरा पर पड़ल, जोर सँ बजला, “रे अनुराग! देखहिन त! के आबि गेलउ! बैइला एकरा। जकरा मऽन होइत छौ आइब जाइत छौ । गेटक चौकीदारक नजैर अहि पर नञ छौ कि ?” सुगना डर सँ कपैइत तिरपालक ओहार भऽ गेल । अनुराग के भेलनि जे ओ चलि गेल, ओ इम्हर ओम्हर देखि नृत्य मे मस्त भऽ गेलथि ।
किछु कालक बाद सुगना फेर हिम्मत कएलक । आगु बढिते महेश बाबू जे एकटा साहेब केँ विदा कऽ रहल छलाह, हुनकर नजैर फेर सँ सुगना पर पड़लैन । तामस सँ लहलहाइत महेश बाबू ओकर गट्टा पकड़ि घिसियाबय लगलाह । सुगना कनैत-कँपैत बाजल, “मालिक! छोड़ि दियऽ! भूख लागल अछि । थोडबे दऽ दियऽ । हम जतेक खायब ओहि सँ बेसि तऽ अहाँ फेक देबैक ।” महेश बाबू गरजैत बजलाह, “हम कतबो फेक देबैक तेकर हिसाब तूँ के रखनाहर छेँ रे बेहुदा, कतहु पैर उठाकय चलि अबैत छेँ? धर्मशाला छियैक कि ?” सुगना केँ बाहर निकालैत चौकीदार केँ फटकारैत फेर सँ मेहमाननवाजी मे जूटि गैलैथि ।
पिंकी एकटा थारी मे व्यंजन लैत छलीह – “अंकल और थोड़ा देना” भेन्डर सँ मुस्कुराइत पिंकी कहलक । सब सामाग्री लऽ कऽ पिंकी ओहि गेट सँ बाहर निकलल जाहि पर चौकिदार नञ छल । शायद सुगना आ महेश बाबुक सब क्रियाकलाप पर पिंकी केर नजैर छलैक । पिंकी देखलक जे सुगना एकटा पाथर पर पेट पकरि कानि रहल अछि । नोर सँ ओकर मैल वस्त्र बोदैइर भऽ गेल छल । पिंकी केर ह्रदय काँपि उठल । पिंकी ओकर नोर पोछैत भोजनक थारी बढबैत मुस्कुराइत भोजनक लेल आग्रह केलक । सुगना अहि स्नेह केँ देखि कय अश्रुधारा बहबय लागल । ओकरा सत्तर सालक उमेर मे पहिलबेर सुच्चा मानवताक साक्षात् दर्शन भेलैक ।
दु चारि कौर खेलाक बाद सुगना केँ हिचकी आबि गेलैक, पिंकी झट दय जल लाबैय लेल पाछु घूमल कि दृश्य देखि कय चौंकि गेल । डर सँ ओकर देह पानि-पानि भऽ गेलैक । महेश बाबू पाछु मे ठाढ भेल आंखि लाल-पियर कएने छलाह । मुदा ई कि ? अचानक महेश बाबूक आंखि सँ नोर बहय लागल । पानिक बोतल सुगना दिस बढबैत पिंकी सँ लिपटि कानय लगलाह । हुनकर घमंड चुर-चुर भऽ गेल छल । पिंकी हुनकर नोर पोछैत बाजल, “बाबुजी! सभकेँ भोजन करबैय सँ बेसि जरूरी अछि जे भुखल छथि तिनका भोजन कराबी ।” महेश बाबू बिना किछु बजने माथ नीचां कय हामी भरला आ पिंकी केँ गला सँ लगबैत सुगना सँ माफी मांगैत चलि देला ।