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सर्वभूतहिते रताः – भगवत्प्राप्तिक यथोचित मार्ग

आध्यात्मिक चिन्तन

सर्वभूतहिते रताः: श्रीजयदयाल जी गोयन्दका

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भगवत्प्राप्तिक अनेक मार्ग अछि, ‘सर्वभूतहित’ सब मे होएछ। भगवान्‌ प्राणिमात्रमे स्थित छथि, अतएव कोनो प्राणीक हित करब और ओकरा सुख पहुँचायब भगवान्‌ केर पैघ सेवा थीक। प्राणिजगत्‌ मे जतय जाहि वस्तुक अभाव अछि, ओतय भगवान्‌ ओहि वस्तुक द्वारा अपन पूजा चाहैत छथि और ओहि पूजा मे केवल भगवत्प्राप्तिक अतिरिक्त आन कोनो कामना नहि रहत तऽ ओहि निःस्वार्थ सेवा सँ आत्माक उद्धार या भगवत्प्राप्ति अनायासे भ जाएत छैक।
 
श्रीतुलसीदासजी कहलैन अछि –
 
परहित बस जिन्ह के मन माहीं । तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं ॥
 
‘जेकर हृदय मे दोसरक हित बसैत अछि, ओकरा लेल जगत्‌ मे किछो दुर्लभ नहि अछि।’
 
स्कन्दपुराण मे कहल गेल अछि –
 
परोपकारणं येषां जागर्ति हृदये सताम्‌।
नश्यन्ति विपदस्तेषां सम्पदः स्युः पदे पदे॥
तीर्थस्नानैर्न सा शुद्धिर्बहुदानैर्न तत्‌ फलम्‌।
तपोभिरुग्रैस्तन्नाप्यमुपकृत्या यदाप्यते॥काशी. ६/४-५॥
 
‘जाहि सज्जन केर हृदय मे परोपकारक भावना जाग्रत्‌ रहैत अछि, ओकर समस्त आपदा नष्ट भ जाएछ और ओकरा पद-पदपर सम्पदादि प्राप्त होएत रहैत अछि। नहि त अनेक तीर्थ मे स्नान केला सँ ओहेन पवित्रता भेटैत अछि आर नहिये प्रचुर दान तथा उग्र तपस्ये सँ कथमपि ओहेन फल प्राप्त होएत अछि, जेना कि दोसराक उपकार केला सँ होएत अछि।’
 
अन्य वस्तु केर तऽ बाते कि करब, निष्कामभाव सँ परोपकार करनिहार त परमात्माक प्राप्ति सेहो कय लैत अछि। श्रीमद्भगवद्‌गीताक पाँचम अध्यायक २५म श्लोक मे भगवान्‌ स्वयं कहलनि अछि –
 
लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः।
छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहितेरताः॥
 
‘जेकर सब पाप नष्ट भ गेल अछि, जेकर सब संशय ज्ञानक द्वारा निवृत्त भ गेल अछि, जे सम्पूर्ण प्राणीक हित मे रत अछि और जेकर वश मे कयल गेल मन निश्चलभाव सँ परमात्मा मे स्थित अछि, ओ ब्रह्मवेत्ता पुरुष शान्त ब्रह्म केँ प्राप्त होएत अछि।’
 
एहि सँ ई सिद्ध होएत छैक जे उपर्युक्त लक्षण सँ युक्त पापरहित ऋषिजन समस्त भूतक हित मे रत रहबाक प्रभाव सँ निर्वाणब्रह्म केँ प्राप्त भऽ जाएत छथि। ताहि हेतु मनुष्य लेल उचित अछि जे स्वार्थक सर्वथा परित्याग कय केँ अपन तन, मन, धन सँ दुःखी, अनाथ और आतुर प्राणी सबहक सेवा करय; अर्थात्‌ अपन तन, मन, धन केँ अभावग्रस्त दुःखी प्राणी केर दुःखनाश और हित-साधन मे मात्र लगा दियय। जाहि महानुभावक ई उद्देश्य अछि जे हमर जीवन और सर्वस्व दीन-दुःखी, अनाथ-आतुरक लेल टा होयत, हुनक जीवन धन्य अछि। एहि विषयपर एक सुन्दर कहानी अछि।
 
एकटा उच्चकोटिक विरक्त ज्ञानी महात्मा छलाह। हुनका मे गीताक उपर्युक्त श्लोकक सब लक्षण वर्तमान छल। ओहि समदर्शी महात्माक सत्सङ्ग मे बड़-सँ-बड़ राजा-महाराजा सँ लैत गरीबो-सँ-गरीब मनुष्यतक अवस्से आयल करैत छल। महात्माजी एनिहार सत्सङ्गी केँ एहि श्लोकक आधारपर उपदेश देल करैत छलाह। हुनक प्रधान कथन यैह होएत छल जे निष्कामभाव सँ दुखी आतुर प्राणी सब केँ सुख पहुँचेला सँ परमात्मा भेटैत छथि।
 
एक दिनक बात अछि जे ओहि नगरक राजा वैह महात्माजीक पास एला। राजा महात्माजीक चरण मे अभिवादन कय केँ पूछला – ‘कि एहि युगमे सेहो भगवत्प्राप्ति भ सकैत छैक? और यदि भ सकैत छैक त ओकर सरल उपाय कि अछि?’ महात्माजी उत्तर देलखिन – ‘परमात्मा प्राणिमात्र केर हृदय मे अवस्थित छथि। अतः सम्पूर्ण प्राणिमात्र केर निष्कामभाव सँ तत्परतापूर्वक सेवा केलापर परमात्माक प्राप्ति भ सकैत अछि; प्राणी सब मे जे कियो दुःखी, अनाथ और आतुर हो, ओकर सेवा केला सँ आरो जल्दिये कल्याण भ सकैछ।’ एहि उपदेश केँ सुनिकय राजा अपन स्थानपर लौटि गेलाह और ओही दिन सँ ओ अपन तन, मन, धनद्वारा निष्कामभाव सँ प्राणिमात्र केर आ दुःखी एवं आतुर केर सेवा विशेषरूप सँ करय लगलाह।
 
एक वर्ष बीतलापर राजा एक दिन महात्माजीक पास आबिकय कहलखिन – ‘हमरा अहाँक आज्ञानुसार अनुष्ठान करैत साल भैर भ’ गेल, मुदा एखन धरि परमात्माक प्राप्ति नहि भेल।’ महात्माजी कहलखिन – ‘राजन! धैर्य राखू और निष्कामभावपूर्वक दुखियाक सेवा उत्साहक संग विशेषरूप सँ करैत रहू। करिते-करिते अहाँक अन्तःकरण शुद्ध भऽ कय परमात्माक प्राप्ति भ’ जायत।’ ई सुनिकय राजा घर लौटि गेलाह आ पहिलेक अपेक्षा आरो विशेष उत्साहक संग दुखियाक सेवा करय लगलाह।
 
एहि प्रकारेन करैत फेर एक वर्ष व्यतीत भ गेल, परंतु परमात्माक प्राप्ति नहि भेलनि। तखन राजा फेरो महात्माजीक पास जाकय प्रार्थना केलनि जे ‘महाराज! अहाँक आज्ञानुसार सेवाक अनुष्ठान कार्य चालू अछि, हम अहींक आदेश मुताबिक अपन तन, मन, धन, सब किछु सेवा मे लगा रखने छी। एखन धरि राज्यक अधिकांश धनराशि परोपकार केर कार्य मे व्यय भऽ चुकल अछि, तैयो परमात्माक प्राप्ति होयबाक हमरा कोनो टा लक्षण नहि देखाय पड़ल।’ एहिपर महात्माजी कहलखिन – ‘अहाँ दृढ विश्वास राखू, कनिको टा शङ्का नहि करू; अहाँ केँ निश्चय टा परमात्माक प्राप्ति होयत। अहाँ बहुते नीक ढंग सँ तथा शुद्ध भाव सँ दीन-दुखियाक सेवा कय रहल छी; परंतु वास्तव मे जाहि तरहक दुःखी, अनाथ और आतुरक जाहि तरहक सेवा हेबाक चाही, ओहेन सेवा एखन धरि अहाँ द्वारा नहि बनि पड़ल अछि। परंतु परम उल्लास तथा श्रद्धाक संग सदा सर्वदा करिते-करिते कहियो-न-कहियो ओ सेवा जरुरे टा बनत। तैँ अहाँ वश मे कयल गेल मन, बुद्धि और इन्द्रिय केँ निःस्वार्थ भाव सँ केवल भगवत्प्रीत्यर्थ दुखियाक सेवा मे नीक जेकाँ लगाउ।’
 
महात्माजीक अमृतमय वचन श्रवण कय केँ राजा बड़ा प्रसन्न भेलाह और घर आबिकय महात्माजीक आदेशानुसारे फेरो अत्यन्त उत्साह सँ सबहक हितकेर कार्य मे लागि गेलाह। ओ आब दीन, दुःखी, दरिद्र और अनाथ केर रूप मे नारायणक विशेष सेवा करय लगलाह।
 
ओहि नगर मे एकटा दुःखी अनाथ विधवा स्त्री रहैत छल, जे प्रतिदिन जंगल सँ सूखल जारैन आनिकय शहर मे बेचल करैत छल, आर ओहि सँ अपन तथा अपन एकलौता नानि टाक पाँच वर्षक बेटाक जीवन निर्वाह कयल करैत छल। ओ जे किछु कमाय, ओहि सँ ओहि दुनूक उदरपूर्ति कठिनता सँ होएत छलैक, अतः ओकरा पास एको नया पाइ बचि नहि पबैत छलैक। एक दिन जखन ओ लड़काक संग लेने जारैन आनय जंगल दिश जा रहल छलय, तखनहि ओ बालक रस्ता मे एक धनी लड़का केर हाथ मे लट्टू, फिरकी आदि खिलौना सब संग खेलाएत देखलक। से देखिकय ओहो बालक अपन माय सँ लट्टू, फिरकी आदि आनि देबाक लेल कहलक। बच्चाक बात सुनिकय माय कहलकैक – ‘बेटा! हम गरीब आदमी छी, हमरा पास पैसा कहाँ अछि? हम त लकड़ी बेचिकय जे पाइ अनैत छी, ओहि सँ पेटो बड मोस्किले सँ भरि पबैत अछि, फेर खेलौना कतय सँ कीनू?’ निर्दोष लड़का धनी और गरीबक भेद नहि बुझैत छलैक। ओकरा त खेलौनाका आग्रह छलैक। ओ कानय लागल और ओत्तहि ओंघरा गेल। माता कुनू तरहें उठाकय ओकरा घर लऽ गेली। ओ लड़का केँ बहुत किछु बुझेलथि; मुदा लड़का एको टा बात नहि सुनलक – नहि बुझलक। ताहि कारण ओहि दिन ओ लकड़ी आनय सेहो नहि जा सकलीह; दिन भरि दुनू केँ फाँका करय पड़ि गेलनि। बच्चा त अपन हठ नहिये छोड़लक, ओ कनिते रहि गेल। ओकरे दुःख सँ दुःखी भऽ कय माँ सेहो कनैत रहली। हुनका पास पैसा तऽ छलन्हि नहि जे ओ बच्चाक हठ पूरा करितथि! अर्धरात्रिक समय छल, निःशब्द राति छल। सब सुतले छल, मुदा झोपड़ीक कोण मे गरीब माँ-बेटा कानि रहल छल।
 
लड़काक कनबाक आवाज तीव्र छलैक। महल समीपे मे छल। महल मे सुतल राजाक कान मे कनबाक ध्वनि पहुँचि गेल। करुणापूर्ण रुदनक ध्वनि सँ राजा चौंकि गेलाह आर उठिकय एम्हर-ओम्हर देखय लगलाह। राजा कोतवाल केँ बजाकय कहलनि – ‘देख, कियो दुःखी आतुर व्यक्तिक कनबाक आवाज आबि रहल अछि, तूँ शीघ्र जो आ ओकरा आश्वासन दऽ कय हमरा पास लेने आबे।’ कोतवाल तुरंत ओकरा पास पहुँचि गेल और ओकरा सँ कहलक – ‘चले! महाराज साहब तोरा बजा रहल छथुन।’ बेचारी जारैन बेचयवाली स्त्री कोतवाल केँ देखिते डर सँ काँपय लगलीह आर कहली – ‘सरकार! ई छोट बच्चा अछि; कनैत अछि, एकर अपराध केँ क्षमा करू।’ कोतवाल हुनका बुझबैत सान्त्वना दैत कहलक – ‘तूँ भय नहि करे, हमरा संग चले, राजा दयाभाव कइये कय तोरा बजेलखुन हँ।’ मुदा ओहि बेचारीक घबड़ाहट दूर नहि भेलैक। ओ सोचलक – बच्चाक कानय सँ राजाक नींद टूटि गेलनि अछि, ताहि लेल ओ दण्ड देता; मुदा उपाइये कि करत, जखन ओ बजा रहल छथि त जाइये पड़त। ओ राजाक पास जाय लगलीह। कोतवालक वचन सँ स्त्रीक कानब तऽ बंद भ’ गेल, मुदा भयक कारण ओकर शरीर काँपि रहल छल आर लड़का कनिते ओकर पाछू-पाछू चलल जा रहल छल।
 
कोतवालक संग दुनु राजमहल मे पहुँचल। राजा ई करुणायुक्त दृश्य केँ देखिकय ओहि भयभीत स्त्री केँ आश्वासन दैत कहलनि – ‘बेटी! डरो नै! बताबे, ई बच्चा कियैक कानि रहल छौक? हम एकर कारण जानय चाहैत छी।’ एहिपर ओ स्त्री द्वारा सब बात जहिनाक-तहिना बताओल गेल। ओ कहलक – ‘महाराज! हम जंगल सँ सूखल लकड़ी आनिकय बेचल करैत छी, ओही सँ अपन आर एकर पेट भरैत छी। आय हम जखन लकड़ी आनय लेल जंगल जा रहल छलहुँ, त रस्ता मे एकटा धनी लड़का केँ लट्टू, फिरकी आदि सँ खेलाएत देखिकय ईहो बच्चा मांगय लागल आ ई जिद्द कय देलक जे हम एकरा खेलौना आनिकय दी। यैह कारण सँ ई कानय लागल। तही द्वारे हम आइ लकड़ियो आनय लेल नहि जा सकलहुँ, जाहि कारण ई भूखे सेहो मैर रहल अछि। आधा राति बीत गेल; ई मानिते नहि अछि, लगातार कनिते जा रहल अछि। हम बहुत प्रयत्न केलहुँ जे ई नहि कानय, मुदा छोटा बच्चा छी, बेसमझ अछि, कि कयल जाय?’
 
राजा तुरंते महलकेर अंदर सँ साग, पूड़ी, मिठाई मँगाकय देलनि और कहलनि – ‘हम एखनहि खिलौना मँगा दैत छी।’ विधवा माता लड़का केँ खुएबाक बहुत चेष्टा केलक, मुदा हठी बच्चा माँग पूरा नहि हेबा धरि किछो नहि खेलक। माँ सेहो लड़का केँ बिना खुऔने कोना खइतय। तखन राजा कोतवाल सँ कहलनि – ‘एखन बाजार जो आर एहि बच्चा केँ जे-जे खेलौना चाही, ओ जतय कतहु भेटौक, ओतय सँ ढाकी भरि कीनकय लाबे।’ कर्तव्यपरायण कोतवाल तत्काल खेलौनाक दोकानदारक घर जाकय ओकरा जगेलक आर ओहि समय दोकान खोलिकय एक ढाकी खेलौना देबाक लेल कहलक। राजाक आज्ञा छल, ओ तुरन्त खेलौना दय देलक। कोतवाल ओकर उचित मूल्य चुक्ता कय केँ ढाकी भरि खेलौना राजाक सोझाँ राखि देलक। राजा सेहो ओ सबटा खेलौना बच्चा केँ सौंपि देलाह। बालक दुनू हाथ मे जतेक ल सकैत छल से ल लेलक, लऽ कय हँसय आ नाचय लागल। बालक केर प्रसन्नता देखिकय माताक सेहो प्रसन्नताक सीमा नहि रहलैक।
 
तदनन्तर राजा द्वारा ओहि दुनुकेँ यथेष्ठ भोजन कराकय तृप्त कयल गेलैक तथा बचल खुचल खेलौना आ भोजन सेहो ओहि बच्चा व माँ केँ सौंपि देलाह। माता और पुत्र – दुनु अत्यन्त प्रसन्नचित्त भऽ अपन झोपड़ी मे लौटि गेल। राजाक अनुमति पाबिकय कोतवाल सेहो अपन स्थान केँ लौटि गेल। ताहि समय राजा केँ ओहि विज्ञानानन्दघन परमात्माक स्वरूपक प्राप्ति भ गेलनि तथा हुनका आनन्द और शान्तिक सीमा नहि रहलनि।
 
प्रातःकाल होइत राजा महात्माजीक पास गेलाह आ दण्डवत्‌ प्रणाम कय केँ अपन सब घटना आद्योपान्त हुनका कहि सुनौलनि। तखन महात्माजी कहलखिन – ‘राजन्‌! अहाँ बहुतेक लोकक सेवा केलहुँ और परोपकार निमित्त बहुतेरास धन खर्च केलहुँ, मुदा जेहेन सेवा आइ भेल अछि, ओहेन पहिले नहि भेल छल।’ महात्माजीक वचन सुनिकय राजा अत्यन्त प्रसन्न भेलाह और फेर अपन घरपर चलि एलाह।
 
जाहि समय राजा अपन घटना सुना रहल छलाह, ओहि समय ओतय महात्माजीक सेवामें शहरसँ दुइ कोस दूर रहनिहार एक नितान्त निर्धन देहाती भुज्जावाला सेहो बैसल छल। ओ ओहि घटना केँ बड़ी चाव सँ सुनलक और महात्माजी सँ कहलक – ‘महाराज! कि हमरो-सन गरीब आदमी केँ भगवान्‌ भेट सकैत छथि?’ महात्माजी कहलखिन – ‘कियैक नहि भेट सकैत छथि?’ भगवान्‌ केर ओतय गरीब और धनी केर भेद थोड़बे छैक। ओ भावक भूखल छथि। एक बेर राजा चोल और विष्णुदास नामक एक गरीब ब्राह्मणमे भक्तिविषय केँ लऽ कय भगवद्दर्शन केर वास्ते परस्पर होड़ लागि गेल छलन्हि, जाहि के अन्त मे गरीब विष्णुदासेक विजय भेल और ओहि गरीब ब्राह्मणहि टा केँ भगवान्‌ द्वारा पहिले दर्शन देल गेल।
 
ई सुनिकय भुज्जावाला पूछलक – ‘महाराजजी! ओ राजा चोल के छल, गरीब विष्णुदास के छल और ओहि मे परस्पर कोन प्रकारक होड़ लागल छल तथा ओहि गरीब ब्राह्मण केँ भगवान्‌ द्वारा राजासँ पहिले कोन तरहे दर्शन देल गेल? कृपया ओ सब कथा विस्तार सँ सुनाउ।
 
महात्माजी कहलखिन – पहिले काञ्चीपुरी मे चोल नामक एक चक्रवर्ती राजा भ’ चुकल छथि; हुनके अधीन जतेक देश छल, ओहो चोल नाम सँ विख्यात भेल। राजा चोल जखन एहि भूमण्डलपर शासन करैत छलाह, ओहि समय कियो मनुष्य दरिद्र, दुःखी, पाप मे मन लगेनिहार अथवा रोगी नहि छल। ओ एतेक यज्ञ केने छलाह जे ओकर कोनो गिनती नहि कयल जा सकैत छल।
 
तेकर बाद ओ राजा चोल आर भक्त विष्णुदास दुनूक कथा सुनौलनि। पुनः खोमचावाला केँ सेहो उपदेश देलनि। आर ओकरो सर्वभूतहितेरताः केर आधार पर भगवान् केर दर्शन भेल।

राजा चोल व भक्त विष्णुदास केर कथाः

http://www.orkut.com/Main#CommMsgs?cmm=33078149&tid=2574370682530937630&kw=some+important+subjects+of+skandpuran&na=3&nst=61&nid=33078149-2574370682530937630-5288747158419258142

ई कथा पद्मपुराणकेर उत्तरखण्डमे ११०-१११म अध्यायमे वर्णित अछि। आब हम ओ कथाकेँ आगू – फेरो पुरान कथाकेँ जारी रखैत छी। कथा सुनलाक बाद भुज्जावालाक चित्तमे अत्यन्त प्रसन्नता भेलैक आर ओ महात्माजीसँ पूछलक – ‘हमरा जेहेन अकिञ्चनकेँ शीघ्र-सँ-शीघ्र भगवान्‌ कोना भेट सकैत छथि!’ महात्माजी कहलखिन – तूँ सब प्राणी मे परमात्माक व्यापक देखिकय अपन कर्मक द्वारा हुनकर सेवा कयल करे, जेना कि गीता मे भगवान्‌ श्रीकृष्ण कहने छथिन  – यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्‌। स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः॥१८-४६॥ ‘जाहि परमेश्वरसँ सम्पूर्ण प्राणी केर उत्पत्ति भेल अछि आर जाहि सँ ई समस्त जगत्‌ व्याप्त अछि, ओहि परमेश्वरक अपन स्वाभाविक कर्म द्वारा पूजा कय केँ मनुष्य परमसिद्धि (परमात्मा) केँ प्राप्त भऽ जाएत अछि।’

महात्माजीक आदेश पाबि भुज्जावाला अपन स्थानपर लौटि गेल आर हुनकहि आज्ञानुसार साधन करय लागल। ओ भुज्जा बेचिकय नित्य दुइ रुपया कमाएत छल, जाहि मे सँ डेढ रुपया मे तऽ अपन कुटुम्बक भरण-पोषण कय लियय, शेष आठ आना बचैक, वैह ओ दुःखी, अनाथ, असहाय, आतुर और भूखल प्राणीक सेवामे लगा दैत छलैक। एहि तरहें सेवा करैत तीन वर्ष बीत गेलैक, मुदा भगवत्प्राप्तिक कोनो टा चिह्न नहि देखिकय ओ एक दिन फेर महात्माजीक पास आबिकय कहय लागल – ‘महाराजजी! हम नित्य दुइ टका कमाएत छी, डेढमे अपन भरण-पोषण कयकेँ आठ आना दुखिया केर सेवामे लगाबैत छी, मुदा एखन धरि भगवान्‌ केर प्राप्तिक कोनो पूर्व लक्षण सेहो हमरामे नहि देखायल अछि। अहीं बताउ, हम कि करी जाहि सँ शीघ्र-सँ-शीघ्र भगवान्‌ केर प्राप्ति हो।’ महात्माजी कहलखिन – ‘तूँ जे करैत छ से ठीक करैत छ, आरो बेसी उत्साहसँ तथा उल्लासक संग एवं विश्वासपूर्वक गरीब, दीन, दुःखी, आतुर, दरिद्ररूप नारायणक सेवा विशेषरूपसँ करैत रहह।’ एहिपर भुज्जावाला ‘बहुत बढियाँ’ कहि अपन घर लौटि गेल आर महात्माजीक आज्ञानुसार फेरो विशेष उत्साहपूर्वक दुखियाक सेवा करय लागल।

ओहि शहरमे झोपड़ी बान्हि एकटा लकड़ी बेचनिहार रहैत छल; ओ जंगलसँ सूखल लकड़ी आनिकय वैह बेचिकय बड़ा कठिनतासँ अपन उदरपूर्ति करैत छल। एक दिनक बात छैक जे जंगलमे ओकरा नजदीक मे लकड़ी नहि पैर लगलैक, तऽ ओ आरो किछु दूरी धरि गेल, एना मे वापसी करैय मे ओकरा विलम्ब भऽ गेलैक। जखन ओ लकड़ी लऽ कय वापस आयल तखन दिनक बारह बाजि गेलय और ग्रीष्मकालक कड़ा रौदक कारण ओ पसीनासँ तर भ गेल। ओ एखन शहरसँ एक मील दूरेपर रहय, तखनहि ओकरा घूरमा लागि गेलय आर ओ चकरी खाएत जमीनपर खसि पड़ल। लकड़ीक गट्ठर ओकर माथपर सँ एक किनारा दिस खसि पड़लैक और ओ बेहोश भऽ गेल। ओहि समय ओ भुज्जावाला अपन गाँवसँ भुज्जा लऽ कय शहरक दिस चलि आबि रहल छल; रास्तामे लकड़हाराकेँ मूर्च्छित पड़ल देखिकय ओकर हृदयमे दया आबि गेलैक। ओहि भुज्जावालाक पास चनाक घूघनी और जल पर्याप्त छलहिये, ओ तुरंत एक चुरुक जल लऽ कय ओकरा मुंहपर छिटलकैक, किछु जल ओकरा मुंहमे सेहो पिया देलक, फेर कपड़ाक पल्लासँ ओकरा हवा देबाक लेल होंकय लागल, जाहि सँ लकड़हाराकेँ किछु होश भेल और ओ आँखि खोललक।

जखन ओ होशमे आबिकय बैसल, तखन भुज्जावाला ओकरा गाछक छाहरि मे लऽ गेल आर ओकरा नितान्त गरीब, दुःखी और भूखल मानिकय खेबाक लेल यथेष्ट घुघनी देलक आर जल पिया देलक। एहि तरहें ओहि लकड़हाराक आत्मा अत्यन्त तृप्त भेलैक आर ओ अपन सब दुःख-कहानी भुज्जावालाकेँ कहि सुनेलक। तदनन्तर ओ ओहि भुज्जावालाकेर आभारी होएत विनययुक्त वचन सँ ओकर स्तुति करय लागल। एहिपर भुज्जावाला ओकरा कहलक – ‘भैया! स्तुति करय योग्य तऽ भगवान्‌ छथि। ई जे किछु कार्य थिक, भगवानहि केर थिक; हम तऽ केवल निमित्तमात्र छी। स्तुति तऽ तोरा भगवान्‌ केर मात्र करबाक चाही। आरो हमरा लायक जे सेवा-चाकरी हो से बताबे, हम तोहर सेवामे उपस्थित छी।’ लकड़हारा कहालकैक – ‘आब हम सबल भ’ गेल छी, हमरा कोनो तकलीफ नहि अछि, ई लकड़ीक बोझ हमर माथपर उठा दिअ, जाहि सँ हम शहर दिश चलि जाय।’

भुज्जावाला ओकर गट्ठर माथपर उठा देलकैक आर ओ शहरक दिस चलि पड़ल। एकरा बाद जखनहि भुज्जावाला अपन भुज्जा और जलपात्र लऽ कय शहरक दिश चलबाक लेल उद्यत भेल कि भगवान्‌ प्रकट भऽ गेलाह। भगवान्‌ केर दर्शन कयकेँ ओकरा देह भुटैक गेलैक, आर नोर बहय लगलैक, ओहि समय ओकर आनन्द और शान्तिक परावार नहि रहि गेलैक। तखन भगवान्‌ ओकरा सँ कहलखिन – ‘गरीब-दुःखीक रूपमे कयल गेल तोहर सेवा सँ हम संतुष्ट छी, आब जे इच्छा हो से वरदान माँगे।’ भुज्जावाला बाजल – ‘प्रभो! आइ अहाँ अपना दर्शन दऽ कय हमरा कृतार्थ कय देलहुँ, आब एहिसँ बढिकय आर अछिये की जे हम माँगू।’ भगवान्‌ केर बारंबार आग्रह कयलोपर ओ फेर कहलक – ‘अहाँ मे हमर अनन्य विशुद्ध प्रेम सदिखन बनल रहय।’ एहिपर भगवान्‌ ‘तथास्तु’ कहिकय अन्तर्धान भऽ गेलाह।

भुज्जावाला भगवान्‌ केर प्रेमानन्दमे निमग्न भऽ कय महात्माजीक पास आयल और हुनकर चरण मे साष्टांङ्ग प्रणिपात कयला उपरान्त अपन सब घटना हुनका सँ आद्यन्त कहि सुनेलक। महात्माजी कहलखिन – ‘एहि दरिद्र, दुःखी, गरीब लकड़हारा केँ जे घुघनी खुआकय जल पियेलें – तोहर यैह सेवाकार्य बहुते श्रेष्ठ भेलौक। पहिले तोहर जतेको सेवाकार्य भेलौक, ओहिमे यैह सबसँ बढिकय भेलौक।’ भुज्जावाला महात्माजीक वाणी सुनिकय आनन्दमग्न भ गेल आर हुनका नमस्कार कयकेँ अपन घर लौटि गेल।

एहि कथा सँ हमरा सब केँ ई शिक्षा भेटैत अछि – शिक्षा लेबाक चाही जे दुःखी-अनाथ प्राणीक सेवा करैत-करैत भगवान्‌ केर प्राप्तिमे विलम्ब भऽ जाय त अगुतेबाक नहि छैक, वरन् सबमे भगवद्‌-बुद्धि कयकेँ निष्कामभावसँ परम श्रद्धा, विश्वास, विनय और प्रेमपूर्वक तत्परताक संग सेवा करैते रहबाक छैक। सेवामे श्रद्धा-प्रेमपूर्वक भगवद्भाव और निष्कामभाव भेला सँ ओ उच्चकोटिक साधना भ’ जाएछ। तैँ ई साधन करैतो एहि भावक उत्तरोत्तर वृद्धि होएत रहबाक चाही। उपर्युक्त दुनू भाव (भगवद्‌भाव और निष्कामभाव) साथ रहत तखन त’ बाते की, एहि मे सँ केवल एक भाव सेहो रहत तैयो भगवत्प्राप्ति भ’ सकैत अछि। अतएव हम सब समस्त प्राणी मे ओहि परब्रह्म परमात्माकेँ व्याप्त बुझिकय सबहक सेवा और परोपकार करय मे तत्पर भऽ कय लागि जेबाक चाही।

हरिः हरः!!

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