नवरात्रा आ आध्यात्मिक चिन्तनः त्रिविध कर्म (कर्म सिद्धान्त)

आलेखः त्रिविध कर्म

– अनुवादः प्रवीण नारायण चौधरी (मूल आलेखः जयदयाल गोयन्दका)

कर्म तीन प्रकारक होएछ – प्रारब्ध, संचित आ क्रियमाण!

trividh1कैल गेल शुभ-अशुभ और मिश्रित कर्म मे सँ फल देबाक लेल सम्मुख आयल कर्म केर नाम ‘प्रारब्ध’ थीक, जे सुख-दुःखकेर निमित्त भूतजाति, आयु और भोग देल करैत अछि। ‘संचित’ ओहि कर्म केर नाम अछि, जे अनेकों जन्म मे और एहि जन्म मेे कैल गेल कर्म थीक आर जे भोग देबाक लेल सम्मुख नहि भेल अछि, मुदा कर्माशय मे जमा भेल पड़ल अछि। ‘क्रियमाण’ ओहि कर्म केँ कहल जाएछ; जे वर्तमान मे शुभ-अशुभ और मिश्रित कर्मफल, आसक्ति और कर्तापन केँ अभिमानपूर्वक कैल जाएत अछि। एहि कर्म केँ ‘पुरुषार्थ’ सेहो कहल जाएछ; मुदा जे कर्म फलासक्ति और कर्तापनक अभिमानसँ रहित भऽ कय कैल जाएत अछि, ओ कर्म वास्तव मे कर्मे नहि थीक। गीता-४/२०, १८/१७।

वस्तुतः ई सुख-दुःख केर भोग जीव केँ अज्ञानस्थिति मे होएत छैक। सुख-दुःख कोनो घटना, वस्तु या स्थिति मे नहि छैक, ओ त प्रतिकूल या अनुकूल भावना मे मात्र मे छैक आर प्रतिकूल-अनुकूल भावना अज्ञानजनित होएछ, ताहि लेल ई जतेक कोनो जाति, आयु और भोग अछि, सब अज्ञानी सबहक लेल टा सुख-दुःखजनक अछि। ज्ञानीक लेल विज्ञानानन्दघन ब्रह्मकेर अतिरिक्त किछुओ नहि अछि। एहि प्रकारे भक्तक दृष्टि मे सेहो जगत्‌ मे सब किछु भगवान्‌ और भगवान्‌ केर लीला थीक। लीला तथा लीलामय मे अभेद अछि। अतएव ओकरा सेहो सुख-दुःख नहि होएत छैक। ओ अपन प्रभुजीक स्वरूप सँ अभिन्न विचित्र लीला-विलास केँ देखि-देखिकय मुग्ध होएत रहैत अछि।

एहि तिनू मे ‘संचित’ द्वारा विभिन्न प्रकारक शुभाशुभ स्फुरणा होएछ, मुदा ताहि मुताबिक कर्म करब, नहि करब हमरा लोकनिक अधिकार मे अछि। शुभ स्फुरणा भेलो पर पुरुषार्थक अभाव सँ कर्म नहि भ सकबाक कारण ओ सफल नहि भऽ पबैछ। प्रारब्ध सँ सेहो स्फुरणा होएछ और ताहि अनुसार कर्म होएत छैक। मुदा एतय कर्म करबाक लेल मनुष्य बाध्य नहि अछि। हँ, प्रारब्धानुसार फलभोग अवश्य होएत छैक। शुभ प्रारब्ध होयत त बिना पुरुषार्थक सेहो अनिच्छा या परेच्छा सँ शुभ फल भेट जायत। तहिना अशुभ सेहो भेट जायत। क्रियमाण (पुरुषार्थ) त नव फल पैदा करिते छैक। ई कोनो नियम नहि छैक जे ओ एखन तुरन्ते फल दय दिअय। प्रबल कर्म भेलापर फलदानोन्मुख प्रारब्धक बीच मे मात्र ओ प्रारब्ध बनिकय अपन फल दय सकैत अछि। जेना केकरो प्रारब्ध मे पुत्रक योग नहि छैक; मुदा पुत्रेष्टियज्ञ सविधिसम्पन्न भेलापर नवीन प्रारब्ध बनिकय पुत्रोत्पादन मे कारण बनि सकैत छैक। तहिना आयुक विषय मे बुझबाक चाही। जेना सावित्री द्वारा अपन पातिव्रत्यक प्रभाव सँ यमराज केँ प्रसन्न कय केँ हुनका सँ वरदानक रूप मे अपन पतिक लेल दीर्घायु प्राप्त कय लेने छलीह। ईहो नवीन प्रारब्ध छल, जे प्रबल पुरुषार्थ (क्रियमाण) केर फल छल। लेकिन सुख-दुःख आदि फलक भोग मे प्रधानता पूर्वकृत कर्म सँ बनल प्रारब्ध टा केर होएछ।

संचित सँ स्फुरणा होएत छैक, प्रारब्ध सँ सुख-दुःख केर देमयवला जाति, आयु और भोग केर प्राप्ति होएत छैक तथा पुरुषार्थ सँ नव कर्म बनैत छैक। एतय एकटा दृष्टान्तक माध्यम सँ एहि तिनू प्रकारक कर्मक सम्बन्ध मे ई देखायल गेल अछि जे कोन कर्मक प्रबलतासँ कोन तरहें केहनो कार्य होएत छैक।

एक ठाम तीन मित्र बैसल छल। ओकरा सबकेँ कियो आबिकय कहलकैक जे फल्लाँ स्थानपर एकटा बड पैघ महात्मा आयल छथि, एहिपर ओहि तिनूमे सँ एक गोटे कहलकैक जे, “चले भाइ! हमहुँ सब दर्शन कऽ आबी।”, दोसर कहलकैक, “हम त नहि जायब। तूँ सब भले जो।”, तेसरका जेबा लेल गछलकैक आ दुनू ओहि स्थान पर पहुँचि गेल। ओतय गेलाक बाद पता लगलैक जे महात्मा एखन थोड़ेकाल पहिनहिये शहर चलि गेला अछि, किछु कालक बाद औता। एहिपर तेसर जे गेल छल, ओ त ओतय आसन जमाकय बैसि गेल, कहलकय जे आब त महात्माजी जखन आबैथ, आब दर्शन कइये कय वापस होयब। पहिलुका कहलकैक, “भाइ! एतेक समय के बैसत, हम त वापस चललहुँ।”

अतएव तेसरका ओतय बैसल रहल, पहिलुका वापस भऽ गेल। एम्हर महात्मा शहर मे घूमैत-घामैत ओहि स्थानपर चलि गेलाह जतय दोसरका मित्र बैसल छल। जे महात्माक दर्शनार्थ जाय सँ मना कयकेँ डेरेपर रहि गेल छल, ओकरा ओत्तहि महात्माक दर्शन भऽ गेलैक, कतहु जाइयो नहि पड़लैक। महात्मा ओतय सँ जखन लौटलाह त अपन स्थानपर गेलाह आर ओतय तेसुरका केँ सेहो दर्शन भ गेलैक जे ओतय जैमकय बैसि गेल छल। पहिलुका जे घूरिकय आबि गेल छल, ओ दोसर रस्ता सँ लौटल जाहि कारण ओकरा महात्माक दर्शन भेबे नहि केलैक। एहि तिनू मे पहिलुका केर शुभ संचित प्रबल छलैक, जे महात्माक पास जेबाक इच्छा प्रकट केलक, मुदा पुरुषार्थक कमी सँ ओतय गेलाक बादो ओ बैसि नहि सकल, घूरि आयल। दोसरकाक शुभ प्रारब्ध प्रबल छलैक, जाहि सँ घरे बैसल महात्माक दर्शन भऽ गेलैक आर तेसरकाक शुभ पुरुषार्थ प्रबल छलैक; जाहि कारण ओ दृढतर होएत ओतय बैसि गेल आ दर्शन केलाक बादे वापस भेल।

संसार मे चारि पदार्थ छैक – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। धर्म और मोक्षकेर सिद्धि मे तऽ पुरुषार्थ प्रधान छैक तथा अर्थ और कामकेर सिद्धि मे प्रारब्ध प्रधान छैक। अज्ञानी लोक धर्म और मोक्ष केँ प्रारब्धपर छोड़ि दैत छैक। ओ धर्म और मोक्ष सँ वञ्चित रहि जाएत अछि; कियैक तऽ धर्मक पालन और मुक्तिक साधन नवीन कर्म थीक, पूर्वकृत कर्मक फल नहि थीक। मनुष्य केर उत्तम स्वभाव और उत्तम संचित कर्म प्रेरक भेला सँ सहायक होएत छैक। प्रारब्ध कर्म बीमारी आदि अप्रियक संयोग और प्रियक वियोग केँ निमित्त बनाकय कमजोर आदमीक लेल धर्म और मोक्षक साधन मे बाधक भ गेल करैछ आ कतहु सत्सङ्ग आदिक संयोग सँ सहायक सेहो भ गेल करैछ; मुदा धर्मक पालन और मुक्तिक साधन अपने-आप होयब सम्भव नहि छैक। ताहि लेल मनुष्य केँ धर्मक पालन और मुक्ति केर साधनक लेल महत्कृपाक आश्रय लैत कटिबद्ध बनि तत्परता सँ चेष्टा करबाक चाही।

प्रारब्ध

मूर्ख मनुक्ख अर्थ आ काम केर सिद्धिक लेल झूठ, कपट, चोरी, व्यभिचार आदि नाना प्रकारक पाप करैत अछि; किंतु ताहि सब सँ ओकरा किछुओ नहि प्राप्त होएछ। जे किछु भेटैछ ओ ओकर पूर्व केर प्रारब्ध मात्र सँ भेटैत छैक। ओ बिना पाप केनहियो ओकरा निश्चिते टा भेटैत। मनुष्य प्रयत्नपूर्वक पाप करैत अछि मुदा ओकर फल जे कि दुःख अछि, ओकरा भोगय नहि चाहैछ, लेकिन ओकरा अनेको तरहक प्रतीकार करैतो ओहि पापक फल दुःख केँ भोगहे टा पड़तैक। जाहि तरहें पापक फल दुःख अनेक प्रतिकार केलोपर नहि रुकैछ, ओहि तरहें पुण्यक फल अर्थ और कामरूप सुख सेहो बिन प्रयत्नो केने प्राप्त होइते टा छैक। प्रयत्न त केवल निमित्तमात्र छैक, कियैक तँ अर्थ और काम केर सिधि मे मुख्य हेतु प्रारब्ध टा छैक। जे किछु प्राप्त होयबाक छैक, ओहि सँ बेसी त हेतैक नहि आर जे हेबाक छैक, ओकरा प्रतिकार केलोपर रुकि नहि सकैत छैक। अतएव अर्थ और कामक सिद्धिक लेल पाप करब महान् बेवकूफी थिकैक।

मनुष्य अज्ञानवश अर्थ और काम केँ पुरुषार्थक अधीन मानिकय ओकर सिद्धिक लेल अपन जीवन लगा दैत छैक तथा नाना प्रकारक पाप कय केँ आसुरी योनि तथा नरक मे खसैत अछि; मुदा जँ अर्थ और कामक सिद्धि पुरुषार्थ सँ होइतय त सब आदमी धनी बनि जाएत आर सभक कामना सेहो सफल भ जाएत; कियैक त सब धनी बनय चाहैत अछि आ सभक अपन कामनाक पूर्तिक सेहो इच्छआ रहिते टा छैक। मुदा एहेन देखय मे नहि अबैत अछि। कतहु-कतहु पूर्वक प्रबल प्रारब्ध सँ काम और अर्थक सिद्धि भ जाएत छैक त मूर्ख मनुष्य अपन पुरुषार्थ सँ भेल बुझि बैसैत अछि; मुदा ई बात गलत छैक। तही द्वारे मनुष्य केँ अर्थ और कामकेर परायण भऽ कय अपन मनुष्य-जीवन केँ नष्ट करब उचित नहि छैक। प्रारब्धक भोग तीन प्रकार सँ होएत छैक – अनिच्छा सँ, परेच्छा सँ और स्वेच्छा सँ।

मनुष्य नहि तऽ मरय चाहैत अछि आर नहिये दुःखे भोगय चाहैत अछि। लेकिन पूर्वकृत पापक फलस्वरूप वज्रपात, महामारी, अकाल, अग्नि और बाढि आदिक पीड़ा सँ मनुष्य दुःखित भऽ जाएत अछि आर कियो-कियो मरियो जाएत अछि। तहिना पूर्वकृत पुण्यक प्रभाव सँ केकरो अकस्मात्‌ कतहु गड़ल धनक प्राप्ति सेहो भ जाएत छैक और केकरो पैतृक संपत्तिक मूल्य बढि जाएत छैक, जे सुखक हेतु थीक। ई सब अनिच्छा-प्रारब्धक भोग थीक। पूर्वकृत पापक फलस्वरूप दुःखक हेतुभूत चोर, डाकू, सिंह, व्याघ्र आदि केर द्वारा धन, जन और शरीरक हानि भ जाएत छैक आर एहि तरहें पूर्वकृत पुण्यक प्रभाव सँ ओकरा कियो पोसपुत्र बना लैछ या कियो राजा राज्य सौंप दैत अछि, जे कि सुखक हेतु थीक। ई सब परेच्छा-प्रारब्धक भोग भेल।

उपर्युक्त अनिच्छा और परेच्छा-प्रारब्ध सँ प्राप्त सुख-दुःख भोगकेर विषय मे भोक्ता मनुष्य बिलकुल परतंत्र अछि। स्वेच्छापूर्वक कैल गेल कृषि और व्यापार आदि मे पूर्वकृत पापक फलस्वरूप दुःखक हेतुभूत नुकसान लागि गेनाय आ अपन आर अपन कुटुम्बजनक रोगादिक निवृत्तिक लेल कैल जायवला औषधादि उपचारक विपरीत परिणाम होएछ और एहि तरहें पूर्वकृत पुण्यक प्रभाव सँ सुखक हेतुभूत स्त्री, पुत्र, धन, गृह आदिक प्राप्तिक लेल इच्छापूर्वक कैल गेल प्रयत्नक सफलताक होयब – ई सब स्वेच्छा-प्रारब्ध-भोग थीक।

ऊपरोक्त कहल गेल अनुसार एहि जन्म मे जे प्रारब्धक भोग होएत अछि, ओ अधिकांश मे तऽ पूर्वजन्ममे कैल गेल कर्मक मात्र फल होएछ, मुदा केकरो-केकरो एहि जन्म मे कैल गेल बलवान्‌ क्रियमाण कर्म सेहो तुरन्त प्रारब्ध बनिकय एहि जन्म मे फल देबाक लेल प्रस्तुत भऽ जाएत अछि, जेना कियो सत्पुरुष परस्त्रीगमन आदि पाप कर्म करैत अछि, तऽ ओकर फलस्वरूप ओकरा उपदंश, सूजाक, धातुक्षय आदि बीमारी सब जाएछ तथा एहि तरहें कोनो स्त्री, पुत्र, धनक प्राप्ति और रोगक निवृत्तिक कामना सँ यज्ञ, दान, तपरूप पुण्यकर्म विधि और श्रद्धापूर्वक करैत अछि त ओकरो फलस्वरूप ओकरा उपर्युक्त इष्टक प्राप्ति भऽ जाएत अछि। परंतु जे मनुष्य आत्मोद्धारक लेल भक्ति, ज्ञान, वैराग्य और निष्कामकर्म आदि साधनक तत्परता सँ अनुष्ठान करैत अछि, ओकरा तऽ ओकरे फलस्वरूप एहि जन्म मे शीघ्रे मोक्ष (भगवत्प्राप्ति) प्रत्यक्षे भेट जाएत छैक।

संचित

मनुष्य एहि जन्म मे जे किछु क्रियमाण कर्म करैत अछि, ओहि मे सँ जाहि अंश केर प्रारब्ध बनिकय मनुष्य केँ भोग देबा लेल प्रत्युत भऽ जाएछ, ओ तऽ फल भुगतान कय क्षय भऽ जाएछ, आर ओकर अलावे जे एहि जन्मक बचल रहल क्रियमाण कर्म पूर्वजन्म केर संचित कर्म मे सम्मिलित भ जाएछ। एहि संचित कर्म केर समूह केँ भक्ति, ज्ञान और निष्काम कर्म आदि साधन सँ क्षय कय केँ विनाश कैल जा सकैछ। जाबत धरि ई संचित कर्मसमूहक विनाश नहि भ जाएछ, ताबत धरि ओ भावी जन्म केँ दैते रहैत अछि।

मनुष्य जे कोनो पुण्य, पाप और मिश्रित कर्म करैत अछि, ओकर दुइ प्रकारक संस्कार ओकर हृदय मे जमैत अछि – १. सुख-दुःखादि, जे जाति, आयु, भोगकेँ देबयवाला होएछ और २. सात्त्विक, राजस, तामस-वृत्तिरूप संस्कार जे कि स्वभाव केँ बनाबयवाला होएछ। एहि मे पहिल प्रकारक संस्कार तऽ फल भुगतान कय शान्त भ जाएत अछि; मुदा सात्त्विक, राजस, तामस-वृत्तिरूप संस्कार स्वभावक रूप मे रहैत अछि आर ओ भविष्य मे नवीन पुण्य-पाप आदि कर्म केर प्रेरक होएछ। अतएव मनुष्य केँ अपन स्वभाव केँ सुधार करबाक लेल विवेक-वैराग्यपूर्वक सत्सङ्ग, भक्ति, ज्ञान और निष्काम कर्म द्वारा राजसी, तामसी वृत्ति केर शमन कय केँ केवल सात्त्विक वृत्ति केर प्रवाह बनेबाक चाही। एहि प्रकारें साधन कएला सँ संचित कर्म और राजसी-तामसी वृत्ति – दुनुक क्षय होएत मनुष्य भगवत्प्राप्तिक लेल समर्थ भ जाएछ।

क्रियमाण

राग, द्वेष, कामना, ममता और अहंकारपूर्वक मन, वाणी, शरीर सँ जे पुण्य, पाप और मिश्रित कर्म कैल जाएछ, ओ क्रियमाण कर्म थीक तथा स्वेच्छा-प्रारब्धभोग केर निमित्त सेहो जे कर्म होएछ, ओहो क्रियमाण केर अन्तर्गत अछि; कियैक तँ ओहि मे कर्तव्यबुद्धिक सिवाय जे शास्त्रक अनुकूल और शास्त्रक प्रतिकूल क्रैल गेल रहैछ, ओ पुण्य और पापरूप होयबाक कारण क्रियमाण टा मे शामिल अछि।

जेकरा ईश्वर और प्रारब्धपर विश्वास नहि अछि, ओ अज्ञानी मनुष्य झूठ, कपट, चोरी, व्यभिचार आदि केर द्वारा अर्थ और काम केर सिद्धि प्रारब्ध सँ अतिरिक्त पुरुषार्थ सँ करय चाहैछ, ओकर ओ सिद्धि प्रारब्ध सँ अतिरिक्त तऽ भऽए नहि सकैछ। जे किछु प्राप्त होएछ, प्रारब्धक अनुसार मात्र होएछ, परंतु ओ मुर्ख शास्त्रविरुद्ध क्रिया कय केँ व्यर्थहि पापक भागी बनैछ; मुदा जेकरा ईश्वर और प्रारब्धपर विश्वास अछि, ओ कोनो टा पाप-क्रिया नहि कय केँ शास्त्रानुकूल कर्म करैते सत्य और न्यायपूर्वक मात्र अर्थ और कामक सिद्धि चाहैत अछि, ओ भारी आपत्ति पड़लोपर सत्य, न्याय और धर्म सँ विचलित नहि होएछ। अतः प्रारब्धक अनुसार ओकर कार्य तऽ सिद्ध होएते टा अछि, ओ पुण्यक भागी सेहो बनि जाएत अछि आर निष्कामभाव सँ कएलापर त परम कल्याण केँ प्राप्त भऽ सकैत अछि।

जे कर्म राग, द्वेष, कामना, ममता और अहंकार सँ रहित भऽ कय कैल जाएछ अथवा भगवदर्थ या भगवदर्पण-बुद्धि सँ कैल जाएछ, ओ कर्म वास्तवमें कर्मे नहि थीक, ताहि कारण ओहो क्रियमाण मे शामिल नहि होएछ तथा स्वप्न मे होवयवला मानसिक क्रिया सेहो क्रियमाण मे शामिल नहि अछि; कियैक त ओ बुझैत-जनैत नहि कैल गेल अछि, ओहि मे कर्ता निद्राक वशीभूत होयबाक कारण परतन्त्र अछि, ताहि सँ ओ अनिच्छा और स्वेच्छायुक्त प्रारब्धभोग मे मात्र शामिल अछि।

प्रारब्धकर्म तऽ मनुष्य केँ भोगहे टा पड़ैत अछि, अतः ओ भोग-भुगता कय क्षय भ जाएछ तथा जे बचल रहैछ, ओ परमात्माक प्राप्ति मे रुकावट नहि दैछ। भगवत्प्राप्तिक बादो ओ प्रारब्ध सँ होमयवाला सुख-दुःखादिकेर निमित्त शरीर मे होएत रहत; अतः ओकर रहला सँ हमरा सब केँ कोनो हानि नहि अछि। विवेक और वैराग्यपूर्वक सत्सङ्ग, भक्ति, ज्ञान और निष्काम कर्म आदि साधन द्वारा प्रारब्ध, संचित और क्रियमाण – तीनूक नाश भऽ परमात्माक प्राप्ति भ जाएछ।

परमात्मप्राप्त पुरुष मे संचित कर्म केर तँ अत्यन्त अभाव अछिये और क्रियमाण कर्म ओकर लागू नहि होएछ; कियैक तँ ओकरा द्वारा होमयवाला क्रिया मे राग, द्वेष, कामना, ममता, अहंकार आदि विकारक अत्यन्त अभाव अछि, ताहि लेल ओकर कर्म कर्महि नहि थीक। एकर अलावे ओकरा द्वारा जे प्रारब्ध सँ होमयवाली घटना अछि, ओहि मे राग-द्वेषक अभाव भेलाक कारण कियो सुख-दुःख लरत भोक्ता नहि रहैछ; तैँ ओकर प्रारब्ध कर्म रहितो नहि रहबाक समान अछि, केवल सुख-दुःख करत निमित्तमात्र घटना ओहि मे प्रतीत होएछ; परन्तु जे मनुष्य सुख-दुःख और हर्ष-शोकादि विकार सँ सर्वथा रहित अछि, ओकर प्रारब्धानुसार सुख-दुःखादिक निमित्त होमयवाली घटना सँ वास्तव मे कोनो सम्बन्ध नहि रहि जाएछ। तैँ ओकर प्रारब्धभोगरूप कर्म सेहो एक प्रकार सँ क्षय टा मानल गेल अछि।

श्रुति कहैत अछि –

भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्‌ दृष्टे परावरे॥मु. उ. २/२/८॥

‘ओहि परब्रह्म परमात्माक साक्षात्कार कय लेलापर ओहि पुरुषक हृदयग्रन्थि टूटि जाएत अछि, सब संशय केँ छेदन भऽ जाएत अछि आर ओकर प्रारब्ध, संचित, क्रियमाणरूप समस्त कर्म नष्ट भ जाएत अछि।’

जय हो!!

हरिः हरः!!