गीताक तेसर बेरुक स्वाध्याय
(निरंतरता मेः भगवान् केँ कोना देख सकैत छी, कतय देख सकैत छी आर हुनक वास्तविक दर्शन केर रहस्य कि अछि ताहि पर हुनकहि द्वारा अर्जुन केँ उपदेश करैत कहल गेल अछि जे हुनक अपरा प्रकृति आ परा प्रकृति कोन-कोन अछि, यैह अपरा एवं परा केर संयोग सँ प्राणि-जगत् केर उत्पत्ति, संपूर्ण सृष्टिकेर प्रभव व प्रलय सेहो भगवानहि थिकाह आर जतेक तत्त्व अछि तेकर सार सेहो स्वयं भगवान् छथि।… आगू)
श्लोक १२ मे भगवान् अपना केँ समस्त सात्विक भाव, राजसिक व तामसिक भाव सब मे रहबाक बात कहैत छथि आर संगहि एहि तिनू मे स्वयं रहैत छथि, मुदा ई तिनू हुनका मे नहि रहैत अछि आर फेर,
त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभि: सर्वमिदं जगत्।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्य: परमव्ययम्॥ १३॥
मुदा एहि तिनू गुणरूप भाव सँ मोहित ई सम्पूर्ण जगत् (प्राणिमात्र) एहि गुण सँ अतीत और अविनाशी हमरा नहि जानैत अछि।
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥ १४॥
कियैक तऽ हमर ई गुणमयी दैवी माया दुरत्यय अछि यानि एहि पार पाएब बहुत कठिन अछि। जे केवल हमरहि शरण मे रहैत अछि, ओ एहि माया केँ पार कय जाएत अछि।
न मां दुष्कृतिनो मूढा: प्रपद्यन्ते नराधमा:।
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिता:॥ १५॥
मुदा मायाक द्वारा जेकर ज्ञान हरल गेल हो, ओ आसुर भावक आश्रय लेनिहार और मनुष्यो मे महान् नीच तथा पाप-कर्म करनिहार मूढ़ मनुष्य हमर शरण नहि लैत अछि।
चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुकृतिनोऽर्जुन।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ॥ १६॥
हे भरतवंशी मे श्रेष्ठ अर्जुन! पवित्र कर्म करनिहार अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी अर्थात् प्रेमी—ई चारू प्रकारक मनुष्य हमर भजन करैत अछि अर्थात् हमर शरण लैत अछि।
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रिय:॥ १७॥
एहि चारू भक्त सब मे हमरा मे निरन्तर लागल रहल अनन्य भक्तिवाला ज्ञानी अर्थात् प्रेमी भक्त श्रेष्ठ अछि; कियैक तऽ ज्ञानी भक्त केँ हम अत्यन्त प्रिय छी और ओ हमरा अत्यन्त प्रिय अछि।
उदारा: सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्।
आस्थित: स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्॥ १८॥
पहिले कहल गेल सब-के-सब (चारू) भक्त बड़ उदार (श्रेष्ठ भाववाला) होइछ। परन्तु ज्ञानी (प्रेमी) तऽ हमर स्वरूपे छी—एहेन हमर मत अछि। कारण कि ओ हमरा सँ अभिन्न अछि और ओकरा सँ श्रेष्ठ दोसर कोनो गति नहि अछि, एना ओ हमरहि मे दृढ़ता सँ स्थित अछि।
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:॥ १९॥
बहुत जन्मक अन्तिम जन्म मे अर्थात् मनुष्य जन्म मे सब किछु परमात्मा मात्र छथि—एहि तरहें जे ज्ञानवान् हमर शरण होएत अछि, ओ महात्मा अत्यन्त दुर्लभ अछि।
कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञाना: प्रपद्यन्तेऽन्यदेवता:।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियता: स्वया॥ २०॥
परन्तु एहेन-एहेन कामना आदि सँ जेकर ज्ञान हेरा गेल अछि, तेहेन मनुष्य अपन-अपन प्रकृति अर्थात् स्वभावसँ नियन्त्रित भऽ कय ओहने-ओहने अर्थात् देवतादिक तेहने-तेहने नियम केँ धारण करैते ओहि देवतादिक शरण भऽ जाएछ।
यो यो यां यां तनुं भक्त: श्रद्धयार्चितुमिच्छति।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्॥ २१॥
जे-जे भक्त जाहि-जाहि देवताक श्रद्धापूर्वक पूजन करय चाहैत अछि, ओहि-ओहि देवता मे हम ओकर श्रद्धा केँ दृढ़ कय दैत छी।
स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते।
लभते च तत: कामान्मयैव विहितान्हि तान्॥ २२॥
ओहि (हमरा द्वारा दृढ़ कैल गेल) श्रद्धा सँ युक्त भऽ कय ओ मनुष्य ओहि देवताक (सकामभावपूर्वक) उपासना करैत अछि और ओकर ओ कामना पूरा सेहो होएत छैक; परन्तु ओ कामनापूर्ति हमरहि द्वारा मात्र विहित कैल गेल रहैत छैक।
अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि॥ २३॥
मुदा ओहि तुच्छ बुद्धिवाला मनुष्य केँ ओहि देवतादिक आराधनाक फल अन्त करयवला (नाशवान्) टा भेटैत छैक। देवतादिक पूजन करनिहार देवतादि केँ प्राप्त होएत अछि और हमर भक्त हमरे टा प्राप्त होएत अछि।
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धय:।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्॥ २४॥
बुद्धिहीन मनुष्य हमर परम, अविनाशी और सर्वश्रेष्ठ भाव केँ नहि जानैत अव्यक्त (मन-इन्द्रिय सँ परे) हम सच्चिदानन्दघन परमात्मा केँ मनुष्य जेकाँ शरीर धारण करयवाला मानैत अछि।
नाहं प्रकाश: सर्वस्य योगमायासमावृत:।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्॥ २५॥
ई जे मूढ़ मनुष्यसमुदाय हमरा अज और अविनाशी ठीक तरीका सँ नहि जानैत (मानैत) अछि, ओकरा सबहक सोझाँ योगमाया सँ नीक जेकाँ झाँपल रहल हम प्रकट नहि होएत छी।
वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन।
भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन॥ २६॥
हे अर्जुन! जे प्राणी भूतकाल मे भऽ चुकल अछि तथा जे वर्तमान मे अछि और जे भविष्य मे होयत, ओहि सब प्राणी केँ हम तऽ जानैत छी; परन्तु हमर भक्तक सिवाय कियो आन प्राणी नहि जानैत अछि।
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप॥ २७॥
कारण कि हे भरतवंशमे उत्पन्न शत्रुतापन अर्जुन! इच्छा (राग) और द्वेषसँ उत्पन्न होमयवाला द्वन्द्व-मोह सँ मोहित सम्पूर्ण प्राणी संसार मे (अनादिकालसँ) मूढ़ता केँ अर्थात् जन्म-मरण केँ प्राप्त भ रहल अछि।
येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्।
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रता:॥ २८॥
परन्तु जे पुण्यकर्मा मनुष्यक पाप नष्ट भऽ गेल छैक, ओ द्वन्द्वमोह सँ रहित भेल मनुष्य दृढ़व्रती भऽ सिर्फ हमर भजन करैत अछि।
जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये।
ते ब्रह्म तद्विदु: कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम्॥ २९॥
साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदु:।
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतस:॥ ३०॥
वृद्धावस्था और मृत्यु सँ मुक्ति पेबाक लेल जे मनुष्य हमर आश्रय लैत प्रयत्न करैत अछि, ओ ओहि ब्रह्म केँ, सम्पूर्ण अध्यात्म केँ और सम्पूर्ण कर्म केँ जानि जाएत अछि। जे मनुष्य अधिभूत तथा अधिदैव केर सहित और अधियज्ञ केर सहित हमरा जनैत अछि, ओ हमरा मे लागल रहल चित्तवाला मनुष्य अन्तकाल मे सेहो हमरे टा जनैत अछि अर्थात् प्राप्त होएत अछि।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानविज्ञानयोगो नाम
सप्तमोऽध्याय:॥ ७॥