दुष्ट लोक केँ सेहो वन्दना करैत छथि तुलसीदास

tulsidasविगत किछु समय सँ महाकवि तुलसीदास द्वारा प्रस्तुत महान उदाहरण ‘रामचरितमानस’ समान महाकाव्य आ जन-गण-वन्दित रचनाक पृष्ठभूमि मे राखल गेल मंगलाचरण केँ राखि रहल छी। एहि सँ मैथिल जनमानसक सृजनशीलता मे सेहो एकटा शिष्टाचार भेटय, लक्ष्य यैह अछि।

१०० लेखक केर १०० मैथिली पोथीक प्रकाशनक लक्ष्य अछि। ओहि समस्त लेखकवर्ग केँ तुलसीदास केर एहि प्रस्तुति सँ सीख लेब आवश्यक अछि। तहिना, आब फेर मिथिला राज्य निर्माण सेना जानकीक बापक राज्य यानि मिथिला राज्य केर निर्माण लेल पंक्तिबद्ध भऽ योजना निर्माण मे लागि गेला अछि। हुनको सब केँ महाकवि सँ सीख लेब आवश्यक अछि। एहि सँ पूर्व देवता, ब्राह्मण एवं संत केर स्तुति महाकवि कय चुकल छथि। सबहक स्तुति करैत ओ हुनकर महानताक वर्णन सेहो चौपाई, दोहा, सोरठा आ छंद आदि मे करैत रामचरितमानस समान महान रचना रचलनि। हमरा विश्वास अछि जे ई मंगलाचरण केँ आत्मसात कएनिहार प्रत्येक स्रष्टा केँ एकटा नीक मार्गदर्शन होयत। आइ पढैत छी दुष्ट लोक केर वन्दना महाकवि कोन तरहें करताः

खल वंदना

चौपाई :
बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ। जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ॥
पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें। उजरें हरष बिषाद बसेरें॥1॥
आब हम सच भाव सँ दुष्ट सब केँ प्रणाम करैत छी, जे बिना प्रयोजनो, अपन हित करनिहारक सेहो प्रतिकूल आचरण करैत छथि। दोसराक हित केर हानि हो – यैह बात जेकर दृष्टि मे लाभ हो, जेकरा दोसर केँ उजड़बा मे हर्ष और बसबा मे विषाद होएत अछि॥1॥
हरि हर जस राकेस राहु से। पर अकाज भट सहसबाहु से॥
जे पर दोष लखहिं सहसाखी। पर हित घृत जिन्ह के मन माखी॥2॥
जे हरि और हर केर यश रूपी पूर्णिमाक चन्द्रमाक लेल राहुक समान अछि (अर्थात जतय कतहु भगवान विष्णु या शंकर केर यश केर वर्णन होएत हो, ताहि मे ओ बाधा दैत हो) और दोसराक बुराई करबा मे सहस्रबाहु केर समान वीर हो। जे दोसराक दोष केँ हजार टा आँखि सँ देखैत हो और दोसराक हित रूपी घी केर लेल जेकर मन माछीक समान हो (अर्थात्‌ जहिना माछी घी मे खैसकय ओकरा खराब कय दैत अछि और स्वयं सेहो मैर जाएत अछि, तहिना दुष्ट लोक दोसराक बनल-बनायल काज केँ अपनहु हानि कयकेँ सेहो बिगाड़ि दैत अछि)॥2॥
तेज कृसानु रोष महिषेसा। अघ अवगुन धन धनी धनेसा॥
उदय केत सम हित सबही के। कुंभकरन सम सोवत नीके॥3॥
जे तेज (दोसराक जराबयवला ताप) मे अग्नि और क्रोध मे यमराज केर समान अछि, पाप और अवगुण रूपी धन मे कुबेर केर समान धनी अछि, जेकर बढ़त सबहक हित केर नाश करबाक वास्ते केतु (पुच्छल तारा)क समान अछि और जेकर कुम्भकर्ण समान सुतले रहला मे मात्र भलाई अछि॥3॥
पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं। जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं॥
बंदउँ खल जस सेष सरोषा। सहस बदन बरनइ पर दोषा॥4॥
जेना ओला (बरखा संग पाथर) खेती केँ नाश कयकेँ स्वयं सेहो गैल जाएत अछि, तेनाही ओ दोसराक काज बिगाड़बाक लेल अपन शरीर तक छोड़ि दैत अछि। हम दुष्ट केँ (हजार मुख वाला) शेषजी केर समान बुझैत प्रणाम करैत छी, जे पराया दोष केँ हजार मुख सँ बड़ा रोष केर संग वर्णन करैत छथि॥4॥
पुनि प्रनवउँ पृथुराज समाना। पर अघ सुनइ सहस दस काना॥
बहुरि सक्र सम बिनवउँ तेही। संतत सुरानीक हित जेही॥5॥
पुनः हुनका राजा पृथु (जे भगवानक यश सुनबाक लेल दस हजार कान माँगने छलाह) केर समान जानिकय प्रणाम करैत छी, जे दस हजार कान सँ दोसराक पाप केँ सुनैत छथि। फेर इन्द्र केर समान मानिकयहुनक विनय करैत छी, जिनका सुरा (मदिरा) नीकी और हितकारी बुझाय दैत छन्हि (इन्द्र केर वास्तेसेहो सुरानीक अर्थात्‌ देवतादिक सेना हितकारी होएछ)॥5॥
बचन बज्र जेहि सदा पिआरा। सहस नयन पर दोष निहारा॥6॥
जिनका कठोर वचन रूपी वज्र सदिखन पियरगर लगैत छन्हि और जे हजारो आँखि सँ दोसराक दोष सब केँ देखैत छथि॥6॥
दोहा :
उदासीन अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति।
जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति॥4॥
दुष्ट केर यैह रीति अछि जे ओ उदासीन, शत्रु अथवा मित्र, केकरहु हित सुनिकय जरैत छथि। यैह बुझिकय दुनु हाथ जोड़िकय ई मनुख प्रेमपूर्वक हुनका सँ विनय करैत अछि॥4॥
चौपाई :
मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा। तिन्ह निज ओर न लाउब भोरा॥
बायस पलिअहिं अति अनुरागा। होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा॥1॥
हम अपना तरफ सँ विनती केने छी, परन्तु ओ अपना तरफ सँ कहियो नहि चूक करता। कौआ केँ बड़ प्रेम सँ पालब, परन्तु ओ कि कहियो मासु केर त्यागी भऽ सकैत छथि?॥1॥