अभ्यास आ वैराग्य सँ मन केँ नियंत्रित करैत योगी बनूः गीता

गीताक तेसर बेरुक स्वाध्याय
 
krishna gita arjun(निरंतरता मे, अर्जुनक प्रश्न जे चंचल मन सँ सदैव परमात्मा मे कोना स्थिरभाव बनाओल जाय…. आर भगवानक बुझेनाय जे सच मे ई मोन बड़ चंचल अछि लेकिन समाधान छैक…. कोना…. देखू आगू)
 
श्लोक ३५ मे भगवान् कहि चुकल छथि,
 
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥ ३५॥
 
हे महाबाहो! ई मन बड़ चंचल अछि और एकर निग्रह करब सेहो बड़ कठिन अछि — ई अहाँक कहब बिलकुल ठीक अछि। परन्तु हे कुन्तीनन्दन! अभ्यास और वैराग्य केर द्वारा एकर निग्रह कैल जाएत अछि।
 
अभ्यास आर वैराग्य…. आब हम सब संपूर्ण फोकस एहि दुइटा पर दी। जीवन मे गतिशीलता अपना तरहें अछि। लेकिन अभ्यास आर वैराग्य ई दुइ गोट अत्यन्त मूल्यवान् कर्मक उपदेश भगवान् केलनि अछि। एकरा खूब फरिछाबैत आगू कि कहलैन अछि, से देखू…..
 
असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मति:।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायत:॥ ३६॥
 
जेकर मन पूरा वश मे नहि अछि, ओकरा द्वारा योग प्राप्त होयब कठिन अछि। परन्तु उपायपूर्वक यत्न करयवाला आर वश मे कैल गेल मनवाला साधक केँ योग प्राप्त भऽ सकैछ, ई हमर मत अछि।
 
अर्जुन उवाच
अयति: श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानस:।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति॥ ३७॥
 
अर्जुन कहलखिन — हे कृष्ण! जेकर साधना मे श्रद्धा छैक, लेकिन जेकर प्रयत्न शिथिल छैक, ओ (अन्तसमय मे) जौँ योग सँ विचलित भऽ जाय तऽ ओ योगसिद्धि केँ प्राप्त नहि कयकेँ कोन गति दिस चलि जाएत अछि?
 
कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मण: पथि॥ ३८॥
 
हे महाबाहो! संसारक आश्रय सँ रहित और परमात्मप्राप्तिक मार्ग मे मोहित अर्थात् विचलित — एहि तरहक दुनु दिशा सँ भ्रष्ट भेल साधक कि छिन्न-भिन्न बादल केर समान नष्ट तऽ नहि भऽ जाएत अछि?
 
एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषत:।
त्वदन्य: संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते॥ ३९॥
 
हे कृष्ण! हमर एहि सन्देह केर सर्वथा समाप्त करबाक लेल अहीं टा योग्य छी; कियैक तऽ एहि संशयक छेदन कएनिहार अहाँक सिवाय दोसर कियो भैये नहि सकैत अछि।
 
भगवानक उपाय जे ‘अभ्यास आ वैराग्य’ सँ मनक नियंत्रण (निग्रह) संभव छैक… तेकर तुरन्त बाद पुनः अर्जुनक मन मे नव संशय आबि जाएत छन्हि – चलू! मानल जे अभ्यासो शुरु कैल, वैराग्य धारण नहि एक बेर मे तऽ धीरे-धीरे करैत जायब…. मुदा तैयो जँ अन्त-अन्त धरि गड़बड़ा जायब तऽ कतय भऽ के रहब? तखन कि होयत हमर? आर फेर शरणागत शिष्य समान अपना केँ भगवान् पर छोड़ि एहि कठोर संशयक समाधान लेल अधिकृत करैत छथि अर्जुन। पुनः भगवान् कि कहैत छथि, से देखल जाउ…..
 
श्रीभगवानुवाच
पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति॥ ४०॥
 
श्रीभगवान् कहलखिन — हे पृथानन्दन! ओकर नहिये तऽ एहि लोक मे आर नहिये परलोक मे कदापि विनाश होएत छैक; कियैक तऽ कल्याणकारी काज करनिहार कियो मनुष्य दुर्गति केँ नहि जाएत अछि।
 
प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वती: समा:।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते॥ ४१॥
 
ओ योगभ्रष्ट पुण्यकर्म करयवालाक लोक (संसार) केँ प्राप्त होएछ और ओतय बहुतो वर्ष धरि रहिकय फेर एतय (एहि पृथ्वीलोकमे) शुद्ध (ममतारहित) श्रीमान केर घर मे जन्म लैत अछि।
 
अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्।
एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम्॥ ४२॥
 
अथवा (वैराग्यवान् योगभ्रष्ट) ज्ञानवान् योगीजन टा केर कुल मे मात्र जन्म लैत अछि। एहि तरहें जे ई जन्म अछि, एहि संसार मे नि:सन्देह बहुते दुर्लभ अछि।
 
तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्।
यतते च ततो भूय: संसिद्धौ कुरुनन्दन॥ ४३॥
 
हे कुरुनन्दन! ताहि ठाम ओकरा पैछला मनुष्यजन्मक साधन-सम्पत्ति (अनायासे) प्राप्त भऽ जाएछ। फेर ओहि सँ (ओ) साधनक सिद्धि केर विषय मे पुन: (विशेषता सँ) यत्न करैत अछि।
 
पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि स:।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते॥ ४४॥
 
ओ (श्रीमान केर घर मे जन्म लेनिहार योगभ्रष्ट मनुष्य) भोगक परवश होएतो ताहि पहिलुका मनुष्यजन्म मे कैल गेल अभ्यास (साधन)-केर कारण टा (परमात्माक तरफ) खिंचल जाएत अछि; कियैक कि योग (समता)-केर जिज्ञासु सेहो वेदहि मे कहल गेल सकाम कर्म केँ अतिक्रमण कय जाएत अछि।
 
प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिष:।
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्॥ ४५॥
 
परन्तु जे योगी प्रयत्नपूर्वक यत्न करैत अछि और जेकर पाप नष्ट भऽ गेलैक अछि तथा जे अनेक जन्म सँ सिद्ध भऽ गेल अछि, ओ योगी फेर परम गति केँ प्राप्त भऽ जाएत अछि।
 
तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिक:।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन॥ ४६॥
 
(सकामभाववाला) तपस्वी सँ सेहो योगी श्रेष्ठ अछि, ज्ञानी सँ सेहो योगी श्रेष्ठ अछि और कर्मी सँ सेहो योगी श्रेष्ठ अछि — एहेन हमर मत अछि। अत: हे अर्जुन! अहाँ योगी बनू।
 
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मत:॥ ४७॥
 
सम्पूर्ण योगी सब मे सेहो जे श्रद्धावान् भक्त हमरहि मे समर्पित मन सँ हमरहि भजन करैत अछि, ओ हमरा मत मे सर्वश्रेष्ठ योगी अछि।
 
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे आत्मसंयमयोगो नाम
षष्ठोऽध्याय:॥ ६॥
 
हरिः हरः!!