गीताक तेसर बेरुक स्वाध्याय
(निरंतरता मे…. अध्याय ६ – योग आ योगी कि थीक, योग केर अन्तिम परिणाम कि अछि आर वास्तविक दृष्टि एवं विचार केँ कोना उपयोग कैल जाय…. तेकर उपरान्त… श्लोक २४ सँ आगू….)
सङ्कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषत:।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्तत:॥ २४॥
संकल्प सँ उत्पन्न होमयवाला सम्पूर्ण कामना केँ सर्वथा त्याग कयकेँ और मन सँ मात्र इन्द्रियसमूह केँ सब तरफसँ हँटाकय।
शनै: शनैरुपरमेद्बुद्ध्या धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मन: कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्॥ २५॥
धैर्ययुक्त बुद्धि द्वारा (संसारसँ) धीरे-धीरे उपराम भऽ जाउ यानि संसार मे रमनाय छोड़ि दियौक और मन (बुद्धि)-केँ परमात्मस्वरूप मे सम्यक् प्रकार सँ स्थापन कयकेँ फेर किछो चिन्तन नहि करू।
यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्॥ २६॥
ई अस्थिर और चंचल मन जतय-जतय विचरण करैत अछि, ओतय-ओतयसँ हँटाकय एकरा एकमात्र परमात्मा टा मे नीक जेकाँ लगाउ।
प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्।
उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्॥ २७॥
जेकर सबटा पाप नष्ट भऽ गेल अछि, जेकर रजोगुण शान्त भऽ गेल अछि आर जेकर मन सर्वथा शान्त (निर्मल) भऽ गेल अछि, एहेन ई ब्रह्मरूप बनल योगी केँ निश्चिते टा उत्तम (सात्त्विक) सुख प्राप्त होएत अछि।
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मष:।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते॥ २८॥
एवम् प्रकारेन अपना-आपकेँ सदिखन परमात्मा मे लगबैत पापरहित योगी सुखपूर्वक ब्रह्मप्राप्तिरूप अत्यन्त सुखक अनुभव कय लैत अछि।
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शन:॥ २९॥
सब जगह अपन स्वरूप केँ देखनिहार और ध्यानयोग सँ युक्त अन्त:करणवाला (सांख्ययोगी) अपनहि स्वरूप केँ सम्पूर्ण प्राणी मे स्थित देखैछ और सम्पूर्ण प्राणी केँ अपनहि स्वरूप मे देखैछ।
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥ ३०॥
जे (भक्त) सब मे हमरे देखैछ और हमरहि मे सबकेँ देखैछ, ओकरा लेल हम अदृश्य नहि होएत छी आर नहिये ओ हमरा लेल अदृश्य होएछ।
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थित:।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते॥ ३१॥
हमरहि मे एकीभाव सँ स्थित भेल जे भक्तियोगी सम्पूर्ण प्राणी मे स्थित हमरहि भजन करैत अछि, वैह सब किछु बर्ताव करितो हमरहि टा मे बर्ताव कय रहल अछि अर्थात् ओ नित्य-निरन्तर हमरहि टा मे स्थित अछि।
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।
सुखं वा यदि वा दु:खं स योगी परमो मत:॥ ३२॥
हे अर्जुन! जे (भक्त) अपन शरीरक उपमा सँ सब जगह हमरा एक्के समान देखैछ और सुख अथवा दु:ख केँ सेहो समान रूप सँ देखैछ, ओ परम योगी मानल गेल अछि।
अर्जुन उवाच
योऽयं योगस्त्वया प्रोक्त: साम्येन मधुसूदन।
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम्॥ ३३॥
अर्जुन पूछैत छथिन — हे मधुसूदन! अहाँ समतापूर्वक जे ई योग कहलहुँ अछि, मनक चंचलताक कारण हम एहि योग केर स्थिर स्थिति नहि देखि पबैत छी।
चञ्चलं हि मन: कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्॥ ३४॥
कारण कि हे कृष्ण! मन (बड़ी) चंचल, प्रमथनशील, दृढ़ (जिद्दी) और बलवान् अछि। ओकरा रोकय केँ हम (आकाशमें स्थित) वायुक समान अत्यन्त कठिन मानैत छी।
श्रीभगवानुवाच
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥ ३५॥
श्रीभगवान् कहलखिन — हे महाबाहो! ई मन बड़ चंचल अछि आर एकर निग्रह करब सेहो बहुत कठिन अछि — ई अहाँक कहब एकदम ठीक अछि। मुदा हे कुन्तीनन्दन! अभ्यास और वैराग्य सँ एकर निग्रह कैल जाएत अछि।
क्रमशः…….
थोड़ेक बात अपनो मनक….
दृष्टिसंपन्नता मे आत्मरूप संसार आ परमात्मा जे ई समस्त संसारक रचयिता छथि तिनका देखब बहुत पैघ समस्या नहि छैक…. मुदा अर्जुनक प्रश्न हमरे-अहाँक मनक स्थिति केँ राखिकय भगवान् सँ यथार्थ वार्ता करैत गूढ रहस्य केँ बुझबाक अवस्था बना रहला अछि। सावधान!!
हरिः हरः!!