गीताक तेसर बेरुक स्वाध्याय

एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे।
कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे॥४-३२॥
एहि तरहें आरो कतेको प्रकारक यज्ञ वेद केर वाणी मे विस्तार सँ कहल गेल अछि। ओहि सब यज्ञ केँ अहाँ कर्मजन्य जानू। एना जानिकय (यज्ञ करबा सँ) अहाँ कर्मबन्धन सँ मुक्त भऽ जायब।
श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप।
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते॥४-३४॥
हे परन्तप अर्जुन! द्रव्यमय यज्ञ सँ ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ होइ्छ। सम्पूर्ण कर्म और पदार्थ ज्ञान (तत्त्वज्ञान)-मे समाप्त (लीन) भऽ जाएत अछि।
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिन:॥४-३४॥
ओहि तत्त्वज्ञान केँ (तत्त्वदर्शी ज्ञानी महापुरुषक समीप जाकय) बुझू। हुनका साष्टांग दण्डवत् प्रणाम कएला सँ, हुनकर सेवा कएला सँ आर सरलतापूर्वक प्रश्न कएला सँ ओ तत्त्वदर्शी (अनुभवी) ज्ञानी (शास्त्रज्ञ) महापुरुष अहाँ केँ ओहि तत्त्वज्ञानक उपदेश देता।
यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव।
येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि॥ ३५॥
जाहि (तत्त्वज्ञान)-केर अनुभव कएलाक बाद अहाँ फेर एहि प्रकारें मोह केँ नहि प्राप्त होयब आर हे अर्जुन! एहि (तत्त्वज्ञान)-सँ अहाँ सम्पूर्ण प्राणी केँ नि:शेष भाव सँ पहिले अपनहि मे आर तेकर बाद हम सच्चिदानन्दघन परमात्मा मे देखब।
अपि चेदसि पापेभ्य: सर्वेभ्य: पापकृत्तम:।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि॥ ३६॥
जौँ अहाँ सब पापियो सँ पैघ पापी छी तैयो अहाँ ज्ञानरूपी नौकाक द्वारा नि:सन्देह सम्पूर्ण पाप-समुद्र सँ नीक जेकाँ तैर जायब।
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन।
ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा॥ ३७॥
हे अर्जुन! जेना प्रज्वलित अग्नि ईंधन (जारैनरूपी काठ व अन्य जरयवला वस्तु) केँ सर्वथा भस्म कय दैत छैक, तेनाही ज्ञानरूपी अग्नि सम्पूर्ण कर्म केँ सर्वथा भस्म कय दैत छैक।
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
तत्स्वयं योगसंसिद्ध: कालेनात्मनि विन्दति॥ ३८॥
एहि मनुष्यलोक मे ज्ञान केर समान पवित्र करयवला नि:सन्देह दोसर कोनो साधन नहि अछि। जेकर योग नीका जेकाँ सिद्ध भऽ गेल अछि, (ओ कर्मयोगी) ओहि तत्त्वज्ञान केँ अवश्ये स्वयं अपना-आपमे पाबि लैत अछि।
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रिय:।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥ ३९॥
जे जितेन्द्रिय तथा साधन-परायण अछि, एहेन श्रद्धावान् मनुष्य ज्ञान केँ प्राप्त होएत अछि और ज्ञान केँ प्राप्त भऽ ओ तत्काल परम शान्ति केँ प्राप्त भऽ जाएत अछि।
अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मन:॥ ४०॥
विवेकहीन और श्रद्धारहित संशयात्मा मनुष्यक पतन भऽ जाएत छैक। एहेन संशयात्मा मनुष्य केर लेल न त ई लोक (हितकारक) छैक, नहिये परलोक (हितकारक) छैक आर नहिये सुख कतहु ओकरा लेल छैक।
एतय भगवान् विवेकहीन – अर्थात् जेकरा मे उचित-अनुचित केर ज्ञानक सर्वथा अभाव रहैत अछि तेकरा अतिरिक्त श्रद्धारहित संशयात्मा – यानि जेकरा गुरुरूपी प्रकाश पर भरोस नहि रहैछ, ओ सदिखन संशय मे घेरायल रहैछ, एहेन मनुष्य लेल कोनो लोक मे कल्याण नहि होयबाक बात कहलैन अछि।
स्वामी स्वरूपानंद जी केर मुताबिक – विवेकहीन अर्थात् अज्ञानी, जे स्वयं केँ आत्मारूप मे नहि जानि सकल अछि; श्रद्धारहित ओ जेकरा अपना अतिरिक्त दोसर केकरो पर विश्वास नहि हो आर संशयात्मा यानि जे सदिखन कोनो न कोनो अविश्वासक चलतबे संदेह मे घेरायल रहैछ… जेकरा एहि संसार मे विद्यमान् विभिन्न अवस्था पर मात्र संदेह टा होएछ, एहेन लोक केँ कहियो संतोष नहि भेटैछ ताहि हेतु ओकरा लेल ई लोक – परलोक – कोनो लोक नहि होयबाक बात भगवान् द्वारा कहल गेल अछि, कहैत छथि।
योगसन्न्यस्तकर्माणं ज्ञानसञ्छिन्नसंशयम्।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय॥ ४१॥
हे धनंजय! योग (समता)-केर द्वारा जेकरा सम्पूर्ण कर्म सँ सम्बन्ध-विच्छेद भऽ गेल अछि आर विवेकज्ञान केर द्वारा जेकरा सम्पूर्ण संशय केर नाश भऽ गेल अछि, एहेन स्वरूप-परायण मनुष्य केँ कर्म नहि बन्हैछ।
तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मन:।
छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत॥ ४२॥
तैँ हे भरतवंशी अर्जुन! हृदय मे स्थित एहि अज्ञान सँ उत्पन्न अपन संशय केँ ज्ञानरूप तलवार सँ छेदन कयकेँ योग (समता)-मे स्थित भऽ जाउ आर (युद्ध केर लेल) ठाढ भऽ जाउ।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानकर्मसन्न्यासयोगो नाम
चतुर्थोऽध्याय:॥ ४॥
अपन अनुभूतिः अध्याय २ मे अपन पहिचान आत्मारूप मे करैत अध्याय ३ मे स्वधर्म वास्ते कर्म करबाक उपदेश देल गेल आर फेर कर्म केँ यज्ञ धरि निहित करैत तत्त्वज्ञान सँ परिपूर्ण होयबाक बात कहि तत्क्षण उपस्थित प्रसंग पर अपन योगदानक स्पष्ट आदेश निर्दिष्ट अछि।
हरिः हरः!!