गीताक तेसर बेरुक स्वाध्याय
(निरंतरता मे, गीताक तेसर अध्याय मे भगवान् कृष्ण द्वारा अर्जुन केँ कर्मयोगक व्याख्या करैत स्वधर्म केँ श्रेयस्कर होयबाक निर्णय सुनेनाय, स्वधर्म मे मरब नीक, स्वधर्म मे कमियो हो सेहो परधर्म सँ नीक, परधर्म भय देमयवाला – कहैत अपन निज कर्म प्रति सजग रहब जरुरी कहलैन अछि। तेकर बाद….)
अर्जुनक प्रश्न,
अथ केन प्रयुक्तेऽयं पापं चरति पुरुषः।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलदिव नियोजितः॥३-३६॥
अर्जुन तखन स्वाभाविके जिज्ञासा रखैत छथि जे एतेक रास जानकारी रहलाक बादो तखन केहेन प्रयुक्त (व्यवहार) हेतु लोक बर्बस (बलात्) पाप करैत अछि, हलांकि ओकरा एहेन गलती करबाक कोनो इच्छा नहियो रहैत छैक, तैयो एहेन कोन रहस्यमयी बल ओकरा एहेन पापाचारण करबाक लेल उद्यत् करैत छैक।
अर्जुन ओहि रहस्य जानबाक लेल प्रेरित भेल छथि, कारण एहि सँ पूर्व ओ युद्धक प्रयोजन सँ बेसी नीक संन्यास ग्रहण करब, भीक्षाटन करब आदि बुझैत युद्ध करबा सँ साफ मना कए चुकल छथि। मुदा भगवान् हुनका हर दृष्टि सँ हुनकर अपन कर्म (स्वधर्मः क्षत्रिय लेल प्रजाकल्याण निमित्त न्याय हेतु अन्याय विरुद्ध युद्धकर्म स्वधर्म थीक) करबाक लेल निर्णय दैत आब रहला अछि।
वर्तमान प्रश्न हमरा लोकनिक लेल सेहो अत्यन्त महत्वपूर्ण अछि। हम सब कतेको रास शास्त्र-पुराण आ जेठ-श्रेष्ठ निरूपित नियम-अनुशासन केँ जनैत छी। मुदा बेर पर ओकरा जानि-बुझिकय बिसरैत छी। आर फेर जे नहि करबाक चाही तेहनो कर्म करैत छी। एतय अपनहि आत्मा आर मन बीच – स्वयं कृष्ण एवं अर्जुन समान बनिकय जँ हम सब बात करब तऽ स्वतः सब परिस्थिति स्पष्ट होयत। हम सब जनितो जे झूठ नहि बाजब, कोनो जीव केँ अकारण हिंसा नहि करब, मन मे गलत सोच नहि आनब, केकरो लेल बेजा नहि सोचब, सदिखन ईश्वर प्रति समर्पित रहब… लेकिन जीवन मे बेर-बेर एहेन कर्मक क्षण अबैत अछि जे एहि सब नियम-निष्ठा केँ ताख पर राखि आखिरकार पापाचार मे हमहुँ सब लिप्त होएत छी। भगवान् पैछला किछु श्लोक मे ओकर कारण सेहो स्पष्ट कएलनि अछि। कतबो ज्ञानी कियो रहय, मुदा जे इन्द्रिय छैक ओकरा ओकर विषयमे स्वभाववश रमण करय सँ कियो कि रोकि सकैत छैक। तखन ओकर समाधान भगवान् कहलैन जे कर्तापन आ ओहि मे आसक्ति – राग-द्वेष सँ अपना केँ मुक्त राखू। कोनो द्वंद्वभाव सँ मुक्त रहू। जे भेलैक, जे होएत छैक, ओ प्रकृति स्वस्फूर्त कय रहलैक अछि। जँ बुझैत छी जे ई पापाचार छैक तऽ इन्द्रिय केँ शमन – ओहि इच्छारूपी अग्नि सँ बाहर रखबाक लेल दम साधिकय राखि सकैत छी। ई बहुत गूढ विषय छैक, एहिक इर्द-गिर्द समूचा गीताक उपदेश अछि। आगू आरो पढब-सिखब! आगू बढी!! अर्जुनक जिज्ञासा हमर-अहाँक जिज्ञासा बुझैत देखी जे भगवान् कि जबाब दैत छथि।
भगवान् कहलैन –
काम एष क्रोध एष रजोगुण समुद्भवः।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्॥३-३७॥
रजोगुण समुद्भवः – रजोगुण सँ उत्पन्न; महाशनः – कोनो वस्तु पेबाक प्रबल इच्छा, कोनो हाल मे चाही तेहेन भाव; कामः – कामना – पेबाक इच्छा (जे अनन्त होइछ); क्रोधः – तामश चढब (अप्राप्ति पर खौंझ आ तामश आदि); इहः – संसार; वैरिणम्ः – शत्रु (वैरी); विद्धिः – जानू ….
भगवान् अर्जुन द्वारा राखल ओहि प्रश्नक उत्तर मे स्पष्ट कहलैन जे – “ओ काम थीक, ओ क्रोध थीक, जेकर जन्म रजोगुण सँ संभव होइछ, महाशन ओ महापाप यानि कोनो वस्तु पेबाक प्रबल इच्छा मोन मे आयब आ फेर ओकरा वास्ते केहनो पापपूर्ण कर्म करबाक लेल प्रेरित होयब, यैह एहि लोक (संसार) मे मूल वैरी (शत्रु) थीक – एना जानू हे अर्जुन!”
ओ बल कोन? – काम आ क्रोध
इच्छा नहियो रहला पर करबाक लेल प्रेरित होयब – रजोगुण सँ उत्पन्न प्रबल कामना आ तेकरा पूरा करबाक लेल पापपूर्ण योजनादि – केहनो कूकर्म करबाक लेल उद्यत् भेनाय
निर्णयः संसार मे यैह दुनू – काम आर क्रोध – मनुष्यक मुख्य शत्रु मानल जाएछ।
आगू देखीः
धूमेना व्रियते वह्निर्यथाऽदर्शो मलेन च।
अथोल्बेनावृत्तो गर्भस्तथा तेनेदमावृततम॥३-३८॥
भगवान् उपरोक्त रहस्यक उद्घाटनक संग एकटा सहजे बुझय योग्य उदाहरण दैत कहैत छथि, “जेना आगिकेँ धूआँ झँपने रहैत अछि, जेना आइना केँ धूरा झँपने रहैत अछि, जेना गर्भस्थ शिशु केँ जेर (गर्भथैली) झँपने रहैत अछि, तहिना ‘ई’ ‘ओकरा’ सँ झँपायल रहैत अछि।”
एतय फेर ‘ई’ आ ‘ओकरा’ सँ भगवान् केर तात्पर्य पूर्व कथित रहस्य सँ जुड़ल अछि। आत्मारूपी शरीर केँ ‘ई’ आर ओकर शत्रु काम तथा क्रोध केँ ‘ओकरा’ कहि भगवान् निरंतरता मे अर्जुनक प्रश्नक समाधान दय रहल छथि।
स्वामी स्वरूपानन्द भगवानक एहि उक्ति केँ एना व्याख्या करैत टीका मे किछु एहि तरहें वर्णन करैत छथिः
पहिल उपमा आगि तथा धुआँः सात्त्विकता केँ अग्नि सँ तूलना करैत साधना मे कमी केँ धुआँ सँ आवृत कहल गेल अछि। कनिकबो चेष्टा केला सँ सात्त्विकता जागि सकैत अछि, जेना धुआँ सँ मुक्ति पेबाक लेल फूँक मारब जरुरी होइछ, आगिक धधक प्रकट भेला पर धुआँ अपने गायब भऽ जाएछ। तहिना कनेक साधना केला सँ सात्त्विकता प्रकट भऽ जाएछ।
दोसर उपमा आइना तथा धूराः राजसिकताक उपमा आइना सँ करैत एहि पर जमल धूरा यानि हमरा लोकनि मे रहल राजसिकता पर विभिन्न गंदगी भरल कर्मक प्रारब्धक मल सँ कैल गेल अछि। एकरा सँ ऊबार पेबाक लेल ओहिना मेहनैत आ समय दुनू खर्च करय पड़त जेना आइना केँ झकझकाकय साफ करबाक लेल पोछा लगबैत सफाइ करय मे लगैत अछि। पुरुषार्थक अर्जन बिना गलत – गंदा प्रारब्ध सँ मुक्ति कदापि संभव नहि अछि।
तेसर उपमा गर्भस्थ शिशु तथा गर्भ-थैली जेरक बातः एकरा तामसिकता सँ तूलना करैत समय पूरा भेलाक बादे प्रकट होयबा सँ भगवान् तूलना कएने छथि। एहि मे ९ महीनाक समय आर एहि समयावधि मे कतेको प्रकारक अवस्था सँ गर्भधारण केनिहाइर माताक संग गर्भ केँ सेहो साक्षात्कार होएत छैक, अपन इच्छा सँ किछुओ संभव नहि होइछ, बल्कि समयक संग सुरक्षात्मक भावना आ सदिखन भला-हो ताहि लेल शुभ-शुभ सोचब…. गर्भस्थ शिशुक जीवन्त आ सुखद अवतरण लेल जाहि तरहक अवस्था सँ निकलय पड़ैछ, किछु तहिना तामसिकताक प्रभाव सँ मुक्ति हेतु सद्प्रयासक आवश्यकता होएछ। एकटा साधारण व्यसन सँ मुक्तिक उदाहरण लेल जा सकैत अछि जे एक बेर लोक मे प्रवेश पेलाक बाद कतेक मोस्किल सँ ओकरा निजात दैत छैक।
आर, सबसँ अन्तिम बात – ‘ई’ ‘ओकरा’ सँ झाँपल रहैत अछि, यानि हम-अहाँ जाहि आत्माक धारण करैत वर्तमान शरीर मे छी तेकर मूल स्वरूप केँ झाँपनिहार थीक ‘काम आर क्रोध’। तखन यैह मुख्य शत्रु थीक, ई निर्णय करय मे कोनो समय लगायब मूर्खता टा होयत।
आगूः
आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च॥३-३९॥
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठान मुच्यते।
एतैर्विमोह्यत्येष ज्ञानमवृत्य देहिनम्॥३-४०॥
ज्ञानियोक ज्ञान एहि नित्यरूपेण शत्रु अर्थात् कामरूपी दुष्पूरेण (नहि मानयवला – न मनाबय जायवला) इच्छा पूरा करबाक अग्नि सँ झाँपल रहैछ। इन्द्रिय, मन आर बुद्धि – यैह तीन एकर घर थीक – यैह तिनूक माध्यम सँ एहि आत्मारूपी शरीर केर बुद्धि केँ ई विमोहन सँ झँपने रहैत अछि।
स्वामी स्वरूपानन्दजीक टीका फेर कहबाक इच्छा भऽ रहल अछि, ओ कहैत छथि, “ई अनन्त इच्छा निस्सन्देह मानवक मुख्य शत्रु थीक। ई ज्ञानीजन केर ऊपर सेहो सदिखन हावी होयबाक लेल उद्यत् रहैत अछि। मूर्खजन तऽ एहि सँ ओतबेकाल दूर रहि सकैत अछि जाबतकाल धरि एकर दुष्प्रभाव सँ ओ पीड़ाक अनुभव कय रहल हो, पीड़ा खत्म भेलाक किछु कालक बाद ओ पुनः एहि कामाग्नि मे अपना केँ झोंकने रहैत अछि।”
अस्तु! क्रमशः….
हरिः हरः!!