गीताक तेसर बेरुक स्वाध्याय
(निरन्तरता मे तेसर अध्यायक कर्मयोग केर चर्चा जाहि सँ कोनो प्रकारक बन्धन नहि बनैत अछि। कृष्ण द्वारा प्रजापति ब्रह्माक सृष्टि रचना मे मनुष्य लेल निर्धारित कर्म जाहि मे यज्ञ करबाक आदेश अछि, मनुष्य द्वारा देवता लेल आ देवता द्वारा मनुष्य लेल परस्पर सहयोगक विधान अछि, आर बिना कर्मफल मे आसक्ति उत्पन्न केने केवल निष्ठापूर्वक नियत कर्म करबाक ज्ञान अछि। जनक आदि राजा द्वारा एहि प्रकारक उदाहरण बनबाक बात भगवान् अर्जुन केँ बतेलनि… तेकर बाद…)
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥ २१॥
श्रेष्ठ मनुष्य जे-जे आचरण करैत अछि, दोसरो मनुष्य तेहने-तेहने आचरण करैत अछि। ओ जे किछु प्रमाण कय दैत अछि, दोसरो मनुष्य ताहि अनुसार आचरण करैत अछि।
पहिने राजा जनक समान आरो कतेको महापुरुष द्वारा जीवन निर्वहन मे उपरोक्त ब्रह्माविदित विधान अनुसार जीवन केँ प्रमाणित करबाक बात कहलैन आर आब पुनः भगवान् मनुष्यलोक मे श्रेष्ठ मनुष्यक आचरण केँ दोसर मनुष्य द्वारा अपनेबाक बात कहि रहला अछि।
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि॥ २२॥
हे पार्थ! हमरा तिनू लोक मे नहि तऽ कोनो कर्तव्य अछि आर नहिये कोनो प्राप्त करबा योग्य वस्तु अप्राप्त अछि, तैयो हम कर्तव्यकर्म मे मात्र लागल रहैत छी।
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रित:।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश:॥ २३॥
उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।
सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमा: प्रजा:॥ २४॥
कियैक तऽ हे पार्थ! अगर हम कोनो समय सावधान भऽ केँ कर्तव्य-कर्म नहि करब (तऽ बड़ पैघ हानि भऽ जायत; कियैक तँ) मनुष्य सब प्रकारसँ हमरहि मार्गक अनुसरण करैत अछि। यदि हम कर्म नहि करू तऽ ई सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट भऽ जायत आर हम वर्णसंकरता करयवला भऽ जाएब, संगहि एहि समस्त प्रजा केँ नष्ट करयवला बनि जाएब।
सक्ता: कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसङ्ग्रहम् ॥ २५॥
न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्त: समाचरन्॥ २६॥
हे भरतवंशोद्भव अर्जुन! कर्म मे आसक्त भेल अज्ञानीजन जाहि तरहें कर्म करैत अछि, आसक्तिरहित तत्त्वज्ञ महापुरुष सेहो लोकसंग्रह करबाक इच्छा सँ ओहिना कर्म करय। सावधान तत्त्वज्ञ महापुरुष कर्म मे आसक्तिवाला अज्ञानी मनुष्य केर बुद्धि मे भ्रम उत्पन्न नहि करय, बरु स्वयं समस्त कर्मों केँ नीक जेकाँ करैत ओकरो सब सँ ओहिना करबाबय।
प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वश:।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते॥ २७॥
सम्पूर्ण कर्म सब प्रकारसँ प्रकृतिक गुण द्वारा कैल जाएत अछि; लेकिन अहंकार सँ मोहित अन्त:करणवला अज्ञानी मनुष्य ‘हम कर्ता छी — एना मानि लैत अछि।
तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयो:।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते॥ २८॥
परन्तु हे महाबाहो! गुण-विभाग आर कर्म-विभाग केँ तत्त्व सँ जाननिहार महापुरुष ‘सम्पूर्ण गुण मात्र गुण सबमे रत भऽ रहल अछि’ — एना मानिकय ओहि मे आसक्त नहि होएछ।
प्रकृतेर्गुणसम्मूढा: सज्जन्ते गुणकर्मसु।
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्॥ २९॥
प्रकृतिजन्य गुण सँ अत्यन्त मोहित भेल अज्ञानी मनुष्य गुण आर कर्म मे आसक्त रहैत अछो। ओहि पूर्णतया नहि मानयवाला मन्दबुद्धि अज्ञानी सब केँ पूर्णतया जानयवाला ज्ञानी मनुष्य विचलित नहि करय।
मयि सर्वाणि कर्माणि सन्न्यस्याध्यात्मचेतसा।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वर:॥ ३०॥
अहाँ विवेकवती बुद्धिक द्वारा सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्म केँ हमरा अर्पण करैत कामनारहित, ममतारहित और सन्तापरहित भऽ कय युद्धरूप कर्तव्य-कर्म केँ करू।
आइ केवल उपरोक्त अन्वयक संग विराम दैत छी…. किछु बात एतेक गूढ बुझाइत अछि जे सहजता सँ बुझय मे नहि अबैत अछि। कतेको बेर २५म श्लोक मे अटैक गेल रही…. आर एम्हर ई गृहस्थाश्रम… चंचल माथ…. कतय-कतय जा रहल अछि। लेकिन हम आइ संतुष्ट नहि छी। एहि भाग पर काल्हियो या आइये आर कोनो बेर मे माथा फेर लगायब। गुत्थी केँ सुलझायब।
हरिः हरः!!