गीताक स्वाध्याय – अर्जुनक शोक

गीताक तेसर बेरुक स्वाध्याय

(निरंतरता मे…. अध्याय १ केर २०म श्लोक उपरान्त)

krishna arjun mahabharatपैछला दिन पढने रही जे धृतराष्ट्र अपन पुत्र दुर्योधनक पक्ष आर विपक्षी पाण्डव केर पक्षक अवस्था ‘धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र’ मे कि अवस्था अछि, ताहि पर संजय द्वारा दुर्योधनक अन्तर्मनक विचलन आर गुरु द्रोण सँ वार्तालाप मे दुनू पक्षक योद्धा-महारथी सबहक चर्चा करैत कुरु सेनाक रक्षक (अभिभावक) भीष्म प्रति समर्पित भऽ आचार्य युद्ध मे अपन योगदान दैथ कहलनि, दुर्योधनक ओहि बात पर द्रोणक कोनो उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया नहि होइत देखि भीष्म पितामह द्वारा शंखघोष सँ प्रपौत्रक मनोबल बढेबाक कार्य आर तेकर बाद बेरा-बेरी सब कियो, दुनू पक्ष द्वारा अपन-अपन मनोबल प्रकट करबाक यंत्र शंख सहित अन्य रणभेड़ि आदि बजायल गल। तखनहि अर्जुन श्रीकृष्ण सँ बाजय लगलाह…..

सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत…. हे अच्युत! हमर रथ केँ दुनू सेनाक बीच मे लऽ चलू, कने हम देखी जे युद्ध लेल तत्पर लोक सबकेँ देखी। आइ युद्ध आरंभ होयबा सँ पूर्व हम ई बुझी जे केकरा संग हमरा लड़बाक अछि।

पुनः संजय केर शब्द मे धृतराष्ट्र केँ आगाँक वर्णन करैत कहल गेल अछि जे अर्जुनक उपरोक्त अनुरोध अनुरूप श्रीकृष्ण अर्जुनक ओहि युद्धरथ केँ हाँकिकय दुनू सेनाक बीच ठीक ओहि जगह पर ठाढ करैत छथि जाहि ठाम सँ कौरव सेनाक मुख्य महारथी सब स्पष्ट दृष्टिगोचर होइत छथि। श्रीकृष्ण कहैत छथिन, “पार्थ पश्यैतान्समवेतान् कुरूनिति” – “देखू! पार्थ! समस्त कौरव केँ एकत्रित रूप मे देखू।”

तत्रापश्यत् स्थितान् पार्थः पितृनथ पितामहान्॥
आचार्यान् मातुलान् भ्रातृन् पुत्रान् पौत्रान् सखींस्तथा॥
श्वशुरान सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि॥२६॥

आर पार्थ ओहि दुनू सेनाक स्थिति देखैत छथि। ओहिमे पितामह लोकनि, ससूर लोकनि, पितृन् यानि काका लोकनि, भ्रातृन् यानि सहोदर ओ पितियौत भाइ लोकनि, अपन ओ भाइ केर पुत्र तथा प्रपौत्र लोकनि, सखा-मित्र लोकनि, आचार्य लोकनि, आर हुनकर मित्रादि केँ सेनाक रूप मे देखैत छथि।

एना, कुन्तीपुत्र अपनहि लोककेँ युद्धातुर देखि अत्यन्त दुःखसँ भरि कहय लगलाह – “हे कृष्ण! एना अपनहि लोककेँ युद्ध लेल आतुर देखि हमरा गत्र-गत्र सून्न होमय लागल अछि। मुह सुखा रहल अछि। पूरा शरीर थरथरा रहल अछि। रोम-रोम सिहैर रहल अछि। हाथ सँ गाण्डीव ससैर रहल अछि। सौंसे देह मे धाह दऽ रहल अछि।”

अपन लोक सँ अतिशय स्नेहक कारण अर्जुनक विषादियुक्त होयब स्वाभाविके छल। ओ स्वयं पर रहल नियंत्रण हरा देलनि। आगू कहैत छथिनः

“हे केशव! नहिये हमरा ठीक सऽ ठाढ भेल होयत, मोन घूमि रहल अछि (घुरमा जेकाँ लागल अछि), हमरा सब किछु उल्टे नजरि आबि रहल अछि।”

सामान्यतया मस्तिष्क आ ज्ञानेन्द्रिय नियंत्रित अवस्था मे रहैत छैक तऽ सब किछु अपना जगह पर आर शरीर – दिमाग – ज्ञानेन्द्रिय आदि सबटा सही दिशा मे कार्य करैत छैक। मुदा विशेष अवस्था मे माथ घूमब, घुरमा लागब, शरीरक ताप बढब, देह सिहरब, धाह लागब, ठंढ लागब, थरथरायब… आदि स्वस्थ लक्षण नहि होएत छैक। अर्जुन समान महान् धनुर्धर – आइ युद्ध भूमि मे युद्धातुर स्वजन केँ देखि अचानक विषादि (शोक) केर अवस्था मे पहुँचि जाएछ। ओ अपन सारथि रूप मुदा सब दिन बाट देखेनिहार सखा कृष्ण सँ आगू कहैत छथिः

“हे कृष्ण! हमरा एहि मे कोनो औचित्य (अच्छाइ) सेहो नजरि नहि पड़ि रहल अछि जे अपने लोक केँ युद्ध मे मारी। हमरा न विजयी बनबाक चाहत अछि, नहिये कोनो प्रकारक राजसुख चाही। कि देत ओ राज्य, कि भेटत ओहि सुख मे, केहन होयत ओ जीवन जखन जेकरा लेल एहि सब बातक चाहत (इच्छा) हो – जेकरा वास्ते सम्राज्य, भोग आर सुखादि चाही; वैह सब एहि ठाम युद्ध करबाक लेल ठाढ अछि, ओ सब कियो जीवन आर संपदा सँ संन्यास (सदा लेल त्याग करैत) लैत एतय युद्धभूमि मे अपन प्राणक आहूति देबाक वास्ते आबि गेल अछि – आचार्य (शिक्षक), काका, बेटा… आर पितामह, मातामह, ससूर, पौत्र, सार आदि अन्य स्वजन संबंधी सहित एतय युद्ध लेल आयल अछि।”

निश्चित रूप सँ कोनो सुख वा भोग केकरो असगरे नहि चाही। एहेन अतिस्वार्थी कम सँ कम मानव तऽ नहिये भऽ सकैत अछि। अर्जुन नितान्त एकटा साधारण मनुष्यक ओहि अवस्था मे आबि गेला अछि जतय हम सब स्वयं मे उद्वेलन केर अनुभूतिक बेर मोन पारि सकैत छी। देखू फेर कि कहैत छथिः

“हे मधुसूदन! ई सब हमरा मारियो देता तऽ हम हिनका सबकेँ नहि मारबैन। एहि तिनू लोकक स्वामित्व लेल पर्यन्त हम ई जघन्य कार्य नहि करब, तखन तऽ एहि पृथ्वीक बाते छोड़ू। धृतराष्ट्र केर संतान सबकेँ मारिकय हमरा कोन सुख भेटत? एहि आततायी सबकेँ मारला सँ हमरा पापे लागत।”

अर्जुन धृतराष्ट्र पुत्र सबकेँ आततायी कहलैन अछि। आततायी ओकरा कहल जाएछः
जे केकरो घर मे आगि लगाबय,
जे केकरो विष खुआबय,
जे अस्त्र-शस्त्र आदि सँ आक्रमण करय,
जे अनकर धन चोराबय,
जे अनकर जमीन पर कब्जा करय, आर,
जे अनकर पत्नी केँ चोराबय।

एतय एकटा बात टिप्पणीकार स्वामी स्वरूपानन्द मोन पारि रहला अछि। हिन्दू पौराणिक शास्त्र ‘अर्थशास्त्र’ मे ‘आततायी’ केर बद्ध केनाय मे कोनो पाप नहि लगैत छैक, कहल गेल छैक। कहल गेल छैक जे ओ भले वेदान्त विज्ञ कियैक नहि हो, जँ आततायी थीक तऽ ओकर हत्या खुलेआम कैल जा सकैत छैक। तखन अर्जुनक कहबा मे सेहो ई तात्पर्य निहीत छैक जे कौरव भ्राता भले आततायी छी आ एकरा मारबा मे कोनो पाप नहि लागत मुदा तैयो हत्याक साधारण पाप तऽ लगिते अछि, आर एतय उद्देश्य सम्राज्य प्राप्ति, भोग वास्ते अपनहि भाइ केँ मारब हुनका उचित नहि बुझा रहलनि अछि। ओ अपन अभिव्यक्तिक संग-संग आत्मनिर्णयक अवस्था मे पहुँचैत कहैत छथिः

“ताहि हेतु हमरा सबकेँ अपनहि लोकक हत्या नहि करबाक चाही। धृतराष्ट्रपुत्र आखिरकार हमर भाइये सब थीक। हे माधव! अपन लोककेँ मारिकय कोनो लाभ केर प्राप्ति कोना कय सकब? हलाँकि ई सब लोभ सँ ग्रसित, अपनहि परिवारक लोक केँ हानि पहुँचेबा मे पर्यन्त कोनो दोष नहि देखैत अछि; मित्रहु पर अत्याचार करबा मे कोनो पाप नहि मानैत अछि, तैयो, हे जनार्दन, जे कुलक्षय सँ होमयवला दोष केँ बुझैत अछि, ओ कोनाकय एहि पापक भागी बनत?”

अर्जुन स्पष्ट रूप सँ द्वन्द्व मे फँसल छथि। हुनकर निज आत्मा ओ मनक बीच सेहो स्पष्ट बहस चलि रहल छन्हि। प्रश्न एक पूछैत अछि, दोसर जबाब तकैत अछि। आर मुह सँ बलर-बलर वचन निकैल रहल अछि। कारण छैक जे आत्माक परमात्मा स्वरूप परमगुरु कृष्ण सोझाँ मे ठाढ छथि। सारथि वैह छथि। वार्ता हुनकहि संग भऽ रहल अछि। त्रिपक्षीय वार्ताक ई दृश्य थीक। अर्जुन अपन द्वंद्व सँ उपजल प्रश्नक उत्तर तकैत स्वकर्म हेतु निर्णय तऽ लऽ रहला अछि, मुदा गुरुक शरण मे समर्पित रहैत कृष्णक सोझाँ ओ सब द्वंद्व केँ जहिनाक तहिना प्रस्तुत कय रहला अछि। ओ कुलक्षय सँ पाप होयबाक बात अपनाकेँ पता अछि कहय चाहि रहल छथि, भाइ (धृतराष्ट्रपुत्र) सब केँ अज्ञान रहबाक आर लोभ सँ ग्रसित अवस्था मे रहबाक बात कहि रहला अछि। आगाँ देखूः

“कुलक्षय सँ सदा-सनातन सँ कैल जा रहल कुलधर्म केर मृत्यु होइछ। धर्म नष्ट भेल कुल मे अधर्म आरो बहुत किछु बर्बाद कय दैत अछि। अधर्मक प्रवेश होइते हे कृष्ण! कुलक स्त्री प्रदूषित होइत अछि। जखन स्त्री मे दुष्टाक वास अर्थात् प्रदूषण घर कय जाएछ तखन वर्णसङ्कर केर उत्पत्ति तय अछि। वर्णसङ्कर सँ कुल-परिवार नरकगामी बनैछ, कुलनाशक बनैछ; एतबा नहि! पूर्वज पितर सेहो जल ओ पिण्डदान पेबा सँ वंचित वंचित रहि जाइत छथि। एहि कुलघ्न सबहक कारण जातीय पहिचान पर्यन्त वर्णसङ्कर मे परिणति पाबि समस्त जातिधर्म सेहो बर्बाद भऽ जाएछ। हे जनार्दन! हम सुनने छी जे जातिधर्म नष्ट भेल परिवार (कुल)क लोक केँ नरकक नसीब भेटब तय रहैत अछि।”

अर्जुन अपन मनक सब बात जहिनाक तहिना ओहि विषादियुक्त अवस्था मे राखि देलनि। ओ कुलधर्म, जातिधर्म, पितरलोक, श्राद्ध क्रियाक अन्त, आदिक चर्चा करैत युद्धक परिणाम भयावह होयबाक बात कहैत अपन नहि लड़बाक भावना केँ बल दैत आगाँ कहलाहः

“ओह! हम सब बहुत पैघ पाप करय मे लागि गेल छी। सुख ओ राज्यक भोग लेल हम सब अपनहि लोक केर हत्या करय लेल उद्यत् भेल छी। जँ धृतराष्ट्रक पुत्र सब हमरा मारबाक लेल अस्त्र उठौने छथि, तऽ हम अस्त्रविहीन अवस्था मे युद्ध मे उतरबाक लेल निश्चिंत छी। हमरा लेल यैह बेसी नीक होयत।”

संजय उवाच।
एवमुक्त्वाऽर्जुनः संख्ये रथोपस्थ उपाविशत्।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः॥४७॥

संजय कहैत छथि जे अर्जुन एहि तरहें अपन मनक बात युद्धक्षेत्रक बीच मे कहैत अपन तीर आर धनुष राखि शोकमग्न अवस्था मे दुःखी भऽ अपन स्थान पर रथ मे बैसि गेलाह।

एहि तरहें गीताक प्रथम अध्याय सौंपल गेल अछि। कुल ४७ गो श्लोक मे किछेक पात्रक बीच मे समेटल गेल ई महान् उपनिषद् हम मानव लेल मनन योग्य अछि। एहि मे अपन जीवनक विभिन्न पक्ष खासकय द्वंद्वक फंद केर अवसर पर जाहि स्थितिक सामना हर मनुष्य केँ करय पड़ैछ तेकर निरूपण अछि। अहाँक भीतर मे दुइ महत्वपूर्ण विचार सदिखन हावी रहैत अछि, एकटा आत्माक आवाज आर दोसर ई मन जेकरा एहि लोक मे विचरण करब स्वभावक तौर पर भेटल छैक। ऐगला अध्याय मे एहि दुओ केँ संग राखि सबहक समर्थ स्वामी श्रीकृष्णक कृपा सँ हम सब दोसर दिन अध्ययन करब।

अस्तु!

हरिः हरः!!