महत्वपूर्ण सात प्रश्नः उत्तर सहित

प्रश्न आर उत्तर मे ब्रह्मज्ञान

(श्रीमद्भागवद्गीताक आठम् अध्याय पर आधारित स्वाध्यायांश)

krishna arjun mahabharatकिं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम॥
अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते॥१॥
अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन् मधुसूदन॥
प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः॥२॥

यैह दुइ श्लोक मे गूढतम् ज्ञान हासिल करबाक लक्ष्य सँ अर्जुन श्रीकृष्णक सोझाँ प्रस्तुत होएत छथि। ब्रह्म कि? अध्यात्म कि? कर्म कि? अधिभूत केकरा कहल जाइछ? अधिदेव के? एहि शरीर मे के आर कोन तरहें अधियज्ञ छथि? प्रयाणकाल (मरबा घड़ी) मे ज्ञेय (स्वनियंत्रित ज्ञानी) केँ अहाँ (ब्रह्म) कोन रूप मे देखाइत छी?

एकर बाद भगवान् अर्जुन केँ बुझबैत एक-एक टा बातक जबाब देने छथि। हम संस्कृत रूप एतय संछेप भाव संग राखय लेल चाहब जे अत्यन्त मनन योग्य अछि। अन्तर्ज्ञान बढला सँ ईश प्रति समर्पण आ मनुष्य जीवनक यथार्थ लाभ प्राप्त होयत, यैह अपेक्षाक संग ई लेख प्रस्तुत अछि।

श्रीभगवान् कहलनिः

अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते ।
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः ॥८- ३॥

अक्षर परम ब्रह्म छथि – जे अपन स्वभाव सँ हर जीव मे बसैत छथि हुनका अध्यात्म कहल जाइछ। आर जे भूतकेर भाव उत्पन्न करयवला त्याग होइछ ओकरा कर्म कहल जाइछ।

अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम् ।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर ॥८- ४॥

क्षर यानि उत्पत्ति-विनाश धर्म सँ युक्त केँ अधिभूत कहल जाइछ, आर ताहि मे अन्तर्निवास करनिहार पुरुष केँ अधिदेव कहल जाइछ। आर, एहि शरीर मे ‘हम’ मात्र अन्तर्यामी रूप सँ अधियज्ञ छी।

अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् ।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ॥८- ५॥

आर जे अन्तकाल मे सेहो हमरे स्मरण करैत शरीर त्याग करैत अछि ओ निश्चित रूप सँ हमरहि स्वरूप केँ प्राप्त करैत अछि, एहि मे कोनो संशय नहि।

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥८- ६॥

जाहि-जाहि बात केँ स्मरण करैत शरीर केँ त्याग करैत अछि, ताहि सब लोक टा केँ निरंतर ध्यान मे रखलाक कारण ओ प्राप्त करैत अछि।

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च ।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ॥८- ७॥

तही लेल सदिखन हमरे स्मरण करैत युद्ध (स्वधर्म) करू। मन आ बुद्धि हमरे मे अर्पित रखला सँ अहाँ निश्चित हमरे प्राप्त करब।

अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना ।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् ॥८- ८॥

एहि तरहें अभ्यास योग सँ युक्त चेतनशील कोनो अन्य दिशा मे मन नहि लगाकय एकमात्र परम दिव्य पुरुष केर चिन्तन करैत हुनके टा प्राप्त करैत अछि।

आगाँ भगवान् कृष्ण अनेकानेक उदाहरण सँ भगवद्प्राप्तिक उपरोक्त उपाय पर व्याख्यान देने छथि। भगवान् एहि बात पर जोर देने छथि जे जन्म-मरण केर निरंतरता केँ खत्म करबाक इच्छा हर जीव मे रहैत छैक। अन्त भला तऽ सब भला! अन्त तखनहि नीक भऽ सकैत छैक जखन स्वधर्म केर निर्वहन करितो मनुष्य सदिखन अपन परमपिता परमेश्वरक चिन्तन-स्मरण मे रहत। एतय दुनू बात छैक। या तऽ संसार व सांसारिकता मे भटकैत रहू, जन्म-मरण केर चक्कर मे फँसल रहू। या फेर अपन वृत्तिकेँ योगयुक्त करैत मनक चंचलताकेँ विराम दैत सदिखन ब्रह्म केर चिन्तन मे लागल रहू। योगी, संन्यासी, अनन्य चित्त सँ भक्ति मे रत अनेक उदाहरण भगवान् दैत छथि। एकर सार टा व्यक्त करैत संस्कृत केर यथारूप राखि रहल छी, कारण मैथिली आ संस्कृत मे दूरी केवल शब्द-संरचनाक छैक, अर्थ दुनू मे समानहि छैक। शब्द-रचनाक गूढता एहि देव मातृभाषा मे मैथिली वा हिन्दी वा नेपाली आदि सँ कनेक गूढे छैक। तथापि रुचि रखनिहार लेल कोनो असहज नहि। इति!

कविं पुराणमनुशासितार-
मणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः ।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप
मादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ॥८- ९॥

प्रयाणकाले मनसाचलेन
भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव ।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक्
स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ॥८- १०॥

यदक्षरं वेदविदो वदन्ति
विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः ।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति
तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥८- ११॥

सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ॥८- १२॥

ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् ।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ॥८- १३॥

अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥८- १४॥

मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् ।
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः ॥८- १५॥

आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन ।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ॥८- १६॥

सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः ।
रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः ॥८- १७॥

अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे ।
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके ॥८- १८॥

भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते ।
रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे ॥८- १९॥

परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः ।
यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति ॥८- २०॥

अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम् ।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥८- २१॥

पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया ।
यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम् ॥८- २२॥

यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः ।
प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ ॥८- २३॥

अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम् ।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ॥८- २४॥

धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम् ।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते ॥८- २५॥

शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते ।
एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः ॥८- २६॥

नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन ।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन ॥८- २७॥

वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव
दानेषु यत् पुण्यफलं प्रदिष्टम् ।
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा
योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम् ॥८- २८॥

The one who knows all this knowledge goes beyond getting the benefits of the study of the Vedas, performance of sacrifices, austerities, and charities; and attains salvation. (8.28)

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे अक्षरब्रह्मयोगो नामाष्टमोऽध्यायः ॥८॥