दममूचुर्महात्मानमनलप्रभवं भृगुम्॥१॥महर्षि भृगु द्वारा स्नातकक लेल निक जेकाँ निरूपित आचरण योग्य धर्म केँ सुनि ऋषिगण अग्निक समान प्रकाशमान महात्मा भृगु सँ कहलनि –
एवं यथोक्तं विप्राणां स्वधर्ममनुतिष्ठताम्॥
कथं मृत्युः प्रभवति वेदशास्त्रविदां प्रभो॥२॥
भगवन्! हमरा सबकेँ जेना अपने ब्राह्मणोंक कर्तव्यक बारे मे बतेलहुँ, तहिना ईहो बतेबाक कृपा करू जे अपन धर्मक पालन करयवला वेद-शास्त्र मे निपुण ब्राह्मणक अकाल मृत्यु कोन कारण सँ होएत अछि।
स तानुवाच धर्मात्मा महर्षीन्मानवो भृगुः॥
श्रूयतां येन दोषेण मृत्युर्विप्राञ्जिघांसति॥३॥
मनुक वंशज धर्मात्मा महर्षि भृगु तखन ऋषि सब सँ कहला – हम अहाँ सब केँ बता रहल छी मृत्यु कोन दोषक कारण विद्वान् तथा आचारनिष्ठ ब्राह्मण केँ मारबाक इच्छा करैत अछि, सुनू।
अनभ्यासेन वेदानामाचारस्य च वर्जनात्॥
आलस्यादन्नदोषाच्च मृत्युर्विप्राञ्जिघांसति॥४॥
वेद पाठ केर अभ्यास नहि करब, सदाचार केर पालन नहि करब, आलस्यमे पड़ल रहब, समय पर जाग्रत नहि होयब, करबा योग्य कर्मकेँ टारि देब, दूषित अन्नकेर भक्षण करब, जे खेबा योग्य नहि अछि सेहो खायब या अन्यायसँ कमायल धन सँ जीवन चलायब – यैह कारणसँ मृत्यु असमय कोनो ब्राह्मण केँ अपन शिकार बनबैत अछि।
लशुनं गृञ्जनं चैव पलाण्डुं कवकानि च॥
अभक्ष्याणि द्विजातीनाममेध्यप्रभवानि च॥५॥
लहसुन, शलजम, प्याज, कुकरमुत्ता और गन्दा स्थान मे पैदा होयवाला खाद्य पदार्थक खेबासँ बुद्धि भ्रष्ट होइत अछि। अतः ई सब ब्राह्मण केँ नहि खेबाक चाही।
लोहितान् वृक्षनिर्यासान् व्रश्चनप्रभवांस्तथा॥
शेलुं गव्यं च पीयूषं प्रयत्नेन विवर्जयेत्॥६॥
लाल रंगवला गाछक गोंद, वृक्षमे छेद कएला सँ निकलयवला रस, लसूड़ा आदि लेसवला फल और एहेन गायकेर दूध सँ जे बच्चा हालहि मे जन्म देलक अछि, एहि सभ वस्तुक सेवन नहि करबाक चाही। एहि सँ अकाल मृत्यु केर सम्भावना बढि जाएत अछि।
वृथाकृसरसंयावं पायसायूपमेव च।
अनुपाकृतमांसानि देवान्नानि हवींषि च॥७॥
तिल-चाउर केर दूध मे बनल खीर, दूध केर रबड़ी, मालपूआ आदि बेकार केर पकवान अछि अर्थात् स्वास्थ्य केर लेल हानिकारक होइछ। एकर सेवन नहि करू। एकर अलावे मांस तथा हवनकेर पुरोडाश केँ बलि चढेने बिना नहि खाउ।
अनिर्दशायाः गोः क्षीरमौष्ट्रमैकशफं तथा।
आविकं सन्धिनीक्षीरं विवत्सायाश्च गोः पयः॥८॥
प्रसव करबाक दिन सँ जेकरा दस दिन व्यतीत नहि भेल हो एहेन गाय, ऊंटनी, एक खुर वाली पशु (घोड़ी, गधी, आदि) भेड़, गरमायल (गर्भवती होयबाक इच्छावाली) तथा एहेन गाय जेकर बच्चा मरि गेल हो, ओकर दूध नहि पीबाक चाही।
आरण्यानां च सर्वेषां मृगाणां माहिषं बिना।
स्त्रीक्षीरं चैव वर्ज्यानि सर्वशुक्तानि चैव हि॥९॥
भैंस केर अतिरिक्त सब वनैल पशु आदिक और अपन स्त्रीका दूध पीबाक योग्य नहि होइछ। सब सड़ल-गलल या बहुत खट्टा पदार्थ खेबा योग्य नहि होइछ। एकरा सबकेँ त्याग कय देबाक चाही।
दधिभिक्ष्यं च शुक्तेषु सर्वं च दधिसम्भवम्।
यानि चैवाभिषूयन्ते पुष्पमूलफलैः शुभैः॥१०॥
शुक्त मे दही तथा ओहि सँ बनयवला पदार्थ (मट्ठा, छाछ, तक्र, आदि) तथा जे शुभ (नशा नहि करयवला) फूल, जैड़ तथा फलसँ निर्मित पदार्थ (अचार, चटनी, मुरब्बा, आदि) भक्षण करबा योग्य नहि होइछ।
टिप्पणी: शुक्तसँ आशय कांजीं-किसी आदि जेहेन पदार्थ सँ अछि जे अधिक-अधिक समय धरि राखल रहलाक कारण खट्टा भऽ जाएत अछि। दही सेहो एक एहने पदार्थ होइछ।
अनिर्दिष्टांश्चैकशफांष्टिभं च विवर्जयेत्॥११॥कच्चा मांस भक्षण करनिहार सब जानवर-पक्षी, गांवमे रहयवला (मुर्गा, परवा, मेना आदि) पक्षी, नाम सँ निर्देश नहि कैल गेल एक खुर वला पशु (जेना गदहा आदि) और टिटिहरी केर मांस भक्षण नहि करय।
कलविङ्कं प्लवं हंसं चक्राहं ग्रामकुक्कुटम्।
सारसं रज्जुदालं च दात्यूहं शुकसारिके॥१२॥
प्रतुदाञ्जालपादांश्च कोयष्टिनखविष्किरान्।
निमज्जतश्च मत्स्यादान् शौचं बल्लूरमेव च॥१३॥
बकं चैव बलाकां च काकोलं खञ्जरीटकम्।
मत्स्यादान्विडवराहांश्च मत्स्यानेव च सर्वशः॥१४॥
सेवन योग्य नहि होयबा सँ गौरैया, परेवा, हंस, चकवा, पालतू मुर्गा, सारस, डौम कौआ, जल कौआ, तोता, मैना, लोल सँ फाड़िकय मांस खायवला, पैर मे जाल-सन राखयवाला बाज जेहेन जीव-जन्तु, चील, नहसँ फाड़िकय खायवाला, पानि मे डुबकी लगाकय माछकेँ पकड़िकय भक्षण करयवला जलचर, वध स्थल पर पड़ल सूखल मांस, बगुला, बत्तख, करेरूंगा, खञ्जन, माछ खायवला जीव, मल आदि खायवला शूकर (सुग्गर) एवं मत्स्य (माछ) नहि खेबाक चाही।
यो यस्य मांसमश्नाति स तन्मांसाद उच्यते।
मत्स्यादः सर्वमांसादस्तस्मात्मत्स्यान्विवर्जयेत्॥
जाहि जीवक मांस जे व्यक्ति खाएत अछि ओ ओहि जीव केर भक्षक होएत अछि। माछ द्वारा सब जीवकेर मांस खायल जाएछ। तैँ माछ खायवाला सर्वभक्षक होएछ। सर्वभक्षक बनबाक पाप सँ बचबाक लेल माछ नहि खेबाक चाही।
राजीवान्सिंहतुण्डांश्च सशल्काश्चैव सर्वशः॥१६॥पाठीन प्रकारक माछ हव्य देव यज्ञ मे और रोहित किस्मक माछ कव्य-पितृ श्राद्धमे स्वीकार कैल जाएछ। ताहि हेतु एहि दुनू तरहक तथा राजीव और सिंहतुण्डा प्रकार वला एवं मोट त्वचा वला माछक भक्षण करब मना नहि अछि।
न भक्षयेदेकचरानज्ञातांश्च मृगद्विजान्।
भक्ष्येष्वपि समुद्दिष्टान् सर्वान्पञ्चनखांस्तथा॥१७॥
स्वाविधं शल्यकं गोधां खङ्गकूर्मशशांस्तथा।
भक्ष्यान्पञ्चनखे ष्वाहु रनुष्ट्रांश्चैकतोदतः॥१८॥
एहेन जीव जेकरा भक्षण योग्य कहल गेल अछि ओ एकाकिये चरैत वा रेंगैत अछि, जेना सांप आदि। अनजाइने पशु-पक्षी आर सिंह, चीता, व्याघ्र जेहेन पशु जेकर पाँच टा नह होएछ, भक्षण योग्य नहि अछि। एकर अलावे सेह, शल्यक, गोधा, खङ्ग, कछुवा, खरगोश आदि केर भक्षण कैल जा सकैत अछि।
छत्राकं विड्वराहं च लशुनं ग्रामकुक्कुटम्।
पलाण्डुं गृञ्जनं चैव मत्या जग्ध्वा पतेद् द्विजः॥१९॥
जानिबूझिकय कवक-भूकन्द विशेष (छत्राक), गामक सुग्गर, गामक मुर्गा, लहसुन, प्याज और शलजम केँ खेनिहार व्यक्ति केँ पतित मानबाक चाही।
अमत्यैतानिषड्जग्ध्वा कृच्छ्रं सान्तपनंचरेत्।
यति चान्द्रायणं वाऽपि शेषेषूपवसेदहः॥२०॥
अनजाइने मे एहि छः वस्तु (ऊपरकेर श्लोक मे बतायल गेल) केँ खायवला व्यक्ति केँ सान्तपन या यति चान्द्रायण व्रत केर अनुष्ठान करबाक आगाँ बतायल गेल अछि, ताहि अनुसारे प्रायश्चित करबाक चाही। एहिमे सँ कोनो एक केँ चखबो केला सँ एक दिन केर उपवास करब आवश्यक अछि।
संवत्सरस्यैकमपि चरेत्कृच्छ्रं द्विजोत्तमः।
अज्ञातभुक्तशुद्ध्यर्थं ज्ञातस्य तु विशेषतः॥२१॥
एहि शंका केँ दूर करबाक लेल जे कहियो अनजाइनो मे कोनो निषिद्ध पदार्थ (मना कैल गेल पदार्थ) नहि खा लेने होइ, वर्ष मे एक बेर सामान्य रूप सँ व्रत कय लेब उचित अछि। अगर जानैत-बूझैत सेहो कोनो निषिद्ध पदार्थ खा ली तऽ फेर विशेष रूप सँ किछु व्रत राखी जाहि सँ ओकर प्रायश्चित भऽ जाय।
यज्ञार्थं ब्राह्मणैर्वध्याः प्रशस्ताः मृगपक्षिणः।
भृत्यानां चैव वृत्त्यर्थमगस्त्यो ह्याचरत्पुरा॥२२॥
ब्राह्मण केँ यज्ञ करब और अपन सेवक केँ पेट भरबाक लेल केवल भक्षण योग्य कहल गेल पशु-पक्षी टा केर वध करबाक चाही। प्राचिनहिकाल सँ महर्षि अगस्त्य द्वारा एहि परम्पराक प्रारंभ कैल गेल।
बभूवुर्हि पुरोडाशाः भक्ष्याणां मृगपक्षिणाम्।
पुराणेष्वृषियज्ञेषु ब्रह्मक्षत्रसवेषु च॥२३॥
प्राचीनकाल मे सेहो मुनि, ब्राह्मण तथा क्षत्रिय केँ यज्ञ मे भक्ष्य पशु-पक्षी केर हविष्य-हव्य (पुरोडाश) बनायल गेल छल।
यत्किञ्चित्स्नेहसंयुक्तं भक्ष्यं भाज्यमगर्हितम्।
तत्पर्युषितमय्पाद्यं हविःशेषं च यद्भवेत्॥२४॥
अन्य भोज्य पदार्थ जे बासी अछि, ओकरो घी-तेल सँ संस्कारयुक्त (शुद्ध कय या घी आदि लगाकय गर्म कय केँ) कय तथा शेष रहल बासी यज्ञ-अन्नकेँ बिना संस्कार केनहियो खेबाक चाही।
चिरस्थितमपि त्वाद्यमस्नेहाक्तं द्विजातिभिः।
यवगोधूमजं सर्वं पयसश्चैव विक्रिया॥२५॥
यदि घी वाली मिठाई, जे जौ-गेहूँ आदि केर दूधमे पकाकय बनायल गेल हो, बहुत दिनक राखलो रहलाक बादो ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य केँ ओ खा लेबाक चाही।
मांसायातः प्रवक्ष्यामि विधिं भक्षणवर्जने॥२६॥भृगुजी कहला – महर्षिगण! हम द्विजाति (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) केर लेल समग्र रूप सँ खेबा योग्य तथा नहि खेबा योग्य पदार्थोंक वर्णन तँ कय देलहुँ, आब हम मांस खेबाक और त्याग करबाक विधि सुनाबैत छी, ध्यान सँ सुनू।
प्रोक्षितं भक्षयेन्मांसं ब्राह्मणानां च काम्यया।
यथाविधि नियुक्तस्तु प्राणानामेव चात्यये॥२७॥
यदि ब्राह्मण केँ मांस भक्षण करेबाक कामना हो तऽ यज्ञ मे प्रोक्षण विधि सँ मांस केँ शुद्ध कय केँ हुनका परोसल जाय तथा स्वयं भक्षण कैल जाय। अगर अपन प्राण केँ बचेबाक लेल मांसाहार करय पड़य तऽ विधि तथा नियम केँ पालन करैत मात्र ओ खाएल जाय।
प्राणस्यान्नमिदं सर्वं प्रजापतिरकल्पयत्।
स्थावरं जङ्गमं चैव सर्वं प्राणस्य भोजनम्॥२८॥
सब प्रकारक अन्न प्रजापति ब्रह्माजी द्वारा प्राण केर रक्षा हेतु मात्र बनायल गेल अछि। ताहि सँ एहि जगत केर समस्त स्थावर तथा जङ्गम पदार्थोंक जीवकेँ भोजन बुझबाक चाही।
चराणामन्नमचरा दंष्ट्रिणामप्यदष्ट्रिणः।
अहस्ताश्च सहस्तानां शूराणां चैव भीरवः॥२९॥
चर जीव (अर्थात् चलयवला जानवर जेना – गाय, भैंस, आदि) केर लेल अचर (नहि चलयवला जेना – गाछ, घास-फूस, आदि), बड़का दांत वला जीव जेना – सिंह, व्याघ्र आदिक लेल छोट-छोट दांत वला (जेना – हरिन आदि), हाथ वला जीव केर लेल बिना हाथवला (जेना – माछ आदि) तथा साहसी जीवक लेल कायर जीव केर भोजनक रूपमे बनायल गेल अछि।
नात्ता दुष्यत्यदन्नाद्यान्प्राणिनोऽहन्यहन्यपि।
धात्रैव सृष्टा ह्यद्याश्च प्राणिनोऽत्तार एव च॥३०॥
भक्षण करय योग्य प्राणि सब केँ प्रतिदिन खायवला कोनो दोष सँ ग्रस्त नहि होयत कियैक तऽ एहि लोक मे खायवला और खायल जायवलाक रचना ब्रह्माजी अपनहि केलनि अछि।
अतोऽन्यथाप्रवृत्तिस्तु राक्षसो विधिरुच्यते॥३१॥यज्ञक वास्ते पशु आदिक वध करब तथा ओकर मांस भक्षण करब देवोचित कार्य अछि। यज्ञक अतिरिक्त केवल मांस भक्षणक हेतु पशुक वध करब राक्षसी कर्म थीक।
क्रीत्वा स्वयं वाप्युत्पाद्य परोपकृतमेव वा।
देवान्पितृंश्चार्चयित्वा खादन्मांसं न दुष्यति॥३२॥
क्रय कय आनल, पशु केँ अपनहि मारिकय आनल या कियो दोसर द्वारा पशुक वध कैल गेला सँ आनल मांस सँ देवता एवं पितरक पूजन करैत ओकरा खायवला व्यक्ति दोषसँ ग्रस्त नहि होएत अछि।
नाद्यादविधिना मांसं विधिज्ञोऽनापदि द्विजः।
जग्ध्वा ह्यविधिना मांसं प्रेत्य तैरद्यतेऽवशः॥३३॥
जे ब्राह्मण विधि-विधान केँ जनैत अछि ओकरा संकटकाल केँ छोड़िकय सामान्य परिस्थिति मे विधि-विधानक पालन केने बिना मांसाहार नहि करबाक चाही। एना केने बिना जे मांस भक्षण करैत अछि, ओकरा ऐगला जन्म मे ओही जीवक शिकार बनबाक लेल विवश होमय पड़ैत अछि।
न तादृशं भवत्येनो मृगहन्तुर्धनार्थिनः।
यादृशं भवति प्रेत्य वृथा मांसानि खादतः॥३४॥
पशु वध कयकेँ आजीविका चलाबयवला केँ ओतेक पाप नहि लगैछ जतेक विधि-विधानक पालन केने बिना मांस भक्षण करनिहार केँ एहि लोक आर परलोक मे होएत अछि।
नियुक्तस्तु यथान्यायं यो मांसं नात्ति मानवः।
स प्रेत्य पशुतां याति सम्भवानेकविंशतिम्॥३५॥
श्राद्ध तथा मधुपर्क मे जे व्यक्ति पितर सब केँ विधि अनुसार मांस अर्पण करैत स्वयं मांस भक्षण नहि करैत अछि ओ मृत्युक बाद एकैस बेर पशु योनि मे जन्म लैत अछि।
टिप्पणी: एहने व्यक्ति केँ पितरक श्राद्ध मांस सँ करबाक चाही जे स्वयं मांस खाएत हो। ओकरे ऊपर उपर्युक्त नियम लागू होएत अछि। जे शाकाहारी अछि ओकरा पितर केँ मांस अर्पण करबाक आवश्यकता नहि छैक।
असंस्कृतान्पशुन्मन्त्रैर्नाद्याद्विप्रः कदाचन।
मन्त्रैस्तु संस्कृतानद्याच्छाश्वतं विधिमास्थितः॥३६॥
मंत्र द्वारा पशु केर मांसकेँ संस्कारित (शुद्ध) केने बिना ब्राह्मण केँ मांसाहार नहि करबाक चाही। केवल वेद केर सदा-सदा सँ चलि आबि रहल विधि अनुसार पशु आदिक मांस केँ पवित्र कयकेँ मात्र ओकरा खेबाक चाही।
कुर्याद् घृतपशुं सङ्गे कुर्यात्पिष्टपशुं तथा।
न त्वेव तु वृथा हन्तुं पशुमिच्छेत्कदाचन॥३७॥
यज्ञ मे देवता सब केँ अर्पित करबाक उद्देश्यक अतिरिक्त केवल स्वार्थक लेल पशुक वध नहि करबाक चाही। मांस खेबाक इच्छा केर पूर्ति घी तथा आँटा सँ बनयवला कोनो स्वादिष्ट खाद्य पदार्थ सँ कय लेबाक चाही।
यावन्ति पशुरोमाणि तावत्कृत्वोह मारणम्।
वृथापशुघ्नः प्राप्नोति प्रेत्य जन्मनिजन्मनि॥३८॥
देवता सबहक पूजनक उद्देश्यक अतिरिक्त बेकार मे पशुक वध करयवलाक शरीर मे जतेक रोमकूप होएछ ओतबे जन्म धरि ओकरा ओहि पशु द्वारा मारल जाएछ।
यज्ञार्थं पशवः स्रष्टाः स्वयमेव स्वयम्भुवा।
यज्ञोऽस्य भूत्यै सर्वस्य तस्माद्यज्ञे वधोऽवधः॥३९॥
यज्ञ केर सिद्धिक उद्देश्य सँ मात्र ब्रह्माजी पशु आदिक रचना केलनि अछि। अतः जे पशु वध यज्ञक सिद्धि हेतु कैल जाएत अछि ओ वध नहि भेल।
ओषध्यः पशवो वृक्षास्तिर्यञ्चः पक्षिणास्तथा।
यज्ञार्थं निधनं प्राप्ताः प्राप्नुवन्त्युच्छ्रितीः पुनः॥४०॥
जे औषधि, पशु, गाछ, कूर्म आदि जीव तथा पक्षी यज्ञक सिद्धि-वृद्धिक लेल उपयोग मे आनल जायत या मारल जायत ओ अपने वधक बाद उत्तम गति केर अधिकार प्राप्त कय लैत अछि।
अत्रैव पशवोहिंस्या नान्यत्रेत्यब्रवीन्मनुः॥४१॥मनु महाराजक कहब छन्हि जे मधुपर्क, यज्ञ, श्राद्ध एवं देवपूजा, एहि चारू मे पशु आदिक वध करबाक विधान अछि, अन्य अवसर पर नहि।
एष्वर्थेषु पशून्हिसन्वेदतत्त्वार्थविद्द्विजः।
आत्मानं च पशुं चैव गमयत्युत्तमां गतिम्॥४२॥
वेदक मर्म केँ बुझनिहार ब्राह्मण मधुपर्क, श्राद्ध आदि मे पशुवध कयकेँ अपन तथा वध कैल गेल पशुक लेल उत्तम गति पेबाक मार्ग तैयार करैत छथि।
गृहे ग्रुरावरण्ये वा निवसन्नात्मवान्द्विजः।
नावेदविहितां हिंसामापद्यपि समाचरेत्॥४३॥
जितेन्द्रिय ब्राह्मण केँ ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थाश्रम या वानप्रस्थ आश्रम मे रहैत आपत्तिकेर समय मे सेहो एहेन हिंसा नहि करबाक चाही जे शास्त्र केर विरुद्ध हो।
या वेदविहिता हिंसा नियताऽस्मिंश्चराचरे।
अहिंसामेव तां विद्याद्वेदाद्धर्मो हि निर्बभौ॥४४॥
वेद टा एहि चर-अचर जगत मे धर्म-अधर्म केर निर्णायक थीक। अतः वेद मे जाहि हिंसाक निरूपण कैल गेल अछि ओकरा अहिंसा टा मानबाक-बुझबाक चाही।
योऽहिंसकानि भूतानि हिनस्त्यात्मसुखेच्छया।
स जीवंश्च मृतश्चैव नक्वचित्सुखमेधते॥४५॥
जे व्यक्ति एहेन जीव सबकेँ अपन सुखक लेल मारैत अछि आर जे हिंसक अछि और दोसरकेँ सताबैत अछि, ओ जीवन मे तथा मरलाक बाद सेहो कतहु सुखपूर्वक उन्नति नहि करत।
स सर्वस्य हितप्रेप्सुः सुखमत्यन्तमश्नुते॥४६॥ओ व्यक्ति जे दोसर प्राणी सबकेँ बान्हिकय नहीं रखैछ, ओकरा वध नहि करैछ तथा ओकरा कोनो पीड़ा नहि दैछ और सबहक हित केर कामना करैछ, वैह सदैव सुखी रहैत अछि।
यद्ध्यायति यत्कुरुते धृतिं बध्नाति यत्र च।
तद्वाप्नोत्यत्नेन यो हिनस्ति न किञ्चन॥४७॥
एहेन व्यक्ति जे केकरो पर हिंसा नहि करैछ, ओ जेकर चिन्तन करैछ, जे कर्म करैछ तथा जाहि मे ध्यान एकाग्र करैछ, ओ ओहि सब अभीष्ट केँ बिना विशेष प्रयत्न केने प्राप्त कय लैत अछि।
नाऽकृत्वा प्राणिनां हिंसां मांसमुत्पद्यते क्वचित्॥
न च प्राणिवधः स्वर्ग्यस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत्॥४८॥
मांस केर प्राप्ति तखनहि संभव अछि जखन दोसर जीव केँ वध कैल जाय, लेकिन जीव हिंसा कएला स्वर्ग नहि भेटत। तांइ सुख आर स्वर्ग पेबाक कामना रखनिहार द्विज केँ मांस भक्षण त्यागि देबाक चाही।
समुत्पत्तिं च मांसस्य वधबन्धौ च देहिनाम्।
प्रसमीक्ष्य निवर्तेत सर्वमांसस्य भक्षणात्॥४९॥
मांसक उत्पत्ति और जीवक बन्धन तथा वध केँ बुझिकय, सब प्रकारक मांस भक्षण केँ छोड़ि देबाक चाही।
न भक्षयति यो मांसं विधिं हित्वा पिशाचवत्।
स लोके प्रियतां याति व्याधिभिश्च न पीड्यते॥५०॥
शास्त्रोक्त कैल जायवला जीव वध केर अतिरिक्त जे व्यक्ति जीवन मे पिशाच सब जेकाँ मांसाहार नहि करत ओ रोग सँ पीड़ित नहि होएछ तथा संसार मे यश तथा प्रियता केँ उपलब्धि करैत अछि।
हरिः ॐ! हरिः हरः!!