स्वाध्याय: ईश आराधना-साधनाक समय लेल विशेष आध्यात्मिक चिन्तन
– प्रवीण नारायण चौधरी
आउ तऽ! आइ बहुत दिनक बाद एक बेर माथा खपाबी “प्रभुजी”क विशेष मार्गदर्शन (गीता) पर। ढंग सऽ श्लोक पढू, मैथिलीक चासनी मे बेर-बेर डूबबियौक आ तखन मीठ-मीठ रसगुल्ला समान मुह मे दियौक जे अन्तरात्मा तक केँ मीठका आनन्द सँ सराबोर कय दियय!!
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि॥
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शन:॥६-२९॥
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति॥
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६-३०॥
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थित:॥
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते॥६-३१॥
संस्कृत बुझब तऽ आब बाभनो भाइ सब केँ लेल कठिन अछि, तैँ न आब हुनकर भाषा ‘मैथिली’ कहि अपजलहा नेता सब अपन ‘नेतागिरी’ चमकाबैत अछि। बाभनो सबहक अनपढ धियापुता सब शूद्रवत् कतेको जीवनचर्याकेँ आत्मासात करैत छैक। लेकिन, कनेक एहि सब श्लोक केर अर्थ मैथिली मे मनन करियौक, पता चलत जे अहाँ बाभन होइ वा तिरपन, आ कि चौबन आ कि पचपन – बिना ईश मे निवास केने योग पूरा नहि होयत। कमाइ अधूरा रहि जायत।
जे मनुष्य:
१. योग सँ युक्त हृदय (चित्त), आ,
२. समस्त भूतभावन (सब जीव-वस्तु आदि) लेल समदृष्टि (बरोबरि नजरि/दृष्टि), सँ,
सब किछु मे आत्माक दर्शन आ आत्मा मे सब किछु केर दर्शन करैत अछि;
ओ मनुष्य जे:
सब किछु मे ‘हमरे’ देखैत अछि, आ,
‘हमरे’ मे सब किछु केँ देखैत अछि;
ओ कदापि न हमरा सँ अलग भऽ सकैत अछि,
नहिये हम ओकरा सँ अलग भऽ सकैत छी;
ओ मनुष्य जे:
एकत्वभाव मे रहैत,
सब किछु मे अवस्थित ‘हमरे’ टा भजैत (जपैत, सुमिरैत, गोहारैत) अछि,
ओकर वर्तमान ‘जीवनक कोनो भी रूप’ हो,
ओ “योगी” स्वयं “हमरा” मे निवास करैत अछि।
याद रहय, सुख आ दु:ख द्वंद्व थिकैक। पहिल शर्त ‘समदृष्टि’ छैक। योग सँ युक्त बनबाक लेल सेहो यैह अवस्था तक पहुचबाक छैक। ‘समदृष्टि’ सँ अहाँ हरेक जीव – हरेक निर्जीव – हर भूत मे ‘भूतभावन भगवान्’ केँ देखि सकब। अल्लाह आ ईश्वर केर अलग-अलग स्वरूप या विभिन्न मूर्ति आ नाम मे एकमात्र ‘भगवान्’ केँ देखय लेल सेहो द्वंद्व सँ मुक्त बनहे टा पडत।
एक बेर जँ कोनो पैघ लोक संग क्षणिक दर्शन होइत अछि तऽ मोन कतेक आनन्दित होइत अछि, कतेक बेर ओहि बातक चर्चा हमरा लोकनि अपन इष्ट-मित्र-परिचित संग सब ठाम करैत रहैत छी। कनेक विचारू! सदिखन जँ भगवान् अहाँक संग रहैथ, ओ अहाँ सँ अलग कदापि हेबे नहि करैथ, तखन अहाँक आनन्दक सीमा कतय रहत!!
फल्लाँ बाबु!! ताहि आनन्द ओ परमानन्द लेल एकमात्र शर्त छैक “सब किछु मे हुनके देखू, हुनके मे सब किछु केँ देखू!”
हे दीनानाथ!! हे दिगम्बर!! हे विश्वंभर!! हम दोसर केकरा सुमिरू जखन ई बुझैत छियैक जे ‘सबहक मालिक आ शरणागतवत्सल’ अहीं टा छी।
हम नहि जायब केकरो दरबज्जा….
यौ! हम नहि जायब केकरो दरबज्जा!!
किनको न कियो पहिचानी!
बिहुँसि कय दर्शन दियऽ दीन-दानी!!
हरि: हर:!!