यद्ददाति विशिष्टेभ्यो यच्चाश्नाति दिने दिने।
तच्च वित्तमहं मन्ये शेषं कस्यापि रक्षति॥
जे विशिष्ट सत्पात्र केँ दान दैत अछि और जे किछु अपन भोजन-आच्छादनमे प्रतिदिन व्यवहृत करैत अछि, ओकरे हम ओहि व्यक्तिक वास्तविक धन या सम्पत्ति मानैत छी, अन्यथा शेष सम्पत्ति तँ केकरो आरक थीक, जेकर ओ मात्र रखवारि टा करैत अछि।
यद्ददाति यदश्नाति तदेव धनिनो धनम्।
अन्ये मृतस्य क्रीडन्ति दारैरपि धनैरपि॥
दान मे जे किछु दैत अछि आर जतबा टा केर ओ स्वयं उपभोग करैत अछि, वैह टा ओहि धनी व्यक्तिक अपन धन थीक। अन्यथा मैर गेलापरओहि व्यक्तिक स्त्री, धन आदि वस्तु सबसँ दोसरे लोक आनन्द मनबैत अछि अर्थात् मौज उड़बैत अछि। तात्पर्य यैह अछि जे सावधानीपूर्वक अपन धन-सम्पत्ति केँ दान आदि सत्कर्म मे व्यय करबाक चाही।
किं धनेन करिष्यन्ति देहिनोऽपि गतायुषः।
यद्वर्धयितुमिच्छन्तस्तच्छरीरमशाश्वतम्॥
जखन आयुक एक दिन अन्त निश्चित छैक तऽ फेर धन केँ बढाकय ओकरा रखबाक इच्छा करब मूर्खता तऽ छी, ओ धन व्यर्थे तऽ अछि, कियैक तँ जाहि शरीरक रक्षाक लेल धन बढेबाक उपक्रम कैल जाइत अछि – ओ शरीरे अस्थिर छैक, नश्वर छैक, तैँ धर्मक मात्र वृद्धि करबाक चाही, धनक नहि। धन द्वारा दान आदि करबा सँ धर्मक वृद्धि केर उपक्रम करबाक चाही, निरन्तर धन बढेला सँ कोनो लाभ नहि।
अशाश्वतानि गात्राणि विभवो नैव शाश्वतः।
नित्यं संनिहितो मृत्यु कर्तव्यो धर्मसंग्रहः॥
शरीरधारी केर शरीर नश्वर छैक और धन सेहो सदा साथ रहऽवाला नहि छैक; संगहि मृत्यु सेहो नजदीके माथहि पर बैसल छैक – एना बुझिकय प्रतिक्षण धर्मक संग्रह – धर्माचरण टा करबाक चाही; कियैक तँ कालक कोन ठीक कखन आबि जाय, तैँ अपन धन एवं समयक सदा सदुपयोग टा करबाक चाही।
यदि नाम न धर्माय न कामाय न कीर्तये।
यत् परित्यज्य गन्तव्यं तद्धनं किं न दीयते॥
जे धन धर्म, सुखभोग या यश – कोनो काजमे नहि आओत और जेकरा छोड़िकय एक दिन एतय सँ अवश्ये टा चलि जेबाक अछि, ओहि धन केँ दान आदि धर्म मे उपयोग कियैक नहि कैल जायत?
जीवन्ति जिवते यस्य विप्रा मित्राणि बान्धवाः।
जीवितं सफलं तस्य आत्मार्थे को न जीवति॥
जाहि व्यक्ति केर जीवन सँ ब्राह्मण, साधु-सन्त, मित्र, बन्धु-बान्धव आदि सब जिबैत अछि – जीवन धारण करैत अछि, वैह व्यक्तिक जीवन सार्थक छैक – सफल छैक; कियैक तऽ अपना लेल के नहि जिबैत अछि? पशु-पक्षी आदि क्षुद्र प्राणी सेहो जीवित रहिते अछि, तैँ स्वार्थी नहि बनिकय परोपकारी बनबाक चाही।
क्रिमयः किं न जीवन्ति भक्षयन्ति परस्परम्।
परलोकाविरोधेन यो जीवति स जीवति॥
कीड़ा-मकोड़ा सेहो एक-दोसराक भक्षण करिते कि जीवन धारण नहि करैछ? परन्तु ई जीवन प्रशंसनीय नहि अछि। परलोक लेल दान-धर्मपूर्वक जियल गेल जे जीवन अछि, वैह सच्चा जीवन थीक।
पशवोऽपि हि जीवन्ति केवलात्मोदरम्भरा:।
किं कायेन सुपुष्टेन बलिना चिरजीविनः॥
केवल अपन पेट केँ भरिकय पशु सेहो अपन जीवन धारण करित टा अछि। पुष्ट भऽ कय तथा बली बनि कयसेहो काफी लम्बा समय तक जिबैत अछि, धर्म नहि करैछ – एहेन निरर्थक जीवन सँ कोन लेना-देना! ओ तऽ पशुक समान टा जियब भेल।
ग्रासादर्धमपि ग्रासमर्थिभ्यः किं न दीयते।
इच्छानुरूपो विभवः कदा कस्य भविष्यति॥
अपन भोजनक ग्रास मे सँ सेहो आधा या चतुर्थ भाग आवश्यकतावाला या माँगयवाला केँ कियैक नहि दऽ देल जाइछ; कियैक तऽ इच्छानुसार धन तऽ कहियो केकरो प्राप्त होमयवाला नहि, अर्थात् एखन धरितक केकरो प्राप्त नहि भेलैक अछि आर नहिये आगू केकरो पास हेतैक। एना नहि सोचबाक चाही जे एतेक धन और आबि जायत तखन फेर हम दान-पुण्य करब। तैँ जतबे प्राप्त अछि, ओही मे संतोष करैत ओतबे सँ दान इत्यादि करैत सब धर्मक अभ्यास करबाक चाही।
शतेषु जायते शूरः सहस्रेषु च पण्डितः।
वक्ता शतसहस्रेषु दाता भवति वा न वा॥
शूरवीर व्यक्ति तँ सौ मे सँ खोजलोपर एकटा प्राप्त भऽ जायत, हजार मे खोजलापर एकटा विद्वान् व्यक्ति सेहो भेट जायत, एहि तरहें एक लाख मे सभापर नियन्त्रण करनिहार कोनो वक्ता सेहो प्राप्त भऽ जायत अछि, मुदा असली दाता खोजलोपर सेहो भेट जाय, ई निश्चयपूर्वक नहि कहल जा सकैछ, अर्थात् दानी व्यक्ति संसार मे सबसँ बेसी दुर्लभता सँ उपलब्ध होइछ।
न रणे विजयाच्छूरोऽध्ययनान्न च पण्डितः।
इन्द्रियाणां जये शूरो धर्मं चरति पण्डितः॥
शूरवीर वैह अछि जे वास्तव मे इन्द्रियपर विजय प्राप्त करैत अछि, युद्धमे विजय प्राप्त करनिहार असली शूरवीर नहि होइछ। मात्र शास्त्रक अध्ययन करयवाला ज्ञानी नहि होइछ, बल्कि तदनुकूल धर्माचरण करयवाला टा सच्चा ज्ञानी थीक।
सर्वेषामप्युपायानां दानं श्रेष्ठतमं मतम्।
सुदत्तेनेह भवति दानेनोभयलोकजित्॥
दान सब उपाय मे सर्वश्रेष्ठ अछि। यथोचित रीति सँ दान देला सँ मनुष्य दुनू लोक केँ जीत लैत अछि।
न सोऽस्ति राजन् दानेन वशगो यो न जायते।
दानेन वशगा देवा भवन्तीह सदा नृणाम॥
एहेन कियो नहि अछि, जो दानद्वारा वश मे नहि कैल जा सकय। दान सँ देवता सबसेहो सदाक लेल मनुष्य केर वश मे भऽ जाइत छथि।
दानमेवोपजीवन्ति प्रजाः सर्वा नृपोत्तम।
प्रियो हि दानवाँल्लोके सर्वस्यैवोपजायते॥
समूचा प्रजा दानकेर बलसँ टा पालित होइत अछि। दानी मनुष्य संसार मे सभक प्रिय बनि जाइत अछि।