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भगवान् श्रीराम केर दैनिक चर्याक स्वरूप: मानव जीवन लेल अनमोल संदेश

अनुवादित आलेख

लेखक: श्री कमल प्रसाद जी श्रीवास्तव

अनुवाद: प्रवीण नारायण चौधरी

ram-laxman-sita-inexile_372031357_nचतुर्मास केर विशेष अवसरपर हमरा लोकनि केँ सौभाग्य सँ श्री राम जी केर दैनिक चर्याक स्वरूपसँ शिक्षा पेबाक मौका भेटल अछि। आशा अछि जे हम सब एहि सँ समुचित लाभान्वित होयब।

भगवान्‌ श्रीराम अनन्त-कोटि-ब्रह्माण्ड-नायक परम पिता परमेश्वरक अवतार छलाह और धर्मक मर्यादा रखबाक लेल भारतभूमि अयोध्यामे राजा दशरथ केर घर पुत्ररूप मे अवतरित भेलाह। ओहि समय राक्षस केर वीभत्स रूप एतेक प्रचण्ड भऽ गेल जे ऋषि-मुनि, गोमाता एवं ब्राह्मणादिक जीवन संकट मे पड़ि गेल छल। जतय-जतय कोनो शास्त्र-विहित यज्ञ-कर्म आदि कैल जाइत छल, राक्षसगण ओकरा विध्वंस करबाक लेल सदिखन तत्पर रहैत छल। राक्षस केर राजा रावण भारत-भूमिपर अपन एकच्छत्र राज्य स्थापित करबाक लेल चारुकात जाल बिछा देने छल। देवता केर आग्रह आ अनुनय-विनयक फलस्वरूप भगवान्‌ स्वयं अपन सब अंश सहित राम, लक्ष्मण, भरत आर शत्रुघ्नक रूप मे अवतरित भेलाह।

भगवान्‌ श्रीराम केर आदर्श चरित्रक विवरण हम सब विभिन्न रामायण सँ प्राप्त करैत छी; एहिमे वाल्मीकीय रामायण, अध्यात्मरामायण तथा परम भक्त गोस्वामी तुलसीदासजीरचित श्रीरामचरितमानस प्रमुख अछि। एहि निबन्ध केर आधार जाहि मे मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान्‌ श्रीरामजी केर दिनचर्याक दिग्दर्शन कराओल गेल अछि, गोस्वामी तुलसीदासजीकृत रामचरितमानस अछि।

साधारण बालक जेकाँ बालकपन मे अपन छोट भाइ सब आर अन्य बाल-सखादि केर संग भगवान्‌ श्रीराम सरयू नदीक तटपर कन्दुकक्रीडा एवं अन्य खेल म एतेक मस्त रहैत छलाह जे ओ अपन खेबाक-पीबाक सुधि पर्यन्त बिसैर जाइत छलाह।

भोजन करत बोल जब राजा। नहिं आवत तजि बाल समाजा॥
कौसल्या जब बोलन जाई। ठुमुक ठुमुक प्रभु चलहिं पराई॥रा.च.मा. १/२०३/६-७॥

अपन भाइ लोकनिक संग वेद-पुराणक चर्चा करब, माता-पिता, गुरुक आज्ञानुसार प्रतिदिन दैनिक कार्यमे लागि जेनाय हुनक नित्य केर कार्यक्रम छल –

जेहि विधि सुखी होहिं पुर लोगा। करहिं कृपानिधि सोइ संजोगा॥
बेद पुरान सुनहिं मन लाई। आपु कहहिं अनुजन्ह समुझाई॥
प्रातकाल उठि कै रघुनाथा। मातु पिता गुरु नावहिं माथा॥
आयसु मागि करहिं पुर काजा। देखि चरित हरषइ मन राजा॥रा.च.मा. १/२०५/५-८॥

विश्वामित्र मुनिक यज्ञ केर रक्षा भगवान्‌ श्रीराम कोन तत्परता सँ केलनि आर राक्षस केर भय सँ हुनका कोना निर्भय केलनि, जखन हमरा लोकनि एहि सबहक झाँकी रामचरितमानस मे देखैत छी तऽ हुनकर वीरता, धीरता आ कार्य-तत्परताक दिशि हमरा लोकनिक ध्यना अनेरौ आकर्षित भऽ जाइत अछि और हुनका हम सब धर्मक परम आदर्श केर रूपमे दर्शन करैत छी।

प्रात कहा मुनि सन रघुराई। निर्भय जग्य करहु तुम्ह जाई॥
होम करन लागे मुनि झारी। आपु रहे मख कीं रखवारी॥
सुनि मारीच निसाचर क्रोही। लै सहाय धावा मुनिद्रोही॥
बिनु फर बान राम तेहि मारा। सत जोजन गा सागर पारा॥
पावक सर सुबाहु पुनि मारा। अनुज निसाचर कटकु सँघारा॥
मारि असुर द्विज निर्भयकारी। अस्तुति करहिं देव मुनि झारी॥
तहँ पुनि कछुक दिवस रघुराया। रहे कीन्हि बिप्रन्ह पर दाया॥
भगति हेतु बहु कथा पुराना॥ कहे बिप्र जद्यपि प्रभु जाना॥रा.च.मा. १/२१०/१-८॥

विश्वामित्र मुनि केर यज्ञक पूर्णाहुतिक पश्चात्‌ भगवान् श्रीराम और लक्ष्मणजी दुनु भाय मुनिक संग धनुषयज्ञ देखबाक लेल जनकपुर जाइत छथि। रास्ता मे गौतमऋषिक पत्नी अहल्याक, जे शापवश पत्थर भऽ गेल छलीह, तिनकर उद्धार प्रभु अपनहि चरणकमलकेर धूलकण स्पर्श सँ केलनि। भगवान्‌ श्रीराम आखिर पतितपावन जे छलाह।

जनकपुर मे गुरुक सेवा करब भगवान्‌ श्रीराम और लक्ष्मणजीक दैनिक कार्यक्रम छल। हुनक दिनचर्यामे भक्तवत्सलता, नम्रता एवं संकोचक सेहो स्थान रहैत छल। नगर-दर्शनक लेल जखन लक्ष्मणजीक हृदयमे विशेष लालसा जाग्रत होइत छलन्हि तखन भगवान्‌ श्रीराम गुरुजी विश्वामित्र मुनि सँ कोन तरहक संकोच आ विनय केर संग आज्ञा माँगैत छलाह, देखियौक –

लखन हृदयँ लालसा बिसेषी। जाइ जनकपुर आइअ देखी॥
प्रभु भय बहुरि मुनिहि सकुचाहीं। प्रगट न कहहिं मनहिं मुसुकाहीं॥
राम अनुज मन की गति जानी। भगत बछलता हियँ हुलसानी॥
परम बिनीत सकुचि मुसुकाई। बोले गुर अनुसासन पाई॥
नाथ लखनु पुरु देखन चहहीं। प्रभु सकोच डर प्रगट न कहहीं॥
जौं राउर आयसु मैं पावौं। नगर देखाइ तुरत लै आवौं॥
सुनि मुनीस कह बचन सप्रीती। कस न राम तुम्ह राखहु नीती॥

धरम सेतु पालक तुम्ह ताता। प्रेम बिबस सेवक सुखदाता॥रा.च.मा. १/२१८/१-८॥

नगर तथा धनुषयज्ञशाला देखैत-देखैत जखन देरी भऽ गेलनि तऽ भगवान्‌ श्रीराम केँ मनमे भय भेलनि जे कहीं ओम्हर गुरुजी कतहु अप्रसन्न नहि भऽ जाइथ। दुनु भाय शीघ्रे गुरुजीक पास वापस लौटि गेला।

सन्ध्याक समय सन्ध्यावन्दन और वेद, पुराण, इतिहासक चर्चा हुनकर दैनिक कार्यक्रम छल। कोन श्रद्धा, निष्ठा आ भक्तिसँ ओ गुरुजी केर सेवा करैत छलाह, तेकर झाँकी गोस्वामीजीक शब्दमे –

मुनिबर सयन कीन्हि तब जाई। लगे चरन चापन दो‍उ भाई॥
जिन्ह के चरन सरोरुह लागी। करत बिबिध जप जोग बिरागी॥
तेइ दोउ बंधु प्रेम जनु जीते। गुर पद कमल पलोटत प्रीते॥
बार बार मुनि अग्या दीन्ही। रघुबर जाइ सयन तब कीन्ही॥रा.च.मा. १/२२६/३-६॥

प्रातःकाल गुरुजीक जागय सँ पहिनहिये भगवान्‌ श्रीराम जागि जाइथ आ गुरुजी केर सेवामे लागि जाइथ।

सकल सौच करि जाइ नहाए। नित्य निबाहि मुनिहि सिर नाए॥
समय जानि गुर आयसु पाई। लेन प्रसून चले दो‍उ भाई॥रा.च.मा. १/२२७/१-२॥

भगवान्‌ श्रीराम धर्मक परम आदर्शस्वरूप छलाह और हुनकर मनमे एकटा सुन्दर प्रेमपूर्ण पछतावा तखन भेलनि जखन हुनका पता चललनि जे हुनकर राज्याभिषेकक तैयारी भऽ रहल छल। विश्व-इतिहास मे ई एकटा बेजोड़ उदाहरण छैक। ओ अपन हृदयक उद्‌गार प्रकट केलनि –

जनमें एक संग सब भाई। भोजन सयन केलि लरिकाई॥
करनबेध उपबीत बिआहा। संग संग सब भए उछाहा॥
बिमल बंस यहु अनुचित एकू। बंधु बिहाइ बड़ेहि अभिषेकू॥रा.च.मा. २/१०/५-७॥

मुदा जखन दोसर दिन वनवास भेटबाक सूचना भेटलनि तखन ओ कनिको ग्लानि नहि मानलाह; बल्कि परम प्रसन्नता भेलनि जे पिताक वचन केर रक्षाक लेल ओ चौदह वर्षक लेल वन जा रहला अछि। कालिदास रघुवंशमे एतय तक लिखलनि अछि जे वनवासक सूचना भेटलापर जखन लोक देखलक कि भगवान्‌ श्रीरामक चेहरापर कोनो तरहक शिकन नहि आयल तऽ ओ सब आश्चर्यचकित होइत हुनक दिव्य सुन्दर मुखमण्डल देखिते रहि गेला।

भगवान्‌ श्रीराम अपना आपकेँ बड़ पैघ भाग्यशाली बुझलनि और ओहि अवसरपर कहलनि –

सुनु जननी सोइ सुत बड़भागी। जो पितु मातु बचन अनुरागी॥
तनय मातु पितु तोषनिहारा। दुर्लभ जननि सकल संसारा॥रा. च. मा. २/४१/७-८॥

चित्रकूट मे वासक समय भगवान्‌ श्रीराम केर दिनचर्यामे ऋषि-मुनिक संग धर्मचर्चा एवं सत्संगक कार्यक्रम रहैत छल। ओ पत्नी और भ्राताकेँ सेहो सुखी रखबाक चेष्टा करैथ।

सीय लखन जेहि बिधि सुखु लहहीं। सोइ रघुनाथ करहिं सोइ कहहीं॥
कहहिं पुरातन कथा कहानी। सुनहिं लखनु सिय अति सुखु मानी॥राम.च.मा. २/१४१/१-२॥

वनवासकालमे ऋषि-मुनि सँ भेंटघाँट तथा राक्षस सबहक संहार प्रभु श्रीराम केर दिनचर्याक प्रधान अंग छल। पृथ्वी केँ राक्षस सँ रहित करबाक लेल ओ मुनि सबहक सोझाँ मे प्रतिज्ञा केलनि आ तेकर पालन अन्त धरि केलनि –

निसिचर हीन कर‍उँ महि भुज उठाइ पन कीन्ह।
सकल मुनिन्ह के आश्रमहि जाइ जाइ सुख दीन्ह॥राम.च.मा. ३/९॥

भगवान्‌ श्रीराम केर वन-गमनकालमे अनेक प्रसंग – जेना वाल्मीकिजी सँ भेंट, अत्रि सँ मिलन, शरभंग तथा सुतीक्ष्णजी सँ मुलाकात, अगस्त्यजी केर आश्रम मे प्रभुजी केर पदार्पण, जटायु केर उद्धार, शबरीजी सँ नवधा भक्ति केर वर्णन, सुग्रीव सँ मित्रता, बालिवध, लक्ष्मणजी केर संग सत्संग तथा नारद-राम-संवाद आदि अबैत अछि, जेकर माध्यम सँ हम सब भगवान्‌ श्रीरामजी केर दिनचर्या-सम्बन्धी अनेको बात बुझि पबैत छी और ओ हमरा लोकनिक जीवन केँ धर्म, ज्ञान, वैराग्य तथा भगवद्भक्ति केर दिशा मे अग्रसर करैत अछि।

सीताहरणक पश्चात्‌ प्रभु श्रीराम द्वारा किष्किन्धा मे पर्वतक शिखरपर वास केलनि और ओतय हुनकर दिनचर्याक प्रधानता रहल लक्ष्मणजीक संग सत्संग।

फटिक सिला अति सुभ्र सुहाई। सुख आसीन तहाँ बैठे द्वौ भाई॥
कहत अनुज सन कथा अनेका। भगति बिरति नृपनीति बिबेका॥रा.च.मा. ३/१३/६-७॥

रावण केँ वध करैत सीतासहित प्रभु लंकासँ अयोध्या लौटला। अयोध्यामे हुनकर दिनचर्याक झाँकी गोस्वामीजी केर शब्दमे –

प्रातकाल सरऊ करि मज्जन। बैठहिं सभाँ संग द्विज सज्जन॥
बेद पुरान बसिष्ठ बखानहिं। सुनहिं राम जद्यपि सब जानहिं॥
अनुजन्ह संजुत भोजन करहीं। देखि सकल जननीं सुख भरहीं॥रा.च.मा. ७/२६/१-३॥

प्रजापालन केर वास्ते भगवान्‌ विशेष सचेष्ट आ सतर्क रहैत छलाह। राजसभा मे सनकादि तथा नारद आदि ऋषि प्रतिदिन अबैत छलाह और हुनका सँ वेद-पुराण और इतिहासक चर्चा होइत छल। भगवान्‌ श्रीराम केर दिनचर्याक अन्तिम झाँकी हम सब अयोध्याक अमराईमे पबैत छी –

हरन सकल श्रम प्रभु श्रम पाई। गए जहाँ सीतर अवँराई॥
भरत दीन्ह निज बसन डसाई। बैठे प्रभु सेवहिं सब भाई॥
मारुतसुत तब मारुत करई। पुलक बपुष लोजन जल भरई॥रा.च.मा. ७/५०/५-७॥

धर्मकेर परम आदर्शस्वरूप भगवान्‌ श्रीराम केर दिनचर्या सँ हमरा सबकेँ एहेन प्रेरणा भेटैत अछि, जे जीवन केँ श्रद्धा, भक्ति आर पवित्र प्रेमक भावना सँ ओतप्रोत कय दैछ।

***

संपादकीय नोट:

मर्यादा पुरुषोत्तम कहेनिहार रामक दिनचर्या रामायण मे सर्वश्रेष्ठ तुलसीदासकृत रामचरितमानसक चौपाईक संग मनन केला सँ बैसले-बैसल गंगा-स्नानक फल भेटल, एहेन अन्तर्शक्ति उत्पन्न भऽ रहल अछि। देखल जाइछ जे सनातन सुजान महापुरुषक जीवनचर्या मे पवित्रता रहैत कूकाठी प्रवृत्ति सँ बिना प्रश्नक प्रश्न सब सेहो उठाकय लोक माथ पटपटबैत रहैत अछि। जखन कि अपनहि जीवन मे हजारों पटपटौनी लोक केँ लागल रहैत छैक, मुदा महापुरुषक पुरुषार्थ सँ किछु ग्रहण करबाक स्थान पर उनटे हुनका मे दोख निकालब आ तर्क-कूतर्क सँ अपना माथ केँ पटपटायब कतहु सँ जायज नहि अछि। ग्रहण नीक वस्तु कैल जाइछ। ऐँठार पर सेहो किछु अनाज फेकल रहैछ, मुदा ओकरा ग्रहण करबाक लेल मनुष्य योनि सँ जन्म लेल विवेकवान् तऽ एकदमे नहि करत, विभिन्न जीव-जन्तु लेल ओहो भोजन काजहि केर छैक। ई हम सब स्वयं निर्धारित करी जे मनुष्य योनि मे रहितो कोन श्रेणीक साधक छी। अस्तु!! हरि: हर:!!

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