स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
कविचन्द्र विरचित मिथिलाभाषा रामायण
उत्तरकाण्ड – सातम अध्याय
।चौपाइ।
अथ एक समय युधाजित नाम । आबि अयो|ध्या भरतक माम ॥
रघुनन्दन – आज्ञा काँ पाय । निजपुर लय गेल भरत लेआय ॥
महती सेना समर अभीति । गन्धर्व्वक नायक जन जीति ॥
नाम पुष्करावति जे धाम । पुष्कर भेला नृप तहिठाम ॥
तक्षशिलापुर मे पुन तक्ष । सुत दुहु नर – वर भरत समक्ष ॥
भरत कयल सुत – युग अभिषेक । बड़ धन धन्य पूर सविवेक ॥
अपने आबि अयोध्या भरत । रामचन्द्र – सेवा मे निरत ॥
पुन लक्ष्मण काँ कहलनि राम । पश्चिम देश करू सङ्ग्राम ॥
महामल्ल दुर्ज्जन जिति लेब । तनिक राज्य सुत दुनु काँ देब ॥
अङ्गद चित्रकेतु जनि नाम । उचित निवास देब दुइ ठाम ॥
कय अभिषेक शीघ्र पुनि आउ । हमरा छोड़ि अनत जनु जाउ ॥
जेहन रघूत्तम – आज्ञा – वचन । सत्वर लक्ष्मण कयल से रचन ॥
रघुनन्दन – पद – सेवा – निरत । बन्धु यहन दोसर के करत ॥
अथ एक समय राम महिपाल । पुर तापस बनि पहुँचल काल ॥
लक्ष्मण द्वारपाल तहिठाम । मुनि पुछलनि कत छथि नृप राम ॥
हमर आगमन ततय शुनाउ । प्रभु – रुचि पाबि ततय लय जाउ ॥
शुनि लक्ष्मण गेला तहिठाम । छल छथि देव – देव जत राम ॥
दर्शनेच्छ तापस एक द्वार । आयल छथि जेहन हो विचार ॥
हुनि मुनि काँ सादर लय आउ । वत्स ततय सत्वर अहँ जाउ ॥
तेज – पुञ्ज मुनि बनल विविक्त । अनलराशि उपमा घृत – सिक्त ॥
।दोहा।
दीप्यमान निज तेज सौँ, ओ देखल रघुवीर ।
मधुर मधुर कहलनि ततय, आशिष – वचन गभीर ॥
।चौपाइ।
बड़ स्वागत पूजन – विधि सकल । रामचन्द्र पूछल निर्व्विकल ॥
रघुवर दिव्यासन – आसीन । मुनि काँ पुछल वचन छलहीन ॥
अपने अयलहुँ एतय यदर्थ । बुझि उद्यम हम करू तदर्थ ॥
ओ कहलनि शुनु रघुवर भूप । कानहिँ कहब एकान्ते चूप ॥
शुनथि न जन पुन देख न नयन । शुनल वचन रह मानस शयन ॥
जौँ जन तेहि अन्तर हठ अयत । अपनैँक हाथ मरण तनि हयत ॥
यहन प्रतिज्ञा करु प्रतिपाल । तखन कहब अभिमत महिपाल ॥
लक्ष्मण काँ कहलनि रघुनाथ । द्वार सज्ज रहु असि लय हाथ ॥
एको व्यक्ति नहि आबय पाब । सम्प्रति पत्रादिक नहि लाब ॥
हठ सौँ जे करता सञ्चरण । हमरहि कर सौँ तनिकर मरण ॥
तखन कहल प्रभु अछि एकान्त । कहल जाय मुनि की वृत्तान्त ॥
रघुवर सौँ कहलनि सद्भाव । चलल जाय निज धामहिँ आब ॥
कालपुरुष हम तापस – रूप । अयलहुँ विधिक पठाओल भूप ॥
रण – दुर्ज्जय दशमौलिक मरण । धरणीभार कयल प्रभु हरण ॥
निज मर्य्यादा राखल जाय । विधिक कहल हम देल शुनाय ॥
रघुनन्दन कयलनि स्वीकार । यदपि सकल छल निज व्यवहार ॥
।सोरठा।
दुर्व्वासा तहिकाल, कालक प्रेरित प्राप्त तहँ ।
के बुझ कोप विशाल, लक्ष्मणकाँ कहलनि यहन ॥
।चौपाइ।
लक्ष्मण सत्वर नृपतट जाउ । रामभद्र सौँ भेँट कराउ ॥
से पुन उत्तर देल शुनाय । क्षण भरि क्षमा कयल मुनि जाय ॥
रामचन्द्र सौँ कहु की काज । से सम्पन्न करब हम आज ॥
राजा कार्य्यान्तर – आरूढ़ । के बुझ नृपतिक आशय गूढ़ ॥
केओ सम्प्रति नहि करय प्रवेश । श्रीरघुनन्दन नियम निदेश ॥
नृप – आज्ञाक करब नहि भङ्ग । के हो हठ सौँ अनल – पतङ्ग ॥
से शुनि मुनि काँ बाढ़ल कोप । काल करय न ककर मति – लोप ॥
हमर अवज्ञा नृपतिक द्वार । मुनिजन काँ थिक अधिक अभार ॥
जौँ नहि कहल करब ई काज । कतय महीपति कत ई राज ॥
परिजन – सहित भस्म कय देब । नृपतिक द्वार अनादर लेब ॥
शुनि मन लक्ष्मण कयल विचार । बड़ सङ्कट पड़ल व्यवहार ॥
जौँ जायब छूटत ई लोक । कालक दण्ड ककर बुत रोक ॥
नहि जायब तौँ निकट अनर्थ । कालक निकट यतन हो व्यर्थ ॥
एक हमर जौँ होयत नाश । रघुनन्दन रहता निस्त्रास ॥
प्रजालोक आनन्दित रहत । अपयश पाप हमर नहि कहत ॥
यहन विचारि राम – नृप – वास । कयल प्रवेश कहल निस्त्रास ॥
सावधान प्रभु परमोदार । आयल छथि दुर्व्वासा द्वार ॥
काल विसर्ज्जन मुनिक प्रणाम । शुनितहिँ जाय कयल प्रभु राम ॥
कि करब टहल कहल मुनि जाय । मुनि – सत्कार गृही काँ न्याय ॥
।दोहा।
कहल उपासल छलहुँ हम, शुनु नृप वर्ष हजार ॥
सिद्ध अन्न भोजन करब, मानस मुख्य विचार ॥
।चौपाइ।
कहयित कथा पाक सम्पन्न । भोजन कयल अमृत सन अन्न ॥
मुनि सन्तुष्ट गेला निजधाम । स्मरण कयल आज्ञा से राम ॥
चिन्ता दुःख कहल की जाय । हा हत हा हत लक्ष्मण भाय ॥
स्नेह प्रतिज्ञा दुख मन व्याप । विह्वल विकल रहथि चुपचाप ॥
से देखि लक्ष्मण जोड़ल हाथ । चिन्ता तेजल जाय रघुनाथ ॥
कालक गति के रोकय पार । तत्त्वविचार वृथा संसार ॥
प्रभुक निदेश वृथा भय जाय । घोर नरक हमरा तन पाय ॥
हमरा विषय नाथ जौँ प्रीति । पालन कयल जाय नृप – नीति ॥
हमर विचार उचित यहिठाम । पालन कयल जाय नहि साम ॥
करु निश्शङ्क हमर परित्याग । नीति नृपति काँ दोष न लाग ॥
लक्ष्मण – वचन शुनल रघुवीर । चिन्तातुर मानस नहि थीर ॥
सभ मन्त्री काँ लेल बजाय । गुरु वसिष्ठ काँ पूछल न्याय ॥
काल – यतीक व्यवस्था – सार । दुर्व्वासाक ततय सञ्चार ॥
अपन प्रतिज्ञा कथा समग्र । लक्ष्मण – प्रीति नीति मन व्यग्र ॥
शुनि प्रभु-वचन सचिव गुरु सकल । कहल विचारक वचन अविकल ॥
कयल धराक भार सभ हरण । जायत अपन धाम ई चरण ॥
धर्म्म – प्रतिज्ञा राखल जाय । लक्ष्मण त्याग सकल मत न्याय ॥
शुनलनि अर्थ धर्म्मयुत सार । रामचन्द्र मन ठीक विचार ॥
लक्ष्मण काँ कहलनि प्रभु सैह । करु गय धर्म्म – व्यवस्था जैह ॥
परित्याग बध एक समान । सज्जन काँ कह धर्म्म प्रधान ॥
।दोहा।
शुनि लक्ष्मण रघुनाथ – पद, कयलनि विनत प्रणाम ।
दुःख शोक सौँ भरल से, गेला सत्वर धाम ॥
।सोरठा।
से सरयूतट जाय, कयल आचमन शुद्ध-मन ।
दृढ़ आसन सम काय, नव द्वार संयमित कय ॥
मस्तक पवन चढ़ाय, ध्यान निरन्तर ध्येय-पद ।
देखि देव – समुदाय, सुमन वृष्टि कय स्तुति करथि ॥
लक्ष्मण काँ निजधाम, शचीकान्त लय जाय तहँ ।
विष्णु – अंश अभिराम, जानि करथि पूजा तनिक ॥
।इति।
हरिः हरः!!