स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
कविचन्द्र विरचित मिथिलाभाषा रामायण
उत्तरकाण्ड – छठम अध्याय
।जयकरी छन्द।
काज न करब एक अगुताय । ई देल मुनि वाल्मीकि शिखाय ॥
रामचन्द्र बड़ गोट महराज । आयल छी अहँ तनिक समाज ॥
शुनता जखना अहँ मुह गीति । बाढ़त तनिकाँ अहँ मे प्रीति ॥
अनतय गायब पड़तनि कान । होयता बड़ प्रसन्न भगवान ॥
शुनता सभामध्य मँगबाय । गायब गीत चरित – समुदाय ॥
ओ सन्तुष्ट देता धन ढेरि । ग्रहण न अहाँ करब तहि बेरि ॥
बाहर बाहर कुश – लव – गान । रामचन्द्र काँ पड़लनि कान ॥
मन दय शुनल तनिक प्रभु गान । त्यागल मन प्रवृत्ति सुख आन ॥
पाठ अपूर्व्व जाति भल छन्द । गेय – समन्वित कर आनन्द ॥
प्रभु – मन भेल शुनब हम गान । करब सदस – दश मे सन्मान ॥
अथ प्रभु काँ कर्म्मान्तर काज । सभा बजाओल राजसमाज ॥
मुनि पण्डित पटुतर प्राचीन । पौराणिक संशय सौँ हीन ॥
सकल – शास्त्र – वेत्ता जन अयल । निज जन सहित सभा प्रभु कयल ॥
कुश लव गायन काँ अनबाय । स्वागत – सहित विहित जे न्याय ॥
कुश लव छथि देखल तहिठाम । अनिमिष – लोचन भेला राम ॥
सभा परस्पर सभ जन बाज । गायन – तुल्य रूप महराज ॥
वल्कलि जटिल न रहितथि बाल । तौँ समतूल राम महिपाल ॥
राघव सौँ नहि बुझि पड़ आन । कथा करथि सभ कानहिँ कान ॥
।सोरठा।
कुश लव कयलनि गान, मधुर मधुरतर शुद्धस्वर ।
शुन गान्धर्व्व जे कान, साधु साधु कह सभ्य सभ ॥
यहन शुनल नहि साम, सकल सभा मन-हरण धुनि ।
कहल भरत काँ राम, देबक हिनकाँ अयुत धन ॥
।चौपाइ।
जखन सुवर्ण देबय लगलाह । कुश लव तखनहि कहि चललाह ॥
हम वन बसी कन्द फल खाइ । धनसङ्ग्रह सपनहुँ नहि जाइ ॥
ई कहि मुनि – सन्निधि संप्राप्त । रामचन्द्र – मन विस्मय व्याप्त ॥
बुझलनि वैदेहीक कुमार । पुरुष आन के यहन उदार ॥
कहलनि प्रभु शत्रुघ्न बुझाय । हिनकाँ सभ काँ लाउ बजाय ॥
जनिकर जनिक कहै छी नाम । सत्वर आबथु सभ यहिठाम ॥
।सवैया छन्द।
मारुत – पुत्र सुषेण विभीषण, अङ्गद वालमीकि बजबाउ ।
सीता-सहित रहित दुर्ज्जन सौँ, वैदेही सौँ शपथ कराउ ॥
रामक उक्ति कहल सभजन काँ, कहलनि मुनि पुनि शुनिकेँ नीक ।
प्रातहि शपथ करथि महि-तनया, न्याय नृपति काँ उचिते थीक ॥
।पादाकुल दोहा।
नारी सभ काँ परमदेव पति, गति नहि तनिकाँ आन ।
मुनि-रघुवर-संवाद सकल जन, शुनलनि कानहिँ कान ॥
।चौपाइ।
कहलनि रघुवर काँ मुनिराज । करती सीता शपथ जे आज ॥
सकल शुभाशुभ जानथु लोक । देखथु आबि रोक नहि टोक ॥
मिथ्या जन अपवाद लगाब । पापक रुचि जनु मन निधि पाब ॥
ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्यक जाति । देखय आयल शूद्र जमाति ॥
अयला ततय महर्षि अनेक । वानर – वृन्द सुभक्ति विवेक ॥
मुनि वाल्मीकि शीघ्र अयलाह । वैदेही काँ सङ्ग लयलाह ॥
चललि अधोमुखि मुनि चल आगु । गदगदकण्ठ सती भय त्यागु ॥
लक्ष्मी सनि अयली मख ताहि । साधुवाद बाढ़ल धुनि जाहि ॥
सीता काँ वाल्मीकि विचारि । सती – शिरोमणि समुचित न्याय ॥
कहलनि मुनि वाल्मीकि विचारि । सती शिरोमणि सीता नारि ॥
त्यागल पर – अपवादक भीति । अहह रघूत्तम कयल अनीति ॥
हमरा आश्रम छलनि निवास । पति – व्रत – रत मन छलि निस्त्रास ॥
ई कुश लव छथि अहँक किशोर । शुनथि रघूत्तम बह दृग नोर ॥
यमल जात एक तरहक गात । जेहने अपनैँ हिनकर तात ॥
वरुणक हम छी दशम कुमार । शपथ करै छी बारंबार ॥
तप – फल हमरा आब न काज । जौँ दुष्टा सीता महराज ॥
शुनि मुनि – वचन कहल पुनि राम । दृढ़ प्रतीति हमरहु एहिठाम ॥
अपनेक वचन शुनल हम कान । एहि सौँ प्रत्यय अछि की आन ॥
पूर्व्वहुँ सीता लङ्का – देश । जनित प्रतीति अनल – परवेश ॥
साधुवाद सुरगण – मुख शून । निज घर आनू सीता पून ॥
क्षमा करब मुनि नृपता दोष । त्यागल सती – शिरोमणि रोष ॥
थकथि कुशीलव हमरे तनय । कयल बहुत हम साहस अनय ॥
ब्रह्मा इन्द्र देवगण सकल । देखथि राम – चरित निर्व्विकल ॥
प्रजा सकल मन नव सुख – सृष्टि । त्यागल राम आज दुर्दृष्टि ॥
।सारवती छन्द।
आइलि जानकि देवसभा, श्रीमति चम्पक हेमानभा ॥
आनत वारिज – श्री-वदना, प्राञ्जलि भाष जगत्सदना ॥
।मिथिलासङ्गीतानुसारि मालीछन्द।
शुनु शुनु सकल सदस्य सत्यकरणी ।
शपथ करै छी आज रघुवर – घरणी ॥
मनसौँ आनक चिन्तना नहि कयलहुँ ।
रघुवर – पति – आश सर्व्व – शोक – हरणी ॥
सत्य पतिव्रत जौँ तनय दुहु प्रभुहिक ।
हमरा विवर देती माता देवी धरणी ॥
खल – उपहास – तम – शमन उदित भेल ।
सज्जन-मानस-कञ्च – बोध सत्य-तरणी ॥
।सवैया छन्द।
फणिपति – फणपर सिंहासन-वर, तेहि ऊपर भूदेवि विराज ।
धरणी – विवर उपर जन देखल, बड़ अद्भुत मन मानल काज ॥
पुत्रि पुत्रि कहि कहि सीता काँ, ओ लेल अङ्क अपन आरोपि ।
गेलि पाताल सहित फणिपतिसौँ, विवर मृत्तिकासौँ दय थोपि ॥
।चौपाइ।
कयल अमरगण सुमनक वृष्टि । उठि गेल महि सौँ सीता – सृष्टि ॥
सतीशिरोमणि एहनि के आन । धन्या कहि कहि कर जन ध्यान ॥
सीता – गुण – गण सब जन गाब । रघुनन्दन – मन चिन्ता आब ॥
प्रभुक स्रवित लोचन मुख ताकि । बाँचथि राम सभहि मन चाँकि ॥
मारुतसुत स्वामिनि कहि कान । सभ सौँ हा हत विधि बलवान ॥
रामचन्द्र मूर्छित खसलाह । शोक – समुद्र विवश भसलाह ॥
रघुवर निकट विकल जन आब । कनइत प्रभु प्रभु कहथि जगाब ॥
क्षण मे भय गेल आनक आन । जगलहुँ अनमन सन भगवान ॥
करुण कलाप अश्व – क्रतु छन्न । विहित यज्ञविधि भय गेल बन्न ॥
ऋषि ब्राह्मणगण बहुत बुझाब । नहि प्रभु उचित शोक – प्रस्ताव ॥
विद्यमान छथि युगल – कुमार । कनइत छथि करु नयन उघार ॥
नहि उन्मीलित होयत आँखि । विश्व सवन गिरि शक के राखि ॥
प्रभु पुन सजल उघारल आँखि । हा वैदेही सति सति भाखि ॥
क्षमा कयल अहँ कत अपराध । अनुचित वचन कहल नहि आध ॥
अहँक वियोग सहब नहि आब । मुख सुख कानन शोकज दाव ॥
सहा न सहल अवज्ञा आज । देखल कर्म्म होइछ मन लाज ॥
छल अधीन मे दिव्य विभूति । ततहु चलल खल जन छल जूति ॥
बन्धुक वचन धयल नहि कान । राजा घर मे दैव प्रधान ॥
जे छल मखविधि शेष सुकाज । कयल पूर रघुवर महराज ॥
ऋत्विक मुनि काँ कयल विदाय । धनरत्नादि – तुष्ट समुदाय ॥
।तिरहुति गीत।
कत हम कहब हुनक गुण, हा पुन पुन,
भय गेल हमर विषय शुन ॥
खलक वचन शुनि वन देल, की मन भेल,
रमणि परशमणि कत गेल ॥
एत छति जौँ हम जनितहुँ, की मनितहुँ,
अरजि अरजि दुख कनितहुँ ॥
लगइत छल गृह गृहसन, विधि परसन,
दुर्लभ पुन हुनि दरशन ॥
गुणवति रमणि बिसरलनि, दुख पड़लनि,
उचित धरणि धनि हरलनि ॥
आब कि हम सुख पायब, कत जायब,
चिन्तित जनम गमायब ॥
करब न हम नृपतिक सुख, बड़ मन दुख,
कत विधु कत जानकि – मुख ॥
धरणी – गर्भ चलक बेरि, ई मुख हेरि,
कयल प्रणाम बहुत बेरि ॥
सुखित सतत ओ रहतीह, दुख कहतीह,
सर्वसहा सनि सहतीह ॥
हमहिँ वियोग-विकल मन, नहि सुख छन,
विफल बुखल मन जन धन ॥
रहितहुँ सुखित मिलित लोक, की सुरलोक,
विधि लिखल केँ जन रोक ॥
।दोबय छन्द।
पामर सङ्ग बसि बसि हँसि हँसि, हम कयल उचित नहि कर्म्म रे ।
वैदेही सनि वनिता त्यागल, नहि क्षति गुनल अधर्म्म रे ॥
बड़ अपराध कयल हम हुनकर, नहि हो महि सौँ माँगि रे ।
वैदेहीक वियोग जन्म भरि, रहल हृदय मे साँगि रे ॥
हा कत तेहन वदन हम देखब, कतय हुनक सन आँखि रे ।
कतय शुनब ओ मधुर वचन हम, धिक धिक जीवन राखि रे ॥
कत गोट क्षमा क्षमा-तनयाकाँ, कयल मनहुँ नहि कोप रे ।
आब आब सद्भाव चित्त मे, भेल मनोरथ लोप रे ॥
।चौपाइ।
कयलनि यज्ञक्रियाक समाप्त । सीता – शोक हृदय दुख व्याप्त ॥
चलला विमन अपन पुर राम । कुश लव सङ्ग लेल तहिठाम ॥
सुखनिवास मे सुख नहि आब । चिन्तित सतत विकल पछताब ॥
अयला राम धाम गत – राम । कयलनि तनय सहित विसराम ॥
पौषक शर सन रघुवर – सद्म । तन भय कर थर थर गतपद्म ॥
रहथि रहस्य विषय परित्याग । ब्रह्मज्ञान ध्यान मन लाग ॥
कौशल्या गेली तहिठाम । नारायण बुझि कयल प्रणाम ॥
प्रभु परमेश्वर कहू कतेक । अपनैँ पुत्र पुण्य – अतिरेक ॥
आयल समय आयु – अवसान । कहल जाय भव – नाशन ज्ञान ॥
शुनि दयालु कहलनि शुनु माय । पूर्व्व तीन पथ देल शुनाय ॥
कर्म्म ज्ञान पुन भक्ति सुयोग । तेसर सुलभ शमन भव – रोग ॥
हिंसा दम्भादिक उद्देश । भेद – दृष्टि छथि सेवक वेश ॥
से तामस जन हमर कहाब । गुण – कृत हुनकर उचित स्वभाव ॥
चाहथि फलभोगक अभिलाष । धन यश काम सतत मन राख ॥
प्रतिमादिक मे पूजन करथि । राजस भक्त नाम अनुसरथि ॥
परमेश्वर मे अर्प्पित कर्म्म । कर्म्मक्षय हो पाबी शर्म्म ॥
करथि भेदमति थिक कर्त्तव्य । सात्त्विक भक्त नाम धर्त्तव्य ॥
एहि सौँ योग देब की आन । भक्ति – पथक छथि योग प्रधान ॥
गुणातीत भय हमरहि पाब । सतत कामना – हीन स्वभाव ॥
कर्म्मयोग थिक परम प्रशस्त । हिंसा दोषादिक हो अस्त ॥
।हरिपद छन्द।
हम अनन्तगुण – आलय मे जनि, मनोवृत्ति दृढ़ जाय ।
गुणगण शुनि शुनि जनि सुरसरि-जल, सागर मध्य समाय ॥
निर्गुण भक्ति योग – लक्षण से, भक्ति अहेतु विचरथि ।
सालोक्यादिक मुक्तिहुँ काँ जे, देलहुँ ग्रहण न करथि ॥
दर्शन हमर कथन गुण पूजन, मति वन्दन जन भक्त ।
सकल भूत मे हमर भावना, सङ्ग असक्त विरक्त ॥
सभहिक मान दीन – अनुकम्पा, मैत्री सौँ सभ अपनैँ ।
सय्यँम नियम शील सन्तोषित, सन्मर्य्यादा थपनैँ ॥
श्रवण करथि वेदान्त-सुवाक्यक, कीर्त्तन हमरा नामक ।
ऋजुता सौँ सतसङ्ग निरन्तर, त्याग अहम्मति – गामक ॥
हमरा धर्म्मक अनुरत गुणगण, श्रवण करति नित कान ।
जेहन वायुवश गन्ध निजाश्रय, नासायुग मे आन ॥
सकल भूत मे रहथि व्यवस्थित, आत्मा केवल जान ।
योगाभ्यास चित्त निर्म्मल हो, अनुभव दृढ़ विज्ञान ॥
एहि सौँ आन सकल पूजादिक, बाहर बाहर जानब ।
क्रिया-जनित कत भेद द्रव्य सौँ, हमरे तोषण मानब ॥
तावत प्रतिमादिक पूजा मे, स्थिति कल्याण निमित्त ।
यावत सकल एक आत्मा मे, भासित हो नहि चित्त ॥
जनिकाँ भेदबुद्धि होइछ मन, मरणक तनिकहि त्रास ।
हमरा एक – बुद्धि सौँ देखू, पूरत सभ मन – आश ॥
ईश्वर जीवन भेद नहि मानब, भक्ति ज्ञान शुभ योग ।
दुइ योगहु मे एक ग्रहण करु, पायब नहि दुखभोग ॥
सकल हृदिस्थित जननी हमरहि, पुत्रभाव करु मन मे ।
कौशल्या कुशला सति कयलनि, पड़लनि न भव-बन्धन मे ॥
।सोरठा।
शुनि शुनि तिनु जनि माय, पाय दिव्य उपदेश काँ ।
तन तजि तनवर पाय, जाय स्वर्ग्ग दशरथ मिललि ॥
।इति।
हरिः हरः!!