Search

कविचन्द्र विरचित मिथिलाभाषा रामायण – उत्तरकाण्ड – पाँचम अध्याय

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

कविचन्द्र विरचित मिथिलाभाषा रामायण

उत्तरकाण्ड – पाँचम अध्याय

।सोरठा।

नहि अछि ककरो काज, राजकाज मन्त्री करथु ।
अहँ रहु हमर समाज, लक्ष्मणकाँ रघुनाथ कह ॥

।तिरहुति।
।वियोगि मालव-छन्दः।
।गतप्रत्यागतबन्धोयम्।

कथक कथक नहि तट आब, जलज जलज मन वन दाव ।
कनक कनक सन मद कर, नयन नयन धनि मन पर ॥
करक करक कय बैसलहुँ, मनमँ मनमँ दुख पैसलहुँ ।
थिकथि थिकथि सति जेहनि, कहक कहक की तेहनि ॥

।दोबय छन्द।

अविकल भोग करू प्रारब्धक, करम लिखल परमान रे ।
के बुझ कोन छन देह सौँ जायत, चेतन अपन परान रे ॥
कालहिँ विनश अमर अमरावति, नभ ग्रहगण रवि चान रे ।
जाय सुमेरु प्रलय प्रलयानल, जल विनु उदधि महान रे ॥
विनशय धरणि कतय धरणीधर, विभु परिशेष न आन रे ।
क्षणिक देह मे नेह निरर्थक, दुख – कारण अभिमान रे ॥
परमेश्वर माया-रस – विलसित, नर पामर की जान रे ।
राम “चन्द्र” कह वृथा चिन्तना, करु ईश्वर – गुण – गान रे ॥

।दोबय योगिया छन्द।

ममता काँ परित्यागु, नहि तौँ दुर्ग्गति आगू ॥
यावत मलिन वासना रहती, तावत सुख नहि पयबे ।
शुद्ध – वासना – युक्त जखन मन, तखन अभय – पद जयबे ॥
रजो – रेत – संयोग गर्भ मे, इन्द्रजाल की भारी ।
सकल अवयव सहित चैतन्यक, बाहर बड़ व्यवहारी ॥
भव – सन्ताप – हरण परमेश्वर, व्यापक तन मे वासा ।
अपना मे अपनहिँ अपनायब, जायब गति निस्त्रासा ॥
राज्य दार सुत आदि देह हठ, किछु संयोग न रहते ।
क्षिति आदिक सङ्घात विलय मे, मृतक लोक जित कहते ॥
जनिकर जनम मरण नहि होइछ, निर्गुण ब्रह्म कहै छी ।
छथि अपरोक्ष मनन करु निश्चय, जौँ भवमोक्ष चहै छी ॥
तिल मे तेल दुग्ध मे घृत सन, भूत भूत विज्ञाने ।
मन सौँ मथन करू सुख पायब, विदित उपाय न आने ॥

।सोरठा।

लक्ष्मण जोड़ल हाथ, देव – देव करुणा – भवन ।
क्षमाशील रघुनाथ, आत्मज्ञान – विवेक कहु ॥
तखन देव रघुराज, कहल सकल छल रहित तत ।
लक्ष्मण – मन सभ काज, बनल विवेकी रहथि नित ॥

।रूपमाला छन्द।

मिहिर सन गत – तिमिर, रघुवर सतत शून्य – निवास ।
अन्यदोषाभीत कर धर तट, असीत विलास ॥
सरस सारस सन सलक्ष्मण, राज श्रीद्विजराज ।
चिरवन – प्रियवास – वनचर, लसित सतत समाज ॥

।चौपाइ।

मुनिगण बहुत विकल एक समय । लवणासुर सौँ अनुखन सभय ॥
यमुनातीर मुनिक आवास । मुनिवृत्तिहु मे बाढ़ल त्रास ॥
भार्गव च्यवन चलल अगुआय । मुनि असंख्य लेल सङ्ग लगाय ॥
राघव – दर्शन कार्य्य प्रधान । रघुनन्दन कयलनि सन्मान ॥
बड़ स्वागत पुछलनि की काज । सभ मुनिजन आयल छी आज ॥
ब्राह्मण हमर सतत छथि देव । हुनकर टहल करब यश लेब ॥
सभ मुनि कृपा कयल अछि आइ । आज्ञा पाबि टहल मे जाइ ॥
हम छी ब्राह्मण – सभहिक भृत्य । करबे करब कहब जे कृत्य ॥
शुनि मुनि वचन कहय लगलाह । लवणासुरक कर्म्म अधलाह ॥
कृतयुग मध्य दैत्य मधु नाम । सुर – द्विजगणक भक्त सभठाम ॥
तनिकाँ देलनि शम्भु त्रिशूल । होयता भस्म अनलवत तूल ॥
रावण – अनुजा भार्य्या तनिक । कुम्भीनसी नाम छल जनिक ॥
तनि सौँ लवणासुर उत्पन्न । मुनि – हिंसक यज्ञादिक बन्न ॥
अयलहुँ शरण अशक्य पड़ाय । प्रभु रघुनन्दन होउ सहाय ॥
ई सङ्कट हरत के आन । अयलहुँ शरण ताकि भगवान ॥

।दोहा।

कहलनि सत्य – प्रतिज्ञ प्रभु, मरत दुष्ट निर्भीक ।
नहि भय नहि भय सकल मुनि, लवणासुर की थीक ॥

।जयकरी छन्द।

मुनिजन काँ प्रभु कयल बिदाय । तखन कहल प्रबु शुनु सभ भाय ॥
के मारत गय असुर प्रचण्ड । के धर समर तीर कोदण्ड ॥

।दोहा।

भरत राम महिपाल सौँ, प्रणत सुवचन उचार ।
हम मारब खल लवण काँ, प्रभु – आज्ञा अनुसार ॥

।रूपमाला।

कहल तत शत्रुघ्न करयुग जोड़ि केँ तहिठाम ।
नाथ लक्ष्मण कयल बहु बेर असुर सौँ सङ्ग्राम ॥
भरत नन्दीग्राम मे कृश नियम – संयमवान ।
हमहिँ लवणासुरक हन्ता होयब हे भगवान ॥

।चौपाइ।

शुनि शत्रुघ्नक वचन गभीर । समुचित कहल देव रघुवीर ॥
तनिकाँ लेल अङ्क आरोपि । देल दिव्य शर रघुवर सोपि ॥
कहलनि यहिसौँ शत्रु विनाश । करु शत्रुघ्न लाब मन आश ॥
लक्ष्मण सौँ सम्भार अनेक । मँगबाओल कयलनि अभिषेक ॥
राजा भेलहुँ अहाँ मथुराक । सकल मनोहर धर्म्म – धुराक ॥
लवणासुरक विनाश – उपाय । जखना घर सौँ कानन जाय ॥
नाना जन्तु पकड़ि केँ खाय । के नहि तकरा डरय डराय ॥
तखनहिँ हुनकर रोकब द्वारि । धनुषबाणधर लेबनि मारि ॥
शङ्कर देल शूल घर धयल । लवणासुर हिंसापथ अयल ॥
जेहन रघूत्तम कहल उपाय । से शत्रुघ्न कयल विधि जाय ॥
आओत क्रुद्ध लड़त तनि मारि । मुनिजन – मनक कष्ट देब टारि ॥
ओ वन सुन्दर मधुवन नाम । ततहि करब अहँ सुन्दर धाम ॥
जायत घोड़ा पाँच हजार । तकर अर्द्ध रथ सहित सवार ॥
षटशत वारण वर सम्पत्ति । आओत तीनि अयुत तत पत्ति ॥
भ्राता काँ लेल हृदय लगाय । आशिष दय कहु कयल बिदाय ॥
जेहन रीति कहल छल राम । तेहने कयल जाय सङ्ग्राम ॥
मधुसुत काँ मारल सङ्ग्राम । मथुरा जनपद कयलनि धाम ॥
सीता जनमल सुत यमल । विधुमुख लोचन सौँ जित कमल ॥
मुनि – वनितागण सोहर गाब । हर्षक नोर नयन भरि आब ॥
तनिकर नामकरण मुनि कयल । कुश लव नाम क्रमहि सौँ धयल ॥
सीता – बालक युगल विनीत । भेला मुनिजन सौँ उपनीत ॥
क्रम क्रम विद्या पढ़लनि ढेरि । हो अभ्यास शुनथि एक बेर ॥
सीता – तनय रूप – गुण – अयन । विधि सौँ कयलनि वेदाध्ययन ॥
सकल रमायण देल पढ़ाय । मुनि वाल्मीकि सुप्रीति बढ़ाय ॥
स्वर – सम्पन्न सुयुगल कुमार । तन्त्रीलययुत गाब उदार ॥
वन चलयित मुनिजन जे शून । अति आश्चर्य्य मनहि मन गून ॥
वैदेही – सुत युगल समान । त्रिभुवन कतहु शुनल नहि गान ॥
मुनिजन शुनथि सहित अनुराग । समय समय गाबथि से राग ॥

।सोरठा।

प्रथमहिँ भैरव राग, मालकोश हिण्डोल पुन ।
श्रवण मनोहर लाग, दीपक श्री ओ मेघ षट ॥

।पादाकुल दोहा।

सुस्वर सरस सराग मधुरतर, सालङ्कार प्रमाण ।
स्वर पद छन्द सुताल सुलय युत, युगलकुमार कर गान ॥

।चौपाइ।

स ऋ ग म प ध नी ई स्वर सात । स्वर ‍- प्रस्तार वदन अवदात ॥
उच्च निषाद तथा गान्धार । नीच ऋषभ धैवत उच्चार ॥
स्वरित स्वर हो यहि सौँ आन । कुश लव शिव सुगीति काँ जान ॥
षड्ज स्वर रट मत्त मयूर । चातक रटय ऋषभ स्वर पूर ॥
अजा उचार करय गान्धार । मध्यम स्वर काँ क्रौञ्च उचार ॥
कोकिल पञ्चम स्वर कर गान । धैवत मण्डुक – वचन समान ॥
स्वर निषाद गर्ज्जित गजराज । राग कुशीलव – कण्ठसमाज ॥
हास्य शृङ्गार गीति शुभ बेरि । पञ्चम मध्यम स्वर काँ टेरि ॥
वीर रौद्र अद्भुत प्रस्ताव । षड्ज ऋषभ स्वर काँ से गाब ॥
गीति करुणरस रीति विषाद । स्वर गान्धार प्रचार निषाद ॥
गीत विभत्स भयानक जखन । धैवत स्वर उच्चारक तखन ॥
एकइश गोट मूर्छना नाम । बाइश श्रुति सम्मति तेहिठाम ॥
अथवा श्रुति कह चौदह गोटि । चौदह गोटि मूर्छना कोटि ॥
रामायण कर कुश लव गान । हरिण हजार शुनथि दय कान ॥
नहि तालक न राज अवमान । कुश लव कुशल सकल मत जान ॥
अथ एक समय राम महिपाल । अश्वमेध मख करथि विशाल ॥
विधि आरम्भ करय लगलाह । सकल निमन्त्रित मुनि चललाह ॥
कनकमयी सीता निर्म्माय । यज्ञ कयल जन देखय जाय ॥
ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्यक जाति । मन घन उत्सव चल दिन राति ॥
मुनि वाल्मीकि कयल प्रस्थान । कुश लव शिष्य सङ्ग भगवान ॥
ऋषि बाटक लग जखन गेलाह । सुमुनि समाधि – विरत भेलाह ॥
कुश पुछलनि गुरु काँ तत जाय । ज्ञात सकल गुरु – सेवा पाय ॥
देही काँ संसृति सौँ बन्ध । अथवा मुक्ति – युक्ति निर्द्धन्ध ॥
कहल जाय गुरु हमरा आज । सेवक शिष्य अनन्य समाज ॥
मुनि वाल्मीकि कहय लगलाह । दिव्य समाधि सुखी जगलाह ॥
थिकथि चिदात्मा सतत अदेह । देह दृष्ट ई तनिकर गेह ॥
मन्त्री थिकथि तिनक अभिमान । अपनहिँ तनिकाँ कयल प्रधान ॥
तन – तादात्म्य चलल विस्तार । दृढ़ संकल्प निगड़ व्यवहार ॥
पुत्र दार गृह आदि जतेक । सभ मे ममता बढ़ल अनेक ॥
कय सङ्कल्प करथि पुन शोच । संसृति नाना तरहक रोच ॥
उत्तम मध्यम अधम शरीर । सत्त्वरजस्तम सभ मे फीर ॥
तमोवृद्धि पर गुण हो ह्रास । कृमिकीटादिक होथि प्रकाश ॥
सत्त्व – रूप सङ्कल्प प्रधान । सद्‌व्यवहार विशुद्ध स्वभाव ॥
पुत्र दार धन सम्पत्ति पाब । रजोगुणैक नृपति बनि आब ॥
त्रिविध त्याग सङ्कल्प – विहीन । मन सौँ मनन न होयब दीन ॥
वर्ष सहस्र बहुत तप करब । सुख दुख चक्र सतत सञ्चरब ॥
रहथि पाँच मन ज्ञान समेत । मनि न विचेष्टा चलथि निकेत ॥
कहथि परम गति श्रुति – सिद्धान्त । तनिक नाम कहथि बुध शान्त ॥
जखन छुटत सङ्कल्पक जाल । जीव ब्रह्मता लह तत्काल ॥
कुश लव कुशल रहब सभ ठाम । वृत्त सुषुप्त चित्त विश्राम ॥

। इति।

हरिः हरः!!

Related Articles