स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
कविचन्द्र विरचित मिथिलाभाषा रामायण
उत्तरकाण्ड – चारिम अध्याय
।चौपाइ।
एक समय उन्मद लङ्केश । युद्धार्थी सञ्चर कत देश ॥
नारद मुनि सौँ दरशन पाबि । पुछलनि तनिकाँ तट मे आबि ॥
हमर समान कतय बलधाम । जत हम करब घोर सङ्ग्राम ॥
मुनि कहलनि अछि श्वेतद्वीप । पुष्पक – रथ पथ सकल समीप ॥
विष्णुभक्त वा तत्कर – मरण । श्वेतद्वीप तनिक हो शरण ॥
एहन सृष्टि नहि दोसर ठाम । जय सकी तौँ हो सङ्ग्राम ॥
शुनितहिँ रावण कयलनि गमन । हुनकर अनय करय के शमन ॥
पुष्पक चलनहि द्वीप समीप । उतरि चलल तत असुर – अधीप ॥
वनिता वृद्धा तनिकाँ धयल । पकड़ि घुमाओल दुर्गति कयल ॥
के तोँ थिका एतय की काज । ककर पठाओल कह नहि लाज ॥
दशकन्धर उत्तर नहि बाज । महा मनोदुख तनिक समाज ॥
बड़ अनुचित अयलहुँ एहिठाम । पाओल साहस – फल परिणाम ॥
जखना पाओल किछु अवकाश । गमहिँ पड़यला बड़ मन त्रास ॥
धिक अमरत्व कि गञ्जन ग्रस्त । दशमुख दुख – चिन्ता सौँ व्यस्त ॥
विष्णुक हाथ मरण से करब । नहि पुनि अमर – समर सञ्चरब ॥
तकरे हेतु दशानन जानि । सीता – हरण कयल हठ ठानि ॥
मातृ – बुद्धि ओ मन मे मानि । हुनि कर मरब असुरता हानि ॥
त्रिकालज्ञ प्रभु साक्षी राम । अन्त सकल विश्वक विश्राम ॥
स्तुति अगस्त्य मुनि बहुविध कयल । राम – सुपूजित निज पथ धयल ॥
सीतासङ्ग विषय – अनुरक्त । भासित बाहर चित्त विरक्त ॥
अनासक्त प्रभु कर गृह – काज । परमेश्वर लीला नर – व्याज ॥
रामचन्द्र काँ देलनि फेर । पुष्पक रथ पठबाय कुबेर ॥
पुष्पक रावण हरलनि जैह । तनिकाँ जीति छीनि लेल सैह ॥
यावत पृथिवी – स्थित प्रभु रहत । तावत पुष्पक अहँ काँ बहत ॥
पुष्पक काँ कहलनि रघुराज । अपनैँक जखन होयत गय काज ॥
स्मरण करब तखना हम अयब । अन्तर्हित रहु बड़ सुख पयब ॥
।सोरठा।
कार्य्य अमानुष राम, करथि नृपति सन्नीति-युग ।
नहि अनीति तहि ठाम, वसुधा शस्यमयी सतत ॥
रथ चढ़ि चढ़ि सभ देश, जाथि करथि सभ लोक सुख ।
ककरहु हो न क्लेश, हनुमदादि सेवक सतत ॥
।चौपाइ।
एक समय द्विज – तनयक मरण । ब्राह्मण कलुषित – अन्तष्करण ॥
धर्म्मक पालक श्री रघुनाथ । सकल वस्तु अछि अपनैँक हाथ ॥
हम निष्पाप कहल अछि आय । राजा – विषय पड़ल अन्याय ॥
पुत्र जिबथि तैँ होउ सहाय । विकल कहै छी करू उपाय ॥
लक्ष्मण रामक आज्ञा पाय । शूद्र एक वन देखल जाय ॥
विप्रक सन करइत आचरण । लक्ष्मण – कर तनिकर भेल मरण ॥
ब्राह्मण – बालक उठि बैसलाह । द्विज से धन्य कहाय लगलाह ॥
शिव – स्थापना कोटिक कयल । लोकाचारक सत्पथ धयल ॥
एक समय क्रीड़ा – आराम । सीता – सङ्ग नवल – घनश्याम ॥
कहल जानकी प्रभु किछु कहब । कत दिन महिमण्डल मे रहब ॥
देव देवगण कह कर जोड़ि । चलु वैकुण्ठ मर्त्यसुख छोड़ि ॥
बनि – मुनि – पत्नी काँ वसु देव । तनिकाँ सौँ हम आशिष लेब ॥
होइछ मन वन देखी जाय । अबितहुँ गङ्गा तीर्थ नहाय ॥
जे रुचि हो से करु प्रभु काज । कयल बहुत दिन पृथिवी – राज ॥
अयलहुँ जे मन कय सङ्कल्प । तकरो समय रहल अछि अल्प ॥
सीता – वचन शुनल प्रभु कान । की कर्त्तव्य धयल प्रभु ध्यान ॥
।सोरठा।
कहइत छी एकान्त, करब लोक – अपवाद छल ।
जनइत छी वृत्तान्त, त्यागब अहँ काँ देब वन ॥
जनमत युगल कुमार, गर्भवती अहँ सौँ वनहिँ ।
होयत चरित उदार, शपथ करब अहँ आबि पुन ॥
भूमिक विवर समाय, जायब अहँ वैकुण्ठ पुन ।
किछु दिन हमहुँ गमाय, जानकि तत अयबे करब ॥
।पादाकुल दोहा।
।तिरहुति।
हास्यप्रौढ़ कथा पण्डित काँ, पुछलनि जखना राम ।
कथा प्रसङ्ग पुछल की कहइछ, ग्राम – लोक सभ ठाम ॥
माता सभ काँ वा सीता काँ, जे छथि हमरा भाय ।
लोक कहै अछि की से कहु कहु, हमर शपथ अहँ खाय ॥
विजय नाम एक हास्य-सभासद, कहलनि शुरु रघुनाथ ।
शपथ खाय हम सत्य कहै छी, करइत छी नहि लाथ ॥
सीता का वन सौँ दशकन्धर, हरि लय गेल निज धाम ।
से पुन पटरानी छथि सम्प्रति, केहन हृदय छथि राम ॥
धोबिनि रूसि गेल छलि घरसौँ, धोबि कहल खिसिआय ।
जेहने नृपति प्रजा-गति तेहनि, राजा कर से न्याय ॥
जन सभ चूप भूप रघुनन्दन, कहलनि सभ काँ जाय ।
नयन सजल लक्ष्मण काँ केवल, कहल रहस्य मंगाय ॥
लोकमध्य अपवाद शुनल अछि, सीता – कृत विस्तार ।
सीता त्याग करब हम सम्प्रति, हमरा चित्त विचार ॥
प्रातहि सीता रथ चढ़ाय अहँ, लक्ष्मण सत्वर जाउ ।
मुनि वाल्मीकिक आश्रम-वनमे, चित्रकूट पहुँचाउ ॥
जौँ अन्यथा करी तौँ हमरा, मारी अहँ तरुआरि ।
हा विधि-कृत हमरा छुटइत छथि, सीता साध्वी नारि ॥
।सोरठा।
रथलय प्रातहिँ जाय, लक्ष्मण सहित सुमन्त्र तहँ ।
प्रभु – अनुशासन पाय, वैदेही काँ कहल से ॥
।मणिगुण छन्द।
चढ़ु चढ़ु रघुवर – घरनि सुरथ मे ।
कहब सकल हम चलयित पथ मे ॥
हठ रथ चढ़लि प्रभुक रुचि मन लै ।
अनमनि सनि चललिह बिनु जनलैँ ॥
सुरसरि उतरि जइति मुनिवन मे ।
तखन प्रकट किछु लछमन मन मे ॥
बुझथि न प्रभुरुचि वर – छविसदना ।
पुछल तखन लछमन विधुवदना ॥
।लवङ्मम छन्द।
देवर जनु करु खेद नयन जलधार की ।
श्रीरघुवर – पद – कमल प्रेम – विस्तार की ॥
सत्वर घुरि घर चलब देखि मुनि – कामिनी ।
सुन्दर नव – घनश्याम थिकहुँ सौदामिनी ॥
जौँ जनितौँ हम एहन नाथ सङ्ग आनितौँ ।
नारि – सहित मुनिलोक सकल सन्मानितौँ ॥
जौँ कानब एहिठाम कहब अहँ भायकेँ ।
ओत सभ मिलि मिलि सभ्यमे रहब लजायकेँ ॥
।हंसी छन्द।
।तिरहुति देश।
हा वैदेही हा वैदेही, वचन कठिन मुखसौँ न किछु आबै ।
सीता साध्वरी धीरा हंसी, अहँक सुकृत सुर नर मुनि गाबै ॥
ओ राजा आज्ञा के टारै, विधिक लिखल छल जन न घटाबै ।
जे चाहै से से निर्व्वाहै, सुरपुर बस अथ नरक पठाबै ॥
।अभिराम अहीर छन्दः।
हा न हमर किछु दोष – जानकि – परिहरु मानस-रोष ।
शपथ देल रघुनाथ – जानकि – किछु न कयल हम लाथ ॥
की अपराध विचारि – जानकि – त्यागल गुणमति नारि ।
कत मन करब कठोर – जानकि – नयन सतत बह नोर ॥
हमरे गुरु अपराध – जानकि – आनल वन बनि व्याध ।
चललहुँ हम कय त्याग – जानकि – जाउ जतय मन लाग ॥
।चञ्चरी छन्द।
की करू कत जाउ हाय उपाय सूझ न नारि केँ ।
नाथ भास्कर – वंश – पङ्कज – भानु देलनि टारि केँ ॥
भेल की अपराध से कह लोक के वन आबि केँ ।
आढ्य की जन रङ्क की दुख भोग देह इ पाबि केँ ॥
।अमृतगति छन्द।
कहलनि जायक वन मे । रघुवर की गुनि मन मे ॥
झुकि झुकि ताकथि धरणी । बड़ दुख – सिन्धु न तरणी ॥
हम मन भेलहुँ विकला । गति थिक विश्वक चपला ॥
कहब न दूषण अनकाँ । सकल शुभाशुभ जनकाँ ॥
।विष्णुपद छन्द।
माय अवनि विष्णु – रमणि, वंश – तरणि शून्य – सरणि ।
हा मरब कष्ट तरब, शुष्क-वदनि साध्वि रमणि ॥
आश मनक नाश क्षणक, घोर वनक भीतिजनक ।
नेत्रकमल मेघ सजल, माँथ धुनथि “चन्द्र” भनथि ॥
।तिरहुति ललित विपरीत।
।हरिपद छन्द।
रघुवर बड़ महराजे, कयल उचित नहि सम्प्रति काजे ॥
हुनकर रमणि कहाये, दुखित बसब हम घन वन जाये ॥
हम कि कहब दुख – भारे, विधिक लिखल छल जन के टारे ॥
समय न छुटय समाजे, एखनहु धरि मन उपगत लाजे ॥
गर्भ – भरालस अङ्गे, नहि परिचारिणि जनि एक सङ्गे ॥
मरितौँ गरल हम खाये, होइत बड़ गोट कुल अन्याये ॥
आब बचत नहि प्राणे, रघुवर – हृदय कि भेल पषाणे ॥
यहन करत के आने, हित-जन-वचन न धयलनि काने ॥
कत दिन काटब कानी, कयल कुटिल जन बड़ मन-हानी ॥
भूपति होथि न मित्रे, शुनितहिँ छलहुँ से देखल चरित्रे ॥
।तिरहुति।
।पादाकुल दोहा छन्द।
करुणागार उदार प्राणपति, वन देल दोष लगाय रे ।
देवर – दोष विधिक हम की कहु, जनि घर धर्म्म न न्याय रे ॥
हमरहि हेतु दशानन मारल, कपिगण सङ्ग लगाय रे ।
तखन पतिव्रत हमर देखल सभ, अनल मे गेलहुँ समाय रे ॥
नैहर जौँ मिथिला चलि जायब, कहब बाप की माय रे ।
पुरुष-परशमणि – कर हम सोपल, अयली कि नाम हंसाय रे ॥
सिरिस सुमन बरु होयत अशनि सन, अशनि तेहन भय जाय रे ।
से बरु होय होथि नहि अकरुण, अहँ काँ बड़का भाय रे ॥
कि कहब कहय योगि नहि रहलहुँ, भेलहुँ सबहि काँ भार रे ॥
कतहु रहब जानकि जन कहते, श्रीरघुनन्दन – दार रे ॥
।वियोगि मालव छन्द।
रघुवर देल विपिन वास, ओ हुनि हास, नारि मरब हम वन त्रास ।
एकसरि नारि कतय जाउ, विष खाउ, विधि निर्दय कत गोहराउ ॥
रघुवर – मन कि निर्दय, देल एत कय, हमरहि भाग कि दुखचय ।
विधिहुक विधि ओ रघुराज, किछु के बाज, प्रभु छथि कयलनि भल काज ॥
।दोबय छन्द।
लक्ष्मण सीता काँ पुन कहलनि अपनैँ काँ की कहबे ।
सर्व्वसहा जननी छथि अपनैँक, कठिन कष्ट सभ सहबे ॥
ई आश्रम वाल्मीकि मुनिक थिक, गेलि जाय तत माता ।
दोष न हमर प्रणाम करै छी, साक्षी सकल विधाता ॥
।बरबा छन्द।
लक्ष्मण कहि घर चलला, घुरि नहि – ताक ।
पहुँचलाह रघुवर – तट, नहि मुख – वाक ॥
।रूपक चौपाइ।
जननि धरणि सनि रघुवर सन पति,
तिरहुति जनन सकल जन कह सति ।
हयत यहन गति छलहुँ कि जनइत,
जनम बितत विधि कनयित कनयित ॥
।चौपाइ।
आश्रम निकट एक जनि नारि । एहन के होइति भुवन दशचारि ॥
विकला कनयित छथि एहि ठाम । के थिकि के पुछ परिचय नाम ॥
शिष्य कहल मुनि कयलनि ध्यान । हुनकाँ सतत त्रिकालक ज्ञान ॥
मुनि वाल्मीकि कहल लय आउ । पूजा हुनकर सविधि कराउ ॥
थिकथि जानकी रघुवर – दार । जे हरलनि अछि अवनी – भार ॥
मुनि – पत्नी सह कयल निवास । नयन सजल मुख आब न हास ॥
बड़ आदर सभ कर नित आबि । किछु गुरु – कार्य्य एतय अछि भाबि ॥
मानस – ध्यान करथि मुनि जैह । बाहर सीता देखथि सैह ॥
देखि देखि सीता – व्यवहार । मुनि – पत्नी काँ प्रीति अपार ॥
कनयित देखथिनि करथिनि चूप । जनमत तनय होयत से भूप ॥
सोहर शुनब तनय – मुख हेरि । जन्म सुफल होयत से फेरि ॥
की घन सन दृग चुप कर बूढ़ि । सुता विदेहक होइछि मूढ़ि ॥
।सोरठा।
त्यागि देल सभ भोग, आदिदेव सीता – रहित ।
सतत ज्ञान की योग, अतिविरक्त मुनि-व्रत-निरत ॥
।इति।
हरिः हरः!!