महादेव केर न्याय – रामायणक प्रसंग

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

महादेवक न्याय

रामचरितमानस केर उत्तरकाण्ड मे एकटा बहुत महत्वपूर्ण प्रसंग आयल अछि । गरुड़जी श्रीराम केँ नागपाश मे बान्हल देखि श्रीरामक ऐश्वर्य प्रति भ्रमित भ’ जाइत छथि, महादेव सँ जिज्ञासा करैत छथि जे अपने हिनकहि नाम सदिखन जपैत रहैत छी या कोनो दोसर श्रीराम छथि । महादेव विहुँसिकय हुनका बुझबैत छथि, परञ्च श्रीरामक माया जिनका एक बेर घेरि लेलक ओ सहजहि दूर नहि होइत छैक । तेँ पूर्ण समाधानक वास्ते देवाधिदेव महादेव पक्षीराज गरुड़ जे स्वयं श्री हरिक वाहन थिकथि, हुनका श्रीहरिक श्रीराम रूप केर दर्शन एवं तत्त्व बुझबाक लेल काकभुशुण्डिजी लग पठा देलखिन । काकभुशुण्डि सँ श्रीराम केर कथा सुनि पक्षीराज बड़ा स्पष्ट भेलाह जे आखिर श्रीरामक वास्तविकता कि छलन्हि । तदोपरान्त पक्षीराज काकभुशुण्डि जीक काग (कौआ) रूप मे होयबाक विन्दु पर अतिशय मोह मे पड़ि गेलाह, आर हुनका सँ जिज्ञासा कय बैसलाह । ताहि क्रम मे काकभुशुण्डिजी द्वारा हुनका सम्पूर्ण कथा वृत्तान्त कहल गेल अछि । एहि चर्चा मे एकठाम कहलनि –

नित जुग धर्म होहिं सब केरे। हृदयँ राम माया के प्रेरे॥
सुद्ध सत्व समता बिग्याना। कृत प्रभाव प्रसन्न मन जाना॥१०३-१॥
सत्व बहुत रज कछु रति कर्मा। सब बिधि सुख त्रेता कर धर्मा॥
बहु रज स्वल्प सत्व कछु तामस। द्वापर धर्म हरष भय मानस॥२॥
तामस बहुत रजोगुन थोरा। कलि प्रभाव बिरोध चहुँ ओरा॥
बुध जुग धर्म जानि मन माहीं। तजि अधर्म रति धर्म कराहीं॥३॥

श्री रामजीक माया सँ प्रेरित भ’कय सभक हृदय मे सब युगक धर्म नित्य होइत रहैत अछि । शुद्ध सत्त्वगुण, समता, विज्ञान आर मनक प्रसन्न होयब, एकरा सत्ययुग केर प्रभाव जानू । सत्त्वगुण अधिक हो, किछु रजोगुण हो, कर्म मे प्रीति हो, सब प्रकार सँ सुख हो, ई त्रेताक धर्म भेल । रजोगुण बहुत हो, सत्त्वगुण बहुते कम हो, किछु तमोगुण हो, मन मे हर्ष आ भय हो, ई द्वापर केर धर्म थिक । तमोगुण बहुते हो, रजोगुण थोड़ेक हो, चारू दिश वैर-विरोध हो, ई कलियुग केर प्रभाव थिक । पंडित लोकनि युगक धर्म केँ मोन मे ज्ञान (पहिचान) कय, अधर्म छोड़िकय धर्म मे प्रीति करैत छथि।

एक पंक्ति आर बहुत बेसी महत्वपूर्ण अछि –

काल धर्म नहिं ब्यापहिं ताही। रघुपति चरन प्रीति अति जाही॥
नट कृत बिकट कपट खगराया। नट सेवकहि न ब्यापइ माया॥४॥

जेकर श्री रघुनाथजीक चरण मे अत्यन्त प्रेम अछि, ओकरा कालधर्म (युगधर्म) नहि व्यापैत छैक । हे पक्षीराज! नट (बाजीगर) केर कयल गेल कपट चरित्र (इंद्रजाल) देखयवला लेल बड़ा विकट (दुर्गम) होइत छैक, मुदा नट केर सेवक (जंभूरा) केँ ओकर माया नहि व्यापैत छैक । 🙂

एहि तरहें काकभुशुण्डिजी द्वारा विभिन्न युग केर चरित्रक वर्णन करैत अपन कौआ बनबाक कथा निरन्तरता मे राखल गेल । ओ कहलखिन –

तेहिं कलिकाल बरष बहु बसेउँ अवध बिहगेस।
परेउ दुकाल बिपति बस तब मैं गयउँ बिदेस॥१०४ ख॥

हे पक्षीराज! ओहि कलिकाल मे हम बहुते वर्ष धरि अयोध्या मे रहलहुँ । एक बेर ओतय अकाल पड़ल, तखन हम विपत्तिक मारल विदेश चलि गेलहुँ ।

ताहि समय अयोध्या लेल उज्जैन विदेश छल । काकभुशुण्डिजी एक दीन, मलिन (उदास), दरिद्र आ दुःखी व्यक्ति रूप मे उज्जैन गेलथि । ओहि ठाम किछु समय बितेला उपरान्त थोड़-बहुत सम्पत्ति अर्जित कय ओ ओतहि भगवान्‌ शंकर केर आराधना करय लगलाह ।

उज्जैन मे एक गोट ब्राह्मण वेदविधि जे सदिखन शिवजीक पूजा कयल करथि, आन कोनो काज नहि रहनि से परम साधु आ परमार्थक ज्ञाता आ शंभुक उपासक रहथि । संगहि ओ कखनहुँ श्री हरिक निन्दा बिसरियोकय नहि करथि । काकभुशुण्डिजी अपन ओहि कलिकालक जन्म मे कपटपूर्वक हुनकर सेवा करय लगलाह । ब्राह्मण बहुते दयालु आ नीति-निपुण रहथि । बाहर सँ नम्र देखि काकभुशुण्डिजी केँ पुत्र समान मानथि आ ओहि भाव मे पढ़ाबथि । वैह ब्राह्मण श्रेष्ठ हुनका शिवजीक मंत्र देलखिन । अनेकों प्रकारक शुभ उपदेश देलखिन । काकभुशुण्डिजी शिवजीक मन्दिर जाइथ, हुनकहि देल मंत्र केर जाप करथि । मुदा हृदय मे दम्भ आ अहंकार बढ़ि गेलनि । काकभुशुण्डिजी शब्द तुलसीदास एना लिखलनि अछि –

मैं खल मल संकुल मति नीच जाति बस मोह।
हरि जन द्विज देखें जरउँ करउँ बिष्नु कर द्रोह॥१०५ क॥

“हम दुष्ट, नीच जाति आर पापमयी मलिन बुद्धिवाला मोहवश श्री हरिक भक्त व द्विजजन केँ देखिते जरि गेल करी आ विष्णु भगवान्‌ सँ द्रोह करैत रही ।”

कथा केँ निरन्तरता दैत काकभुशुण्डिजी गरुड़जी सँ कहलखिन जे गुरुजी हुनकर ओहेन आचरण देखि बहुत दुखित रहथि । ओ हुनका खुब बुझायल करथि, लेकिन जतेक बेसी बुझबथिन, काकभुशुण्डिजी केँ ओतबे बेसी तामस चढ़नि । कथा कहैत ओ तर्क देलनि जे दम्भी केँ कहियो नीति नीक नहि लगैत छैक ।

एक बेर गुरुजी हुनका बजा लेलखिन आ परमार्थ नीति केर शिक्षा दैत कहलखिन जे हे पुत्र! शिवजीक सेवाक फल यैह अछि जे श्री रामजीक चरण मे प्रगाढ़ भक्ति हो । शिवजी और ब्रह्माजी सेहो श्री रामजी केँ भजैत छथि, फेर नीच मनुष्यक त बाते कतेक हो ? ब्रह्माजी व शिवजी जिनकर चरणक प्रेमी छथि, अरे अभागल! हुनका सँ द्रोह कयकेँ तूँ सुख चाहैत छह ?

गुरुजी शिवजी केँ हरिक सेवक कहलखिन । ई सुनिते काकभुशुण्डिजीक हृदय मे भयानक जलन उठि गेलनि । एक बेर फेर तुलसीकृत् रामायणक ई पाँति बहुत पैघ तत्त्वक दर्शन करबैछ –

“अधम जाति मैं बिद्या पाएँ। भयउँ जथा अहि दूध पिआएँ॥”

स्वयं काकभुशुण्डिजी अपन पूर्व जन्मक ओहि दीन-अबस्था केँ मोन पाड़ैत गछलनि अछि जे हम अधम जातिक लोक विद्या पाबि गेल रही लेकिन दम्भक कारण ओ विद्या हमरा लेल साँप केँ दूध पियेबाक समान भेल । यानि, साँप केँ दूध पियेलो पर अपन स्वाभाविक विष ओ नहि छोड़ि पबैछ, किछु तहिना नीच जातिक व्यक्ति लेल विद्याक प्रभाव भेल करैछ ।

अभिमानी, कुटिल, दुर्भाग्य व कुजाति रूप मे दिन-राति गुरुजी सँ द्रोह करथि सेहो स्वीकार कयलनि । गुरुजी अत्यंत दयालु छलाह, हुनका कनिकबो क्रोध नहि होइन्ह । कतबो द्रोह कयलोपर ओ शिष्य केँ बेर-बेर उत्तम ज्ञान केर शिक्षा मात्र देल करथि ।

एकटा आर बड पैघ नीति केर बात काकभुशुण्डिजी द्वारा गरुड़जी केँ कहल गेल । तुलसीदासजीक एहि पाँतिक सुन्दरता हम सब अनुकरण करी ।

जेहि ते नीच बड़ाई पावा। सो प्रथमहिं हति ताहि नसावा॥
धूम अनल संभव सुनु भाई। तेहि बुझाव घन पदवी पाई॥

नीच मनुष्य जाहि सँ बड़ाई पबैत अछि, ओ सब सँ पहिने ओकरे मारिकय ओकरे नाश करैत अछि । सुनू! आगि सँ उत्पन्न भेल धुआँ मेघ केर पदवी पाबिकय ओहि आगि केँ मिझा दैत अछि ।

दोसर उदाहरणक सुन्दरता देखू –

रज मग परी निरादर रहई। सब कर पद प्रहार नित सहई॥
मरुत उड़ाव प्रथम तेहि भरई। पुनि नृप नयन किरीटन्हि परई॥

धूरा रस्ता मे निरादर सँ पड़ल रहैत अछि आर बाट पर चलनिहार लोकनिक लातक मारि सहैत रहैत अछि । मुदा जखन हवा ओकरा उड़बैत छैक (ऊँच उठबैत छैक), तखन सबसँ पहिने ओ ओहि हवे (पवन) केँ धूरा सँ भरि दैत अछि । आर फेर राजाओ केर आँखि आ मुकुट पर पड़य लगैत अछि।

नीति केर तेसर पाँति सेहो ध्येय व अनुकरणीय अछि –

सुनु खगपति अस समुझि प्रसंगा। बुध नहिं करहिं अधम कर संगा॥
कबि कोबिद गावहिं असि नीति। खल सन कलह न भल नहिं प्रीति॥

हे पक्षीराज गरुड़जी! सुनू! यैह बात बुझिकय बुद्धिमान लोक अधम (नीच) केर संग नहि करैत अछि । कवि आ पंडित लोकनि ई नीति कहैत छथि जे दुष्ट सँ नहिये कलह नीक, नहिये प्रेम नीक ।

उदासीन नित रहिअ गोसाईं। खल परिहरिअ स्वान की नाईं॥
मैं खल हृदयँ कपट कुटिलाई। गुर हित कहइ न मोहि सोहाई॥8॥

हे गोसाईं! ओकरा सँ त सदिखन उदासीने रहबाक चाही । दुष्ट केँ कुत्ता जेकाँ दूरहि सँ त्यागि देबाक चाही । हम दुष्ट रही, हृदय मे कपट आ कुटिलता भरल छल, ताहि सँ गुरुजी हित के बात कहथि, मुदा हमरा ओ नहि सोहाइत छल ।

एक दिन काकभुशुण्डिजी शिवजीक मन्दिर मे शिवनाम जपि रहल छलाह । ताहि समय गुरुजी ओतय पहुँचि गेलाह, लेकिन अभिमानक मारल ओ उठिकय गुरुजी केँ प्रणाम तक नहि कयलनि । गुरुजी दयालु रहथि । हुनकर दोष देखियोकय ओ किछु नहि कहलखिन । हुनकर हृदय मे लेशो भरि क्रोध नहि भेलनि । मुदा गुरुक अपमान बड भारी पाप होइछ, तेँ महादेवजी ओ सहन नहि कय सकलाह ।

मन्दिर मे आकाशवाणी भेलैक –

अरे हतभाग्य! मूर्ख! अभिमानी! यद्यपि तोहर गुरु केँ क्रोध नहि भेलनि, ओ बहुते कृपालु चित्त के लोक छथि आर हुनका यथार्थ ज्ञान छन्हि, तैयो रे मूर्ख! तोरा हम शाप देब, कियैक तँ नीति केर विरोध हमरा नीक नहि लगैछ । अरे दुष्ट! यदि हम तोरा दण्ड नहि देब त हमर वेदमार्गे भ्रष्ट भ’ जायत । जे मूर्ख गुरु सँ ईर्ष्या करैछ, ओ करोड़ों युग धरि रौरव नरक मे पड़ल रहैछ । फेर ओतय सँ निकलिकय ओ तिर्यक्‌ (पशु, पक्षी आदि) योनि मे शरीर धारण करैत अछि आर दस हजार जन्म धरि दुःख पबैत रहैत अछि । अरे पापी! तूँ गुरुक सामने अजेगर जेकाँ बैसल रहलें ! अरे दुष्ट! तोहर बुद्धि पाप सँ झँपा गेल छौक । तेँ तूँ साँप बनि जे आ रे अधमहु सँ अधम मनुक्ख! एहि अधोगति (साँपक नीच योनि) केँ पाबिकय कोनो खुब भारी गाछक खोह मे पड़ल रहे ।

शिवजीक भयानक शाप सुनिकय गुरुजी हाहाकार कय उठलाह । हमरा काँपैत देखि हुनकर हृदय मे बड़ा भारी सन्ताप उत्पन्न भेलनि ।

विदित हो जे एहि ठाम गुरुजी रुद्राष्टक रूपी शिव स्तुति प्रस्तुत कएने छथि । फेर शाप विमोचनक कृपा पाबि काकभुशुण्डिजी लेल श्री रामजीक भक्तिरूपी वरदान पेने छथि । काकभुशुण्डिजी एहि तरहें काग (कौआ) रूप मे रहितो अमर बनिकय श्री रामजीक भक्ति करैत आइ धरि प्रत्यक्ष छथि । हम सब बड़भागी छी जे हुनका स्मरण करैत छी । सब पर कृपा बनल रहय ।

हरिः हरः!!