पुरुषसुक्तः – सहस्रशीर्षा पुरुषः (अत्यन्त मननीय पाठ मैथिली-अंग्रेजी भावानुवाद सहित)

आजुक स्वाध्याय – सहस्रशीर्षा पुरुष पर मन्थन

(पुरुषसुक्तम् – सहस्रशीर्षा पुरुषः – अत्यन्त रोचक आ बेर-बेर मननीय पाठ)

(मूल स्रोतः ऋग्वेद, मंडल १०, सुक्त ९०)

आइ भोरे-भोर माँ शारदाक दर्शन भेल। ओना त माता सरस्वतीक बीणा सदिखन बजिते रहैत अछि, तेँ हम सब विद्या-अविद्या बीच भेद करैत अपन कर्तव्य-कर्म उचित ढंग सँ कय पबैत छी, मुदा आजुक क्षण हमरा किछु विशेष बुझा रहल अछि। किछु संकेत बुझल करैत छी एहि तरहक दृश्य केँ। तेँ, आउ आइ सहस्रशीर्ष पुरुष केर सर्वथा आकर्षक व्याख्या जे हम एक-दु बेर पहिने पढ़ने रही आ बड सहज ढंग सँ चिन्तन-मन्थन करैत बुझय मे आबि गेल छल, तेकरा फेर अपने सभक संग निरन्तरता मे दैत मैथिली मे सेहो चर्चा करी। मूल संस्कृत आ अंग्रेजी मे साभार एहि लिंक – https://greenmesg.org/stotras/vedas/rigveda/mandala10/sukta90/purusha.php सँ प्राप्त भेल अछि ई।

सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् ।
स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशाङुलम् ॥१॥

ओहि पुरुष केर एक हजार सिर, एक हजार आंखि आर एक हजार पैर छन्हि।
वैह पुरुष पृथ्वी केँ चारू दिश सँ घेर लेलनि आ दस आंगुर धरि (दसो दिशा मे) बढ़ि गेलाह।

1.1: The Purusha (Universal Being) has Thousand Heads, Thousand Eyes and Thousand Feet (Thousand signifies innumerable which points to the omnipresence of the Universal Being),
1.2: He envelops the World from all sides (i.e. He pervades each part of the Creation), and extends beyond in the Ten Directions ( represented by Ten Fingers ),

पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भव्यम् ।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ॥२॥

परमपुरुष वैह सब किछु छथि, जे किछु एतय पहिने सँ घटित भेल अछि सेहो आ जे किछु एतय आगाँ घटित होयत सेहो। हुनकहि अमृततत्त्व सँ सब किछु बनल अछि आ यैह तत्त्व अन्नरूप मे पाबि लोक अपन जीवन जियैत एहि लोक सँ परलोक धरिक आगूक यात्रा पूरा करैत अछि।

2.1: The Purusha is indeed All this (Creation) in essence; That which existed in the Past, and that which will exist in the Future,
2.2: Everything (i.e the whole Creation) is woven by the Immortal essence of the Great Lord (Purusha); by becoming Food of which (i.e. by getting consumed in Whose Immortal essence through surrender) one transcends the gross world (and becomes Immortal).

एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः ।
पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ॥३॥

ओ पुरुष (भगवान) केर महिमा महानो सँ महान छन्हि, जिनकर एकटा पैर (चरण) रूप मे विश्व भरिक समस्त प्राणी अछि आर जिनकर तीनटा पैर स्वर्ग मे अमृत रूप मे स्थित अछि।

3.1: The Purusha is Greater than all the Greatness (which can be expressed by words),
3.2: His One Part has become all these (visible) Worlds, and His Three Parts rest in the Immortal World of the Transcendence.

त्रिपादूर्ध्व उदैत्पूरुषः पादोऽस्येहाभवत्पुनः ।
ततो विष्वङ् व्यक्रामत्साशनानशने अभि ॥४॥

ओहि पुरुष केर तीन चरण सदिखन उपर रहैछ आ एकटा चरण मात्र सँ एहि संसारक उत्पत्ति (समस्त जीवनक स्थिति) बेर-बेर होइत रहैछ। एहि संसारक प्रत्येक जीव, चाहे ओ सजीव हो अथवा निर्जीव हो, सब मे वैह (हुनकहि शक्ति) विराजमान (विद्यमान्) छथि।

4.1: The Three Parts of the Purusha is High Above (in Transcendental Realm), and His One Part becomes the Creation again and again.
4.2: There, in the Creation, He pervades all the Living ( who eats ) and the Non-Living ( who does not eat ) beings.

तस्माद्विराळजायत विराजो अधि पूरुषः ।
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः ॥५॥

ओहि पुरुष सँ आदिपुरुषक आगमन भेल। आर फेर ओहि विराटपुरुष द्वारा ई पृथ्वीलोक केर समस्त अवयवक सृजन (जन्म/रचना) भेल।

Meaning:
5.1: From Him (i.e. the Purusha) was born the Virat; (the Virat came into being) from the presence of the Shining Purusha (Who remained as the background or substratum of Virat);
5.2: He (i.e. the Virat) created the Earth, by manifesting Her from His own being as substratum.

यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत ।
वसन्तो अस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः ॥६॥

ओहि परमपुरुष केँ हविष्यक आहुति सँ (अग्निरूपी परमपुरुष केँ हविष्य प्रदान करैत) ओ विराटपुरुष (देव) यज्ञ (पूजा) समर्पित कयलनि। वसंत ऋतु ओहि यज्ञ केर घी रूप मे प्रकट भेल, गर्मी ऋतु ओहि यज्ञक इन्धन रूप मे प्रकट भेल तथा शरद ऋतु यज्ञ मे अर्पित होइवला हविष्य केर रूप मे प्रकट भेल।

6.1: With the Purusha as the (Sacrificial) Fire, the Deva (the Shining One, referring to Virat) continued the Yagna (Sacrifice of creation),
6.2: Spring was (created as) the clarified Butter (of that Yagna), Summer was (created as) the Fuel (of that Yagna), and Autumn was (created as) the Havis (Sacrificial offering of that Yagna).

तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन्पुरुषं जातमग्रतः ।
तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये ॥७॥

ओहि यज्ञ द्वारा पहिल देव पुरुषक उत्पत्ति भेल छल। फेर ओहि देवपुरुष सँ अन्य साध्य देव लोकनिक तथा ऋषि लोकनिक उत्पत्ति भेल छल।

7.1: The First Divine Men were created as the Holy Water sprinkled with the Kusa Grass in that Yagna (Sacrifice of Creation).
7.2: The First Divine Men were the Sadhya Devas and the Rishis, Who were created by Him, the Deva (the Shining One, referring to Virat), Who performed the Yagna. (These Rishis were not human but divine Rishis like Saptarshis created directly by Virat).

तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः सम्भृतं पृषदाज्यम् ।
पशून्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्यान् ग्राम्याश्च ये ॥८॥

ताहि यज्ञक सम्पूर्ण आहुति (हविष्य) जेना घी-दूध आदिक प्राप्तिक क्रम मे अन्य समस्त जीव सभक उत्पत्ति भेल। समस्त पशु, वायुमंडल मे विचरयवला पक्षी, वन (अरण्य) मे रहयवला जानवर तथा ग्राम्य जीवन मे रहयवला पालतू जानवर – ई सब ओहि यज्ञक क्रम मे उत्पन्न भेल।

8.1: From the Complete Offering of His (i.e. Virat’s) Yagna (Sacrifice of Creation) was obtained Ghee mixed with coagulated Milk, …
8.2: … which (i.e. the Ghee and Milk) are (the created) Animals, both of Air (Birds) and of Forests (Wild Animals) and Villages (Domestic Animals).

तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे ।
छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत ॥९॥

ओहि यज्ञ सँ समस्त वेदक ऋचा सब (ऋग्वेद तथा सामवेद) केर जन्म भेल। वेदक अनेकों छन्द आ यजुर्वेद केर सेहो ओहि यज्ञ सँ जन्म भेल।

9.1: From the Complete Offering of His (i.e. Virat’s) Yagna (Sacrifice of Creation) was born the Rig Veda and Sama Veda,
9.2: The Chandas (Vedic Meters) were born from Him, and the Yajur Veda was born from Him.

तस्मादश्वा अजायन्त ये के चोभयादतः ।
गावोः ह जज्ञिरे तस्मात् तस्माज्जाता अजावयः ॥१०॥

विराटपुरुष द्वारा कयल गेल वैह यज्ञक क्रम मे हुनकहि द्वारा घोड़ा सभक उत्पत्तिक संग ओ समस्त जानवर सब जेकर दुनू जबड़ा मे दाँत छल तेकर जन्म भेल। ओहि सँ गाय सब आ ओहि सँ बकरी सभक सेहो जन्म भेल।

10.1: From Him (i.e. Virat) was born the Horses, and all those animals who has teeth in both jaws,
10.2: From Him (i.e. Virat) was born the Cows, and from Him was born all types of Goats.

यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन् ।
मुखं किमस्य कौ बाहू का ऊरू पादा उच्येते ॥११॥

ओ समस्त जीव सब जे ओहि विराट पुरुष द्वारा जन्म प्राप्त कयलक, ओ सब कतेको बेर हुनकर रूप केर कल्पना करय लागल। मुंह केहेन छलन्हि, हुनकर बाँहि केहेन छलन्हि, हुनकर जांघ केहेन छलन्हि, हुनकर पैर केहेन छलन्हि?

11.1: What did the Purusha (i.e. Virat) hold within Him? How many parts were assigned in His Huge Form?
11.2: What was His Mouth? What was His Arms? What was His Thighs? And what was His Feet?

ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः ।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत ॥१२॥

ब्राह्मण जिनकर अनुहार (चेहरा) सँ, बाँहि सँ राजा (क्षत्रिय) केर, उरुप्रदेश (जांघ) सँ हुनकर वैश्य केर आ चरणप्रदेश (पैर) सँ हुनकर शूद्र केर जन्म भेल।

Meaning:
12.1: The Brahmanas were His Mouth, the Kshatriyas became His Arms,
12.2: The Vaishyas were His Thighs, and the Shudras were assigned to His Feet.

चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत ।
मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत ॥१३॥

चंद्रमा हुनकर मोन सँ, सूर्य हुनकर आँखि (चक्षु) सँ जन्म लेलक। मुखादि सँ इन्द्र एवं अग्नि तथा श्वाँस सँ वायु उत्पन्न भेल।

13.1: The Moon was born from His Mind and the Sun was born from His Eyes,
13.2: Indra and Agni (Fire) were born from His Mouth, and Vayu (Wind) was born from His Breath.

नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत ।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन् ॥१४॥

हुनक नाभि अन्तरिक्ष बनल, हुनक सिर स्वर्ग धारण कयलक, हुनक पैर पृथ्वी दिश आ अपन कान सँ दिशाक निर्माण भेल, आर एहि तरहें वैह पुरुष समस्त लोक केर रचना कयलनि।

14.1: His Navel became the Antariksha (the intermediate Space between Heaven and Earth), His Head sustained the Heaven,
14.2: From His Feet the Earth (was sustained), and from His Ears the Directions (were sustained); in this manner all the Worlds were regulated by Him.

सप्तास्यासन् परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृताः ।
देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबध्नन्पुरुषं पशुम् ॥१५॥

सात-सात के तीन वृत्त मे सात गोट समिधा (यज्ञ मे आहुति देबाक साधन) सँ यज्ञ कयलनि। ताहि यज्ञ मे ओ देव स्वयं अवतरित भ’ कय मनुष्य आर पशुक रचनाक बन्धन मे रहलाह।

15.1: By making Seven Enclosures with Three times Seven sacrificial Firewood, …
15.2: … the Deva (the Shining One referring to Virat) in that Yagna (Sacrifice of Creation), bound the infinite expanse of the Purusha as (apparently) finite living beings (Pashu).

यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ।
ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ॥१६॥

परमपुरुष द्वारा जाहि सृष्टि निर्माण रूपी यज्ञ मे सम्मिलित देवता अपन धर्म केर पालन करैत यशस्वी होइत भेलाह आ ओ सब गोटे ओहि लोक केँ प्राप्त कयलन्हि जेतय पहिनहि सँ विराटपुरुष रहैत छलाह।

16.1: The Devas performed the external Yagna by meditating on the real Yagna (i.e. contemplating on the Purusha Who is Shining behind everything); And thus they first obtained the Dharma (based on the Oneness of the Purusha),
16.2: By Meditating on the Greatness of the Chidakasha (Blissful Spiritual Sky behind everyone, which is the essence of the Purusha), during those earlier times, the Spiritual Aspirants became the Shining One themselves.

हरिः हरः!!

जरूरी नोटः

मैथिली मे हमरा बुझय मे जतेक आयल ओतेक लिखने छी, लेकिन अन्तिम १६म् श्लोक केर सहज अर्थ बुझय मे दिक्कत भेल। कियो सक्षम-विज्ञ एहि महान् वेदोक्तिक साधना कएने होइ त कनी चेक कय केँ सुधार जरूरी हो त जरूर बता देब। आग्रह!! हरिः हरः!!

१६म् श्लोक सुन्दर विवेचनात्मक विश्लेषण निखिलेश कुमार झा एहि तरहें कयलनि जे द्रष्टव्य-ध्यातव्य अछिः

“यज्ञेन यज्ञमयजन्त…..सन्ति देवा:” मे परमपुरुष वा विराट पुरुषक द्वारा जे सृष्टि निर्माण रूपी यज्ञ कयल गेल ताहि मे जे पहिने देव सब जुटलाह ओ सब ओहि लोक मे स्थान पेबाक अधिकारी भेलाह जाहि मे प्रथमपुरुषक निवास छल। ओहि लोक केँ “नाक” केर संज्ञा देल गेल अछि। एहि ‘नाक’ शब्द केँ एना पारिभाषित कयल गेल छैक “न कं सुखमिति न कं दुःखम्” – जाहि लोकक बासिन्दा सुख-दुःख सँ परे होथि से भेल नाक लोक। आब कनि साध्य पर सेहो विचार करब अपेक्षित। वह्नि पुराण, भविष्य पुराण प्रभृति ग्रंथ सब मे साध्य देवताक चर्चा कयल गेल अछि। एहि ठाम १२ गोट साध्य देवताक चर्चा अछि – मनस्, मन्तृ, प्राण, नर, अपान, वीर्यवान, विनिर्मय, नय, दंश (दस), नारायण, वृष आ प्रभु। तहिना पद्मपुराणक सृष्टि खंड मे कहल गेल अछि जे सृष्टिरूपी यज्ञ मे जतेक देव व ऋषि सब जुटलाह से “साध्य”देव कहौलन्हि। ई सब ओ प्रथम देवता सब भेलाह जिनकर माध्यमे वा कारणे आन आन देवता सब सेहो अस्तित्व मे अयलाह। अतः हमरा हिसाबे १६हम् ऋचाक अर्थ अन्त मे एतेक जोड़ल जा सकैत अछि जे –
“परमपुरुष द्वारा जाहि सृष्टि निर्माण रूपी यज्ञ मे सम्मिलित देवता अपन धर्म केर पालन करैत यशस्वी होइत भेलाह आ ओ सब गोटे ओहि लोक केँ प्राप्त कयलन्हि जेतय पहिनहि सँ विराटपुरुष रहैत छलाह ।”
एतय ‘पूर्वे’शब्दक अर्थ दिशा नै लयकय यदि ‘पहिने’ लेल जाय त अर्थ मे स्पष्टता आबि जेतैक। समग्रतः एना कहल जा सकैत अछि जे ओ व्यक्ति यशस्वी होइत छथि जे यज्ञ (लोक कल्याणकारी काज वा रचना) करैत छथि । आ एहि काजक परिणाम हुनका ओ लोक ईश्वर प्रदान करैत छथिन्ह जाहि मे पूर्व सँ यज्ञ करयवला साध्य देव निवास करैत छथि।