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किछु गूढ़ चिन्तन (कर्मयोग – गीताक तेसर अध्याय)

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

किछु गूढ़ चिन्तन
(कर्मयोग – गीताक तेसर अध्याय)
 
गीताक तेसर अध्याय मे भगवान् कृष्ण मनुष्य द्वारा कर्म केना-केना कयल जाइछ, ताहि पर विशद चर्चा कएने छथि। आइ हम बड़ा संछेप मे एहि अध्यायक समग्रता पर चर्चा करैत किछु बात राखय चाहैत छी –
 
अध्याय २ मे भगवान् कृष्ण बहुते गूढ़ चिन्तन ‘आत्मविद्या’ पर चर्चा कएने छथि, अर्जुनक विषाद दूर करबाक लेल अपन पहिचान दैहिक नहि कय आत्मिक रूप सँ हम के छी आ हमरा केना-कि करबाक अछि ताहि पर ध्यानाकर्षण कएने छथि। ताहि पर अर्जुन हुनका सँ पुछलखिन जे जखन निष्काम कर्म मार्ग सँ ज्ञान मार्ग श्रेष्ठ अछि त फेर युद्ध जेहेन भयंकर कर्म करय लेल कियैक कहि रहल छी। विदिते अछि जे युद्धक मैदान मे अर्जुन अपन सगा-सम्बन्धी केँ दुश्मनक स्थान पर ठाढ़ युद्ध लेल ललकारा मारैत देखि स्वयं एहेन भयानक कर्म नहि करबाक निर्णय लय श्रीकृष्णक सोझाँ गान्डीव पटैक दैत छथिन, आ ताहि पर गीताक प्रवचन सुना अर्जुनक विषाद (शोक-शंका) केँ दूर कय रहल छथिन।
 
भगवान् ताहि पर वर्णन करब आरम्भ करैत छथिन आ कहैत छथिन जे –
 
१. संसार मे आत्म-साक्षात्कारक दुइ गोट विधि पहिने कहि देलहुँ। ज्ञानी लेल ज्ञानक मार्ग आ योगी लेल निष्काम कर्मक मार्ग।
२. मनुष्य नहि तँ बिना कर्म कयने कर्म-बन्धन सँ मुक्त भ’ सकैत अछि आ न कर्म केर त्याग (संन्यास) सँ सिद्धि पाबि सकैत अछि।
३. कोनो मनुष्य कोनो समय मे क्षणहु मात्र लेल कर्म कयने बिना नहि रहि सकैत अछि, कियैक त प्रत्येक मनुष्य प्रकृति सँ उत्पन्न गुण द्वारा विवश भ’ कय कर्म करैत अछि।
४. जे मनुष्य कर्म-इन्द्रिय केँ वश मे कय लैत अचि मुदा मोन मे वैह इन्द्रिय सभक विषय केर चिन्तन करैत रहैत अछि त एहेन मूर्ख जीव मिथ्याचारी कहाइत अछि।
५. जे मनुष्य मन द्वारा इन्द्रिय केँ वश मे करबाक प्रयत्न करैत अछि आ बिना कोनो आसक्ति केँ कर्म-योग (निष्काम कर्म-योग) केर आचरण करैत अछि, वैह सब मनुष्य सब मे अति-उत्तम मनुष्य होइछ। तेँ अहाँ अपन नियत कर्तव्य-कर्म करू, कियैक तँ कर्म नहि करबाक अपेक्षा कर्म करनाय श्रेष्ठ होइछ, कर्म नहि कयला सँ अहाँक जीवन-यात्रा पर्यन्त सफल नहि भ’ सकैत अछि।
६. यज्ञक प्रक्रिया कर्म थिक। एकर अलावे जेहो करैत छी ओहि सँ जन्म-मृत्यु रूपी बन्धन उत्पन्न होइछ। यज्ञक पूर्ति लेल संग-दोष सँ मुक्त रहिकय खुब नीक जेकाँ कर्मक आचरण करू।
७. सृष्टिक प्रारम्भ मे प्रजापति ब्रह्मा यज्ञ सहित देवता आर मनुष्य सब केँ रचिकय हुनका सब सँ कहने रहथि – अहाँ सब एहि यज्ञ द्वारा सुख-समृध्दि केँ प्राप्त करू आर यैह यज्ञ अहाँ सब केँ इष्ट (परमात्मा) सम्बन्धित कामनाक पूर्ति करता। एहि यज्ञ द्वारा देवता लोकनिक उन्नति करू आर ओ देवता सब अहाँ लोकनिक उन्नति करता। एना एक-दोसरक उन्नति करैत अहाँ सब परम-कल्याण (परमात्मा) केँ प्राप्त भ’ जायब। यज्ञ द्वारा उन्नति केँ प्राप्त देवता अहाँ लोकनिक सब आवश्यकता पूरा करता। जे मनुष्य देवता सभक देल सुख-भोग केँ हुनका देने बिना भोगैत अछि, तेकरा निश्चित रूप सँ चोर बुझू। यज्ञ सँ बचल अन्न खायवला भक्त सब पाप सँ मुक्त भ’ जाइत अछि, लेकिन आर लोक जे अपन इन्द्रिय-सुख लेल भोजन पकबैत अछि, से बुझू पापे खाइत अछि। सब प्राणी अन्न सँ उत्पन्न होइत अछि, अन्न केर उत्पत्ति वर्षा सँ होइत छैक, वर्षाक उत्पत्ति यज्ञ सम्पन्न कयला सँ होइछ आ यज्ञक उत्पत्ति नियत-कर्म (वेद केर आज्ञानुसार कर्म) कयला सँ होइत अछि। नियत कर्म केर विधान वेद मे निहित अछि आ वेद केँ शब्द-रूप मे अविनाशी परमात्मा सँ साक्षात् उत्पन्न बुझबाक चाही। तेँ सर्वव्यापी परमात्मा ब्रह्म-रूप मे यज्ञ मे सदैव स्थित रहैत छथि। जे मनुष्य जीवन मे एहि प्रकारे वेद द्वारा स्थापित यज्ञ-चक्र (नियत-कर्म) केर अनुसरण नहि करैत अछि, ओ निश्चय पापमय जीवन व्यतीत करैत अछि। एहेन मनुष्य इन्द्रिय केर तुष्टि लेल टा व्यर्थहि जिबैत अछि बुझू।
८. जे मनुष्य आत्मा मे आनन्द प्राप्त कय लैछ ओ अपन आत्मा टा मे पूर्ण-सन्तुष्ट रहैत अछि, ओकरा लेल कोनो नियत-कर्म (कर्तव्य) शेष नहि रहैत छैक। ओहि महापुरुष लेल नहि त एहि संसार कर्तव्य-कर्म करबाक आवश्यकता नहि रहि जाइत छै आ न कर्म नहि करबाक कोनो कारणे रहि जाइत छै, ओकरा समस्त प्राणी मे केकरो उपर निर्भर रहबाक जरुरते नहि रहि जाइत छैक। तेँ कर्म-फ़ल मे आसक्त भेने बिना मनुष्य केँ अपन कर्तव्य बुझिकय कर्म करैत रहबाक चाही। कियैक तँ अनासक्त भाव सँ निरन्तर कर्तव्य-कर्म कयले सँ मनुष्य केँ एक दिन परमात्माक प्रप्ति भ’ जाइत छैक। राजा जनक जेहेन आरो लोक सब केवल कर्तव्य-कर्म कय केँ परम-सिद्धि केँ प्राप्त कयलनि अछि, तेँ संसारक हित केर विचार करैत अहाँ लेल कर्म करब टा उचित अछि।
 
९.
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः । स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥३-२१॥
 
महापुरुष जे-जे आचरण करैत छथि, सामान्य मनुष्य सेहो ओकरे अनुसरण करैत छथि, ओ श्रेष्ठ-पुरुष जे किछु आदर्श प्रस्तुत कय दैत छथि, समस्त संसार ओकरे अनुसरण करय लगैत अछि।
 
१०. तीनू लोक मे हमरा लेल कोनो कर्तव्य शेष नहि अछि, आ न कोनो वस्तुक अभावे अछि, आ न कोनो वस्तु प्राप्त करबाक इच्छे अछि, तैयो हम कर्तव्य बुझिकय कर्म करय मे लागल रहैत छी। यदि हम नियत-कर्म केँ सावधानी-पूर्वक नहि करब त ई निश्चित छैक जे सब मनुष्य हमरे मार्ग टा’क अनुगमन करत। ताहि सँ यदि हम कर्तव्य बुझिकय कर्म नहि करब त ई सारा लोक भ्रष्ट भ’ जायत, तखन हम अवांछित-सृष्टिक उत्पत्ति केर कारण भ’ जायब आर एहि प्रकारे समस्त प्राणी केँ नष्ट करयवला बनि जायब।
 
११. जाहि तरहें अज्ञानी मनुष्य फलक इच्छा सँ काज (सकाम-कर्म) करैत अछि, तहिना विद्वानो लोक केँ फलक इच्छा बिना संसारक कल्याण लेल कर्म करबाक चाही। विद्वान् महापुरूष केँ चाही जे ओ फलक इच्छावला (सकाम-कर्मी) अज्ञानी मनुष्य केँ कर्म करय सँ रोकय नहि, जाहि सँ ओकर बुद्धि भ्रमित नहि भ’ जाय, बल्कि स्वयं कर्तव्य-कर्म केँ नीक सँ करैत आरो लोक सँ ओहिना नीक जेकाँ करबाबैत रहय।
 
१२. जन्म सँ लयकय मृत्यु धरिक सब कर्म प्रकृतिक गुण द्वारा सम्पन्न कयल जाइछ, अहंकारक प्रभाव सँ मोह-ग्रस्त भ’ कय अज्ञानी लोक स्वयं केँ कर्ता मानय लगैछ। परमतत्व केँ जनयबला महापुरूष इन्द्रिय केँ आर इन्द्रिय केर क्रियाशीलता केँ प्रकृतिक गुण सब द्वारा करैत मानिकय कहियो ओहि मे आसक्त नहि होइछ। मायाक प्रभाव सँ मोह-ग्रस्त भेल मनुष्य सांसारिक कर्म सभक प्रति आसक्त भ’ कय कर्म मे लागि जाइत अछि, तेँ पूर्ण ज्ञानी मनुष्य केँ चाही जे ओ ओहि मन्द-बुद्धि (सकाम-कर्मी) लोक सब केँ विचलित नहि करय।
 
१३. अपन सब प्रकारक कर्तव्य-कर्म केँ हमरा मे समर्पित कय केँ पूर्ण आत्म-ज्ञान सँ युक्त भ’ कय, आशा, ममता, आर सन्ताप केँ पूर्ण रूप सँ त्याग कयकेँ युद्ध करू अर्जुन। जे मनुष्य हमर एहि आदेश सब केँ ईर्ष्या-रहित भ’ कय, श्रद्धा-पूर्वक अपन कर्तव्य बुझिकय नियमित रूप सँ पालन करैत अछि, ओ सब कर्मफल केर बन्धन सँ मुक्त भ’ जाइत अछि। परन्तु जे मनुष्य ईर्ष्यावश एहि आदेश सभक नियमित रूप सँ पालन नहि करैत अछि, ओकरा सब तरहक ज्ञान मे पूर्ण रूप सँ भ्रमित आ सब दिश नष्ट-भ्रष्ट भेल बुझबाक चाही।
 
१४.
सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि । प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ॥३-३३॥
 
सब मनुष्य प्रकृति केर गुण सभक अधीन भ’ए कय काज करैत अछि, एतेक तक जे तत्वदर्शी ज्ञानी लोक सेहो प्रकृतिक गुणक अनुसारे काज करैत रहैत अछि, तखन फेर कर्म करय मे ‘निग्रह’ – केकरो कोनो निराकरण भला कि कय सकैत अछि?
 
१५. सब इन्द्रिय आर इन्द्रिय सभक विषय प्रति आसक्ति (राग) तथा विरक्ति (द्वेष) नियमक अधीन स्थित रहैत छैक, मनुष्य केँ एकरा सभक आधीन नहि हेबाक चाही। कियैक तँ दुनू बात आत्म-साक्षात्कार केर पथ मे अवरोध उत्पन्न करयवला छैक।
१६.
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्‌ । स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥३-३५॥
 
दोसरक कर्तव्य (धर्म) केँ नीक सँ अनुसरण (नकल) करबाक बदले अपन कर्तव्य-पालन (स्वधर्म) केँ दोष-पूर्ण ढंगहु सँ करब बेसी कल्याणकारी होइत छैक। दोसरक कर्तव्य केर अनुसरण करय सँ भय उत्पन्न होइत छैक, अपनहि कर्तव्यक पालन करैत मरनाय श्रेयस्कर छैक।
 
१७. एतेक सुनि अर्जुन फेर सँ श्रीकृष्ण लग अपन नव जिज्ञासा प्रकट करैत कहैत छथिन –
 
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः । अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥३-३६॥
 
हे वृष्णिवंशी! मनुष्य नहि चाहैत केकर प्रेरणा सँ पाप-कर्म करैत अछि? एना बुझाइत अछि मानू ओकरा बल-पूर्वक पाप-कर्म करबाक लेल प्रेरित कयल जा रहल होइ?
 
ताहि पर भगवान् कहैत छथिन –
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः । महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम्‌ ॥३-३७॥
 
एकर कारण रजोगुण सँ उत्पन्न होयवला काम (विषय-वासना) आर क्रोध जेहेन भारी पापी छैक। एहि संसार मे अग्नि समान कहियो नहि तृप्त होयवला महान-शत्रु एकरे बुझू। जाहि तरहें धुआँ सँ आइग आ धुरा सँ दर्पण झँपा जाइत छैक आ जेना गर्भाशय सँ गर्भ झँपायल रहैछ, तहिना कामना सब सँ ज्ञान झँपायल रहैत छैक। एहि तरहें शुद्ध चेतन स्वरूप जीवात्माक ज्ञान कामनारूपी नित्य शत्रु द्वारा झँपायल रहैत छैक जे कहियो तुष्ट नहि होइवला आइग जेकाँ जरैत रहैत छैक। इन्द्रिय, मन आर बुद्धि कामना सभक निवास-स्थान होइत छैक, एकरे द्वारा कामना सब ज्ञान केँ आच्छादित कयकेँ जीवात्मा केँ मोह-ग्रस्त कय दैत छैक। तेँ अहाँ पहिनहिये सँ इन्द्रिय केँ वश मे कयकेँ आर आत्म-ज्ञान व आत्म-साक्षात्कार मे बाधा उत्पन्न करयवाली एहि महान-पापी कामना सब केँ बलपूर्वक समाप्त करू। एहि जड़ पदार्थ शरीर केर अपेक्षा इन्द्रिय सब श्रेष्ठ अछि, इन्द्रिय सभक अपेक्षा मन श्रेष्ठ अछि, मन केर अपेक्षा बुद्धि श्रेष्ठ अछि आर जे बुद्धि सँ सेहो श्रेष्ठ अछि से अहाँ वैह सर्वश्रेष्ठ शुद्ध स्वरूप आत्मा छी। एहि प्रकारे हे महाबाहु अर्जुन! स्वयं केँ मन आ बुद्धि सँ श्रेष्ठ आत्मा-रूप बुझि, बुद्धि द्वारा मन केँ स्थिर कय केँ अहाँ कामनारूपी दुर्जय शत्रु सब केँ मारू।
 
आइ किछु अत्यावश्यक कारण सँ ई अध्याय एतय राखि रहल छी। उचरल त छल मात्र एकटा श्लोक – सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि। प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति॥ परञ्च नीक भेल जे पूरा अध्याय पर दृष्टि देबय पड़ल। बाकी चर्चा बाद मे!
 
हरिः हरः!!

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