रामचरितमानस मोतीः मन्दोदरी-विलाप, रावणक अन्त्येष्टि क्रिया

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

मन्दोदरी-विलाप, रावणक अन्त्येष्टि क्रिया

राम-रावण युद्ध आ रावणक मृत्युक पश्चात् –

१. पतिक काटल मुन्ड देखिते मंदोदरी व्याकुल आर मूर्च्छित भ’ कय धरती पर खसि पड़लीह। स्त्रीगण सब कनिते दौड़लीह आ मंदोदरी केँ उठाकय रावण लग लय गेलीह। पतिक दशा देखि ओ आरो नाम लय-लयकय भोकासी पाड़िकय कानय लगलीह। हुनकर केश खुजि गेलनि, देह केर सुधि नहि रहि गेलनि। ओ अनेकों प्रकार सँ छाती पीटैत छथि आ कनिते रावणक विभिन्न प्रताप सभक बखान सेहो करैत छथि।

२. ओ कहैत छथिन –

हे नाथ! अहाँक बल सँ पृथ्वी सदिखन काँपैत रहैत छल। अग्नि, चंद्रमा आर सूर्य अहाँक सामने तेजहीन छल। शेष आर कच्छप सेहो जिनकर भार नहि सहि सकैत छलथि, वैह अहाँक शरीर आइ धुरा सँ भरल पृथ्वी पर खसल पड़ल अछि!

वरुण, कुबेर, इंद्र आर वायु, एहि मे सँ कियो रण मे अहाँक सोझाँ धैर्य धारण नहि कयलनि। हे स्वामी! अहाँ अपन भुजाबल सँ काल आ यमराज केँ सेहो जीति लेने रही। वैह अहाँ आइ अनाथ जेकाँ पड़ल छी।

अहाँक प्रभुता जगत्‌ भरि मे प्रसिद्ध अछि। अहाँक पुत्र आर कुटुम्बि लोकनिक बल केर कि चर्चा करू! वर्णने नहि कयल जा सकैत अछि। श्री रामचंद्रजीक विमुख भेला सँ अहाँक एहेन दुर्दशा भेल अछि जे आइ कुल मे कियो कनइयोवला नहि रहि गेल।

हे नाथ! विधाताक समूचा सृष्टि अहाँक वश मे छल। लोकपाल सदा भयभीत भ’ कय अहाँ केँ मस्तक नमबैत रहथि। मुदा हाय! आब अहाँक माथ आ हाथ केँ गीदड़ सब खा रहल अछि।

राम विमुख लेल एना होयब अनुचितो नहि अछि। हे पति! काल केर पूर्ण वश मे हेबाक कारण अहाँ केकरो कहल नहि मानलहुँ आ चराचर केर नाथ परमात्मा केँ मनुष्य होयबाक बात बुझलहुँ।”

छंद :
जान्यो मनुज करि दनुज कानन दहन पावक हरि स्वयं।
जेहि नमत सिव ब्रह्मादि सुर पिय भजेहु नहिं करुनामयं॥
आजन्म ते परद्रोह रत पापौघमय तव तनु अयं।
तुम्हहू दियो निज धाम राम नमामि ब्रह्म निरामयं॥

“दैत्य रूपी वन केँ जरेबाक लेल अग्निस्वरूप साक्षात्‌ श्री हरि केँ अहाँ मनुष्य होयबाक बात बुझलहुँ।

शिव आ ब्रह्मा आदि देवता जिनका नमस्कार करैत छथि, वैह करुणामय भगवान्‌ केँ हे प्रियतम! अहाँ नहि भजलहुँ।

अहाँक ई शरीर जन्महि सँ दोसर संग द्रोह करय मे तत्पर आ पाप समूहमय रहल।

एतबो पर जे निर्विकार ब्रह्म श्री रामजी अहाँ केँ अपन धाम देलनि, हुनका हम नमस्कार करैत छी।

अहह! नाथ! श्री रघुनाथजीक समान कृपाक समुद्र दोसर कियो नहि अछि, जे भगवान् अहाँ केँ गति देलनि, से योगिजन सभक लेल सेहो दुर्लभ अछि।”

३. मंदोदरीक वचन कान सँ सुनिकय देवता, मुनि आर सिद्ध सब कियो सुख मानलनि। ब्रह्मा, महादेव, नारद आर सनकादि तथा आरो जे परमार्थवादी (परमात्माक तत्त्व केँ जानयवला आ कहयवला) श्रेष्ठ मुनि रहथि, सेहो सब श्री रघुनाथजी केँ नेत्र भरिकय निरखैत प्रेममग्न भ’ गेलाह आ बहुते सुखी भेलाह।

४. अपन घर केर सब स्त्री लोकनि केँ कनैत देखि विभीषणजीक मोन मे बड़ा भारी दुःख भेलनि आ ओ हुनका लोकनिक नजदीक गेलाह। ओहो अपन भाइ केर दशा देखिकय दुःख कयलनि। तखन प्रभु श्री रामजी छोट भाइ केँ आज्ञा देलनि जे जाउ आ विभीषण केँ दिलासा दियौन। लक्ष्मणजी हुनका बहुतो प्रकार सँ बुझौलनि। तखन विभीषण प्रभु लग घुमि अयलाह।

५. प्रभु हुनका कृपापूर्ण दृष्टि सँ देखलनि आ कहलनि – सब शोक त्यागिकय रावणक अंत्येष्टि क्रिया करू। प्रभुक आज्ञा मानिकय आर हृदय मे देश एवं काल केर विचार कयकेँ विभीषणजी विधिपूर्वक सब क्रिया कयलनि। मंदोदरी आदि सब स्त्री लोकनि रावण केँ तिलांजलि दय कय मोन मे श्री रघुनाथजीक गुण समूह केर वर्णन करिते महल दिश गेलीह।

हरिः हरः!!