स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
षष्ठ सोपान- रावण मूर्च्छा, रावण यज्ञ विध्वंस, राम-रावण युद्ध
१. रावण द्वारा सन्धान कयल शक्तिबाण सँ लक्ष्मणजी मूर्च्छित भ’ गेल छथि। ई देखि पवनपुत्र हनुमान्जी कठोर वचन कहैत दौड़लाह। हनुमान्जी केँ अबिते रावण हुनका पर भयंकर मुक्काक प्रहार कयलक। हनुमान्जी ठेहुने बले बैसि गेलाह, पृथ्वी पर खसलाह धरि नहि आ फेर क्रोध मे भरल सम्हरिकय उठलाह आ ओहो रावण केँ एक मुक्का मारलथि। रावण एना खसल जेना वज्र केर मारि सँ पर्वत खसि पड़ैत अछि।
२. मूर्च्छा भंग भेलापर फेर ओ जागल आ हनुमान्जीक बल केर सराहना करय लागल। हनुमान्जी कहलखिन – हमर पौरुष केँ धिक्कार अछि, धिक्कार अछि आ हमरो धिक्कार अछि जे अरे देवद्रोही! तूँ एखनहुँ जिबिते रहि गेलें। एतेक कहि लक्ष्मणजी केँ उठाकय हनुमान्जी श्री रघुनाथजी लग गेलाह। ई देखि रावण केँ आश्चर्य भेलैक, लक्ष्मणजी ओकरा सँ टसो-मस नहि भ’ सकल छलखिन्ह।
३. श्री रघुवीर लक्ष्मणजी सँ कहैत छथि – “हे भाइ! हृदय मे बुझू, अहाँ कालहु केर भक्षक आ देवता सभक रक्षक छी।” एतबा वचन सुनिते कृपालु लक्ष्मणजी उठि बैसलाह। हुनका लागल बाणरूपी ‘कराल शक्ति’ वापस आकाश दिश चलि गेल। लक्ष्मणजी फेर धनुष-बाण लयकय दौड़लाह आ बड़ा शीघ्रता सँ शत्रुक सोझाँ पहुँचि गेलाह।
छंद :
आतुर बहोरि बिभंजि स्यंदन सूत हति ब्याकुल कियो।
गिर्यो धरनि दसकंधर बिकलतर बान सत बेध्यो हियो॥
सारथी दूसर घालि रथ तेहि तुरत लंका लै गयो।
रघुबीर बंधु प्रताप पुंज बहोरि प्रभु चरनन्हि नयो॥
फेर ओ बड़ी फुर्ती से रावणक रथ केँ चूर-चूर कय आ सारथी केँ मारिकय ओकरा व्याकुल कय देलनि। सौ बाण सँ ओकर शरीर केँ बेधि देलनि, रावण अत्यन्त व्याकुल भ’ कय पृथ्वी पर खसि पड़ल। तखन दोसर सारथी ओकरा रथ मे राखिकय तुरन्त लंका लय गेल। प्रताप केर समूह श्री रघुवीर केर भाइ लक्ष्मणजी फेरो आबिकय प्रभुक चरण मे प्रणाम कयलनि।
४. ओम्हर लंका मे रावण मूर्छा सँ जागिकय किछु यज्ञ करय लागल। ओ मूर्ख आर अत्यन्त अज्ञानी हठवश श्री रघुनाथजी सँ विरोध कयकेँ विजय चाहैत अछि। एम्हर विभीषणजी ई खबर सुनलनि आ तुरन्त जा कय श्री रघुनाथजी केँ कहि सुनौलनि। “हे नाथ! रावण एकटा यज्ञ कय रहल अछि। ओकर सिद्ध भेला पर ओ अभागल सहजता सँ नहि मरत! हे नाथ! तुरन्त बानर योद्धा सबकेँ पठाउ जे यज्ञ केँ विध्वंस करत, जाहि सँ रावण युद्ध मे आबय।”
५. भोर होइत देरी प्रभु वीर योद्धा सबकेँ पठेलनि। हनुमान् आर अंगद आदि सब (प्रधान वीर) दौड़ि गेलाह। बानर खेले मे कुदिकय लंका पर चढ़ि गेल आ निर्भय भ’ कय रावणक महल मे पैइस गेल। जहिना ओ सब यज्ञ करैत देखलक, तहिना ओ सब क्रोध कयलक आ कहलकैक – अरे ओ निर्लज्ज! रणभूमि सँ घर भागि अयलें आ एतय आबिकय बगुला जेकाँ ध्यान लगाकय बैसल छेँ? एतेक कहिकय अंगद लात सँ रावण केँ मारलनि। तैयो ओ रावण अंगद दिश नहि तकलक, यज्ञ मे ध्यानस्थ रहल। ओहि दुष्टक मोन स्वार्थ मे अनुरक्त छलैक।
छंद :
नहिं चितव जब करि कोप कपि गहि दसन लातन्ह मारहीं।
धरि केस नारि निकारि बाहेर तेऽतिदीन पुकारहीं॥
तब उठेउ क्रुद्ध कृतांत सम गहि चरन बानर डारई।
एहि बीच कपिन्ह बिधंस कृत मख देखि मन महुँ हारई॥
जखन ओ नहि तकलक (ध्यान नहि तोड़लक), तखन बानर सब क्रोध करैत दाँत सँ काटय लगलैक आ लात सेहो मारय लगलैक। स्त्री सब केँ केश पकड़िकय घिसियाकय घर सँ बाहर आनि देलकैक। स्त्री सब अत्यन्त दीन भ’ कय चिकरय लगलीह। तखन रावण काल समान क्रोधित होइत उठल आ बानर सब केँ पैर पकड़िकय पटका मारय लागल। ताहि बीच मे बानर सब रावणक यज्ञ केँ विध्वंस कय देलकैक। ई देखिकय रावण मने-मन हारि गेल, निराश भ’ गेल। यज्ञ विध्वंस कयकेँ सबटा चतुर बानर सब रघुनाथजी लग आबि गेल।
६. रावण जितय के आशा छोड़िकय क्रोधित होइत चलल। चलैत समय अत्यन्त भयंकर अमंगल (अपशकुन) होबय लगलैक। गीध उड़ि-उड़िकय ओकर माथ पर बैसय लगलैक, मुदा ओ काल केर वश छल, एहि सँ कोनो अपशकुन केँ नहि गानय। ओ कहलैक – युद्ध के डंका बजाउ। निशाचर सभक अपार सेना चलल। ओहि मे बहुते रास हाथी, रथ, घुड़सवार आर पैदल अछि।
७. ओ दुष्ट प्रभुक सामने केना दौड़ल, जेना फतिंगाक समूह अग्निक ज्वाला देखिकय जरबाक लेल दौड़ि जाइत अछि। एम्हर देवता लोकनि स्तुति कयलक अछि जे हे श्री रामजी! ई हमरा सब केँ दारुण दुःख देलक अछि। आब एकरा अहाँ आरो बेसी नहि खेलाउ। जानकीजी बहुते दुःखी भ’ रहल छथि।
८. देवता सभक बात सुनिकय प्रभु मुस्कुरा देलाह। फेर श्री रघुवीर उठिकय बाण सरियेलनि। मस्तक पर जटाक जूड़ा कसिकय बान्हलनि, ओकर बीच-बीच मे पुष्प गूँथल एना शोभित भ’ रहल अछि जेना लाल नेत्र मेघ केर समान श्याम शरीरवला आ सम्पूर्ण लोक केर नेत्र केँ आनन्द दयवला छैक। प्रभु डाँर्ह मे फाँर्ह आ तरकस कसि लेलनि आ हाथ मे कठोर शार्गं धनुष लय लेलनि।
छंद :
सारंग कर सुंदर निषंग सिलीमुखाकर कटि कस्यो।
भुजदंड पीन मनोहरायत उर धरासुर पद लस्यो॥
कह दास तुलसी जबहिं प्रभु सर चाप कर फेरन लगे।
ब्रह्मांड दिग्गज कमठ अहि महि सिंधु भूधर डगमगे॥
प्रभु हाथ मे शार्गं धनुष लयकय डाँर्ह मे बाणक खान सुन्दर तरकस कसि लेलनि। हुनक भुजदण्ड पुष्ट छन्हि आ मनोहारी चौड़ा छाती पर ब्राह्मण (भृगुजी) केर चरणक चिह्न शोभित छन्हि। तुलसीदासजी कहैत छथि, जहिना प्रभु धनुष-बाण हाथ मे लयकय फेरय लगलाह, तहिना ब्रह्माण्ड, दिशा सभक हाथी, कच्छप, शेषजी, पृथ्वी, समुद्र आर पर्वत सब डगमगा उठल।
९. भगवान् केर शोभा देखिकय देवता हर्षित भ’ कय फूल केर अपार वर्षा करय लगलाह आ शोभा, शक्ति व गुण सभक धाम करुणानिधान प्रभु केर जय हो, जय हो, जय हो (एना नारा लगबय लगलाह)।
१०. एहि बीच मे निशाचर सभक अत्यन्त घनघोर सेना कसमसाइते (आपस मे टकराइते) आयल। से देखिकय बानर योद्धा सब एहि तरहें ओकरा सभक सोझाँ चललाह मानू प्रलयकाल केर बादल सभक समूह चलल हो। बहुते रास कृपाण आर तलबार सब चमकि रहल अछि। मानू दसो दिशा मे बिजली चमकि रहल हो। हाथी, रथ आ घोड़ा सभक चिंग्घाड़ एना लगैत मानू बादल सब भयंकर गर्जन कय रहल हो। बानर सभक बहुते रास फौज सभक बहुते रास पूँछ आकाश मे छायल छैक, ई एना लागि रहल छैक मानू सुन्दर इन्द्रधनुष केर उदय भेल होइ। धुरा एना उठि रहल अछि मानू जल केर धारा हो। बाण रूपी बूँद सभक अपार वृष्टि भेलैक। दुनू दिश सँ योद्धा पर्वत केर प्रहार करैत अछि। मानो बारंबार वज्रपात भ’ रहल होइ।
११. श्री रघुनाथजी क्रोध कयकेँ बाणक झड़ी लगा देलखिन्ह जाहि सँ राक्षसक सेना सब घायल भ’ गेल। बाण लगिते वीर चीत्कार कय उठैत अछि आ चक्कर खा-खाकय जतय-ततय पृथ्वी पर खसि रहल अछि। ओकरा सभक शरीर सँ एना खून बहि रहल अछि मानू पर्वतक भारी झरना सँ जल बहि रहल हो। एहि तरहें डरपोक सब केँ सेहो भयभित करयवला रुधिर केर नदी बहि चललैक।
छंद :
कादर भयंकर रुधिर सरिता चली परम अपावनी।
दोउ कूल दल रथ रेत चक्र अबर्त बहति भयावनी॥
जलजंतु गज पदचर तुरग खर बिबिध बाहन को गने।
सर सक्ति तोमर सर्प चाप तरंग चर्म कमठ घने॥
डरपोक सब केँ भय उपजबय वला अत्यन्त अपवित्र रक्त केर नदी बहि चलल। दुनू दल ओहि नदीक दुनू किनार थिक। रथ रेत आ पहिया सब भँवर छी। ओ नदी बहुत भयावन ढंग सँ बहि रहल अछि। हाथी, पैदल, घोड़ा, गदहा तथा अनेकों सवारी सब छैक जेकर गिनती के करय, नदीक जल जन्तु छी। बाण, शक्ति आ तोमर सर्प छी। धनुष तरहं छी आ ढाल बहुते रास कछुवा सब छी। वीर पृथ्वी पर एहि तरहें गिर रहल छथि मानू नदी-किनारक गाछ खसि रहल हो। बहुते प्रकार मज्जा सब बहि रहल अछि, वैह फेन छी। डरपोक सब जेतय ई सब देखिकय डराइत छथि, ओतहि उत्तम योद्धा सब केँ मोन मे सुख भेटैत छन्हि। भूत, पिशाच आ बेताल, बड़का-बड़का झोंटावला महान् भयंकर झोटिंग आर प्रमथ (शिवगण) ओहि नदी मे स्नान करैत छथि। कौआ आ चील भुजा सब लयकय उड़ैत अछि आ एक-सोर सँ छिनिकय खा जाइत अछि।
१२. कियो कहैत छय, अरे मूर्ख सब! एहेन सस्ती छैक (सब किछु प्रचूर मात्रा मे उपलब्ध छैक), तैयो तोहर दरिद्रता नहि जाइत छउ? घायल योद्धा सब किनार पर कड़ाहि रहल अछी मानू जहाँ-तहाँ अधजल (ओ व्यक्ति जे मरबाक समय आधा जल मे राखल जाइत अछि) सब पड़ल हो। गीध आँत खिचि रहल छय, मानू माछ मारयवला नदी तट पर चित्त लगौने बैसल (ध्यानस्थ भ’ कय) बंसी खेला रहल हो। बहुते रास योद्धा सब बहल जा रहल अछि आ पक्षी सब ओकर मरल देह पर बैसिकय बहल जा रहल अछि। मानू ओ सब नदी मे नावरि (नाव के खेल) खेला रहल हो। योगिनियाँ सब खप्पर सब मे भरि-भरिकय खून जमा कय रहल अछि। भूत-पिशाच सभक स्त्री सब आकाश मे नाचि रहल अछि। चामुण्डा सब योद्धा सभक खोपड़ी केर करताल बजा रहल छथि आ नाना प्रकार सँ गाबि रहल छथि। गीदड़ केर समूह कट-कट शब्द करैत मुरदा केँ काटैत अछि, खाइत अछि, हुआँ-हुआँ करैत आर पेट भरि गेला पर एक-दोसर केँ डाँटितो अछि। करोड़ों धड़ बिना सिर के घुमि रहल अछि आ सिर पृथ्वी पर पड़ल जय-जय बाजि रहल अछि।
छंद :
बोल्लहिं जो जय जय मुंड रुंड प्रचंड सिर बिनु धावहीं।
खप्परिन्ह खग्ग अलुज्झि जुज्झहिं सुभट भटन्ह ढहावहीं॥
बानर निसाचर निकर मर्दहिं राम बल दर्पित भए।
संग्राम अंगन सुभट सोवहिं राम सर निकरन्हि हए॥
मुण्ड (कटल सिर) जय-जय बोली बजैत अछि आ प्रचण्ड रुण्ड (धड़) बिना सिर केँ दौड़ैत अछि। पक्षी खोपड़ी मे उलझि-उलझिकय परस्पर लड़ि मरैत अछि, उत्तम योद्धा दोसर योद्धा सब केँ ढाहि रहल अछि। श्री रामचंद्रजीक बल सँ दर्पित भेल बानर राक्षस सभक झुंड केँ मसलि दैत अछि। श्री रामजीक बाण समूह सँ मरल योद्धा सब लड़ाइक मैदान मे सुति रहल अछि। रावण हृदय मे विचारालक जे राक्षस सभक नाश भ’ गेलैक। आब हम असगरे छी आ बानर-भालू बहुते अछि, तेँ आब हम अपार माया रची।
हरिः हरः!!