मैथिली धारावाहिकः हम आबि रहल छी
उपन्यास पर आधारित धारावाहिक कथा
– रबीन्द्र नारायण मिश्र
23
गंगा सपरिवार दिल्ली अपन घर पहुँचल । ओकर घरक सभटा ताला टुटल छलैक । जे ताला नहि टुटि सकलैक तकर कब्जा उखारि देल गेल रहैक । सभटा केबार, खिड़की तेना ने सटल रहैक जे बाहरसँ ककरो पता नहि लागि सकैत छल जे भीतर किछु गड़बड़ अछि । केबारमे टुटल ताला लटकल देखि गंगा बहुत परेसान भए गेल । ओही हालतिमे ओ आगू बढ़ल। बगलबला कोठरीक ताला सेहो टुटल छल । किरायेदारक कोठरीक ताला सेहो टुटल छल ।
“आखिर किरायेदार कतए गेल?” गंगा मोने-मोन सोचए। हम तँ ओकरेपर घर छोड़ि कए गेल रही । किरायदेारक कोठरीमे कोनपर राखल बक्साक सभटा समान चोर लए गेल । गंगाक कोठरीमे तँ किछु नहि छोड़ने रहैक । एकटा टुटलाही चौकी आ एकटा डोलटा धएल रहैक । ओ चौकीपर बैसल । कनीकाल तँ किछु फुरेबे नहि करैक । नलसँ एक गिलास पानि पिलक । फेर सोच-विचार करए लागल । किछु बुझेबे नहि करैक जे ई कोना भेलैक? किरायदारकेँ फोन लगओलक-
“कतए छह?”
“हमरा अचानक गाम आबए पड़ल । हमरमाएकेँ लकबा मारि देलकैक । हमरा गामसँ फोन आएल । मजबुरीमे हमरा गाम जाए पड़ल ।”
“एहिठाम तँ सभटा ताला टुटि गेल । सभटा समान चोरी भए गेल । किछु बाँचल नहि अछि ।”
“हमरा चलि अएलासँ चोरकेँ मौका लागि गेलैक ।”
“गाम जेबासँ पहिने फोन तँ कए दितह । हम कोनो व्यवस्था करितहुँ, नहि तँ अपने आबि जइतहुँ ।”
“फोन करबाक प्रयास केलिऐक । मुदा अहाँक फोन लगबे नहि करए । हमरा गाम अएलाक बाद कोनो होसे नहि रहल।”
“माएक आब की हाल छह?”
“अब-तब छैक ।”
किरायेदारसँ गप्प केलाक बाद बूझि गेलिऐक जे ओकर कोनो गलती नहि छैक । गाम जाइत काल गंगा अपन पत्नी आ नेनासभकेँ दिल्ली डेरापर छोड़ि देने रहैक । मुदा ओकर माए-बाबूक श्राद्धमे सभगोटेकेँ गाम जाए पड़लैक । संयोग एहन भेलैक जे किरायेदारकेँ सेहो अपन गाम जाए पड़लैक । मुदा आब कएल की जाए? जिनगीकेँ फेरसँ पटरीपर कोना आनल जाए?” – गंगा मोने-मोन सोचैत छल। ओ गाम जाइत काल अपन आटोरिक्सा मरम्मति लेल देने रहैक । सभसँ पहिने ओ मिस्त्रीक ओहिठामसँ अपन आटो अनलक । आटो बाँचि गेल रहैक से बड़का उसास भेलैक । प्रातभेने अपन आटो संगे सड़कपर निकलि गेल । दिनभरि दिल्लीक सड़कपर आटो गुड़कबति रहल । साँझमे थाकल-झमारल अपन डेरापर वापस आएल । दिनभरि मेहनति केलासँ जे आमदनी भेलैक ताहिसँ किछु जरूरी समानसभ कीनलक । किछु टाका बँचा कए रखलक जाहिसँ आगू जरूरी काज करत । दोसरदिन भोरे फेर अपन काजपर निकलि गेल । कनीके फटकी गेल होएत की पुल लग एकटा बूढ़ दाढ़ी बढ़ओने हाथमे बाटी लेने भीख मांगि रहल छलैक । ओकर हालति देखि गंगाकेँ बहुत दया भेलैक । ओ आटो रोकलक आ ओहि बूढ़ा लग जा कए किछुटाका ओकर बाटीमे राखि देलकैक। तकरबाद ओ वापस अबैत रहए कि पाछूसँ ओ अबाज देलकैक-
“गंगा! गंगा!”
अपरिचित आदमीसँ अपन नाम सुनि कए गंगा चौकि गेल। पाछू तकैत अछि । ओएह बूढ़ा ओकर नाम लए चिकरि रहल छलैक ।
“तूँ हमरा कोना चिन्हैत छह?” – गंगा पुछलकैक।
“हद भए गेल । तूँ हमरा नहि चिन्हलह । मुदा हम तोरा नीकसँ चिन्हि गेलिअह ।”
“तूँ के छह?”
“हम छी मालिक।”
“गंगा ओकर बात सुनि अबाक रहि गेल । मालिक आ एहि हाल मे?”
गंगा हुनका प्रणाम करैत अछि आ आग्रहपूर्वक अपन आटोपर बैसा कए सोझे अपन डेरापर लेने अबैत अछि । मालिककेँ अपन चौकीपर बैसबैत अछि । हुनकर जलखै, चाहक जोगार करैत अछि । से सभ केलाक बाद मालिक चौकीपर ठामहि सुति रहलाह। घंटो ओहिना सुतल रहि गेलाह । ताबत गंगा भोजनक ओरिआनमे लागल रहल । मोने-मोन मालिकक दुर्दशापर सोचैत रहल । “ई समय ककरो नहि । एक समय छल जे सौंसे गाम हिनकर डरे थर-थर कपैत छल । आइ ओएह मालिक असहाय हमर चौकीपर पड़ल छथि।”
जखन ओ दुपहरिओमे नहि उठलाह, तखन गंगा हुनका हिलओलक । ओ उठि बैसलाह । मोनमे बहुत शांति लागि रहल छलनि । ओ चौकीपर बैसल छथि । कखनो आगू, कखनो पाछू देखि रहल छथि । बुझेबे नहि करनि जे ओ एहिठाम कोना अएलाह? हुनका एतए के आ किएक अनलकनि? हम सामने ठाढ़ रहिअनि । तथापि ओ हमरा देखि नहि रहल छलाह किंवा देखितहु बुझि नहि रहल छलाह जे ई सभ कोना भेलैक? जखन की ओएह हमरा सड़कपर चिन्हने रहथि । चारूकात गुम्मी पसड़ल छल । आखिर हमही बजैत छी-
“मालिक! हम छी गंगा ।”
“ओ! तँ हम एतए कोना आबि गेलहुँ?”
“सएह कहू? अहीं तँ हमरा चिन्हने रही ।”
“की कहियह, किछु मोने नहि रहैत अछि ।”
“सभ ठीक भए जेतैक । पहिने भोजन कए लिअ । फेर दुनूगोटे चैनसँ गप्प करब ।”
“ठीक छैक ।” मालिक पीढ़ीपर बैसि केराक पातपर भात, दालि, तरकारी, पापर आ तिलकोरक तरुआ भोजन करैत छथि। गंगाक प्रसन्नताक तँ अंते नहि अछि । जिनका डरे ओ गामसँ भागल छल सएह आइ ओकरे ओहिठाम भोजन कए रहल छलाह।
मालिककेँ कोनो सुधबुध नहि रहैत छलनि । बेसीकाल ओ गुमसुम रहैत छलाह । मुदा गंगा अपना शक्ति भरि हुनकर सेवा करए । ओकरा नीकसँ बुझल रहैक जे मालिकक केओ अपन बाँचल नहि छनि । हुनकर नातिन दीपाक देहांत भए गेल छैक । बेटा-बेटी पहिनहि मरि गेलनि । गामक संपत्ति स्वाहा भए गेल छनि। एही बातसभसँ ओ विक्षिप्त जकाँ रहैत छथि । मुदा कखनो काल हुनकर माथा काज करए लगैत छनि । एहने कोनो क्षणमे ओ एकदिन गंगाकेँ कहलखिन-
“एहिठाम हमरा तूँ कतेक दिन रखबह। हमरा एहिठाम मोनो नहि लगैत अछि । हमरा गाम दए आबह ।”
“मुदा गाममे कथीपर आ ककरा लग जाएब? कतए रहब? घर-घराड़ी सभ बिका गेल । जे बाँचल छल से लोकसभ दखल कए लेलक ।”
“से तूँ कि जाने गेलहक?”
“हम गाम गेल रही । सभकिछु अपने देखलहुँ । विश्वास नहि होइत छल जे जे देखि रहल छी से सही अछि ।”
ई सभ सुनि कए फेरसँ ओ अपन दुनिआमे चलि गेलाह। हम बड़ीकाल धरि ओतहि ठाढ़ रहि गेलहुँ । हुनका एहि हालतिमे छोड़ि कए जेबाक मोन नहि करए । मुदा ओ जखन टस सँ मस नहि भेलाह तँ हारि कए हमरा आटो चलेबाक हेतु जाए पड़ल । नहि जइतहुँ तँ रातिमे खइतहुँ की? आखिर हुनका चौकीपर ओहिना छोड़ि हम आटो चलबए चलि गेलहुँ ।
मालिककेँ गंगाक ओहिठाम मासक धक लागि गेलनि । ओकरा बुझेबे नहि करैक जे हिनकर की कएल जाए? ओ मोने-मोन सोचए – “हम हिनका कतेक दिन देखैत रहबनि। मुदा छोड़िओ कोना दिअनि? एहि महानगरमे हिनका के रखतनि? के देखभाल करतनि? मुदा हमही की करितहुँ? हमरा से आटो चलबएमे दिनभरि समय चलि जाइत अछि। साँझमे वापस डेरापर अबैत छी तँ ई कतहुँ सुन्न पड़ल रहैत छथि।”
गंगा दीपेंदुकेँ तकबाक प्रयास केलक। एकदिन ओकर डेरोपर गेबो कएल। मुदा ओहिमे ताला लागल छल । लगपासक लोककेँ किछु पता नहि रहैक जे ओ कतए गेलाह? अबैत रहए तँ डाकपीन भेटि गेलैक । ओ गंगाकेँ जनैत छलैक । गप्प-सप्पमे ओएह गंगाकेँ कहलक जे ओहो अमेरिका चलि गेलाह । हुनकर डेरा ओहिना खाली पड़ल अछि । गंगा डेरापर वापस आएल तँ मालिक चित्त भेल चौकीपर पड़ल रहथि। गंगा हुनकर नाकपर हाथ रखलक । छाती दिस देखलक । कतहु जीवनक कोनो संकेत नहि छल । मालिक एहि दुनिआकेँ छोड़ि चुकल छलाह ।
24
हम हीरासंगे कलकत्ता पहुँचलहुँ । ओहिठामक इंतजामक वर्णन की करू । हमरा लेल भूतलपर एकटा स्वतंत्र कोठरीमे सभटा ओरिआन छल । सोफा, पलंग, टीभी, फ्रीज सभकिछु सजाओल राखल छल । एकटा नौकर दिन-राति हमरामे लागल रहैत छल । तीन महलक मकानमे हमर कोठरीसँ सटले दहिना कात अस्पताल छल । ऊपर पहिल मंजिलपर रोगी सभक रहबाक ओरिआन छल। हीरा आ ओकर पति तेसर मंजिल पर रहैत छल ।
सुविधाक नामपर हमरा हीराक डेरापर की नहि छल? कोनो चीजक अभाव नहि, जे चाही से तुरंत हाजिर भए जाएत। मुदा अपन लोकक कतहु पता नहि छल । भोरसँ साँझ धरि बैसल रही। जलखै करी, चाह पिबी, टहली, अखबारो पढ़ी । मुदा तकर बाद…। मोन होइत जे हीरा भेटितए, जमाए भेटितथि, नातिन भेटैत, मुदा ककरो दर्शन होएब दुर्लभ । हम उठी भोरे चारि बजे । ताधरि ओ सभ सुतले रहैत छल । हम सुती नओ बजे ताधरि ओ सभ अपन-अपन काजमे व्यस्त रहैत छल । नातिनकेँ सेहो समय नहि रहैक । इसकुल, ट्यूशन, आओर कैक तरहक व्यस्तता । हमर कोठरीमे एकटा आधुनिक टीभी राखल छल । ओकरा चलेबाक हेतु चारि प्रकारक रिमोट चलबए पड़ैत छल । कोनोसँ अबाज अबितए, कोनोसँ चैनल बदलल जाइत, कोनोसँ इंटरनेट चलैत..। हमरा बुते एतेक रिमोटकेँ सम्हारब मोसकिल छल । जखन कखनहु नौकर अबैत तँ हमर आग्रहपर ओ टीभी चला दैत । यदि ओ नहि अछि तँ ओकरा बंदो केनाइ पराभव ।
कुलमिला कए हमर जिनगी ओहि कोठरी धरि सीमित भए गेल छल । कखनो काल मोन उद्विग्न भए जाए तँ ओसारापर ठाढ़ भए जइतहुँ । कतहु केओ नहि देखाइत । कखनो काल कोनो रोगीक आवागमनसँ कनीकाल लगपासमे चहल-पहल रहैत । कखनो दूधबला, कखनो अखबारबला तँ कखनो तरकारी बेचएबला देखाइत । मोन होइत जे ओकरेसभकेँ भरिपाँज पकड़ि ली । कहिऐक – “रे बाबू! हमरा अपन गाम लए चल । हम एहिठाम बताह भए जाएब ।” मुदा ओहि अपरिचित परिवेशमे हमरा सन दुर्दशाग्रस्त बृद्धक केँ सुधि लैत?
गामसँ कलकत्ता जेबाक समय हुनकर देल पेटी सेहो हम लेने गेल रही । गाममे असगर छोड़ल नहि गेल । ओ हुनकर स्मृतिसँ जुड़ल छल । सोचैत रही जे कहुना ओकरा पुतहुकेँ दए सकितिअनि तँ हम भारी ॠणसँ मुक्त भए जइतहुँ । हुनकर अंतिम इच्छाक पालन कए सकितहुँ । मुदा आब तँ शंकरेक कोनो अता-पता नहि अछि, पुतहुक बात तँ जाए दिअ । अपने चलि गेली से गेली, ई पेटी हमरा गरामे बान्हि गेलीह । हम बहुत दिनधरि मोहवश एकरा जोगा कए रखलहुँ । ओहि पेटीमे की छैक, तकरा जानबाक कहिओ प्रयास नहि केलहुँ । जहिना ओ देलथि तहिना तहिएसँ बंद पड़ल अछि । आब तँ अपने कोनो सुधि नहि रहैत अछि तँ एहि पेटीक कोन ठेकान? नित्य सुतबासँ पूर्व ओहि पेटी दिस देखैत छलहुँ। मोनमे हुनकर स्मृति टटका भए जाइत छल। ओछाओनपर पड़ल-पड़ल कनीकाल कानि लैत छलहुँ आ सुति जाइत छलहुँ।
कैकबेर मोन होअए जे हीराकेँ ई पेटी सुंझा दिअनि । माएक समाद सेहो कहि दिअनि । आगू ओ जानथि । मुदा सेहो नहि कए पाबी । मोहग्रस्त मोन किछु करए नहि दिअए । “जाबे जीबैत छी ताबत तँ एकरा सम्हारि कए राखू” – मोनमे अबाज होइत।
कैकबेर हीरासँ भेंट भेला दस-दस दिन भए जाइत छल। हुनको अपन मजबुरी रहल हेतनि । जमाएसँ भेंट भेला कतेक दिन भेल से मोन नहि पड़ि रहल अछि । एमहर हमर मोन सेहो कोनादनि करैत रहैत अछि । भोजन कए लैत छी आ बिसरि जाइत छी । स्नान केलाक बादो होइत रहैत अछि जे स्नान नहि केलहुँ अछि । कैकबेर नहाइत रहि जाइत छी । कखनहु काल होइत रहत जेना सौंसे देहपर चुट्टी चलि रहल अछि । कखनो काल दिनेमे होइत जे राति भए गेल अछि । लगैत जेना केओ हमर नाम लए चिकरि रहल अछि । कहि रहल अछि- “भाग मनोहर भाग, एहिठामसँ भाग । चलि जो अपन डीहपर । कम सँ कम अपन जन्मस्थानमे मरि सकबए। नीकसँ श्राद्ध भए सकतौक। अपन पसिंदक गाछ तरमे सारा बनि सकतौक । एहिठाम की? कतहु डाहि देल जेबह। कतए सारा बनत? के श्राद्ध करत? के भोज खाएत?” ताबतेमे ओकील मोन पड़ि जाइत,मुखिआ मोन पड़ि जाइत । गामक घर,जमीन-जायदाद मोन पड़ि जाइत । चारूकात भम्ह पड़ैत घर मोन पड़ि जाइत । “आब बाजह? गाम जेबह की?”
ओहिदिन हीराक अस्पताल बंद रहैक । मौका देखि ओ हमरासँ भेंट करए आएलि । संगमे हमर नातिन सेहो छलि। हम चुपचाप कोनमे ठाढ़ रही । मोन होअए जे हीराकेँ आएल देखि प्रसन्न होइ, ओकरासँ गप्प करी । मुदा बकारे नहि फुटए । हीरा कैकबेर हमरा टोकलक । जखन हम ओहिना गुम-सुम रहि गेलहुँ, मोन कतहु आओर टांगल सन रहि गेल, हीरासँ, नातिनसँ गप्प करबाक कोनो उत्सुकता नहि भेल तँ ओ तुरंत वाहन चालककेँ बजओलक, हमरा कारमे बैसओलक आ लेने-देने मनोरोगी अस्पतालमे भर्ती करा देलक ।
25
हमरा अस्पतालमे भर्ती करबा कए हीरा वापस घर चलि गेलि। हम असगर ओतए एकटा कोठरीमे पड़ल छलहुँ कि गंगाक फोन आएल ।
“कोना छी?”
“कोना की रहब? हीरा हमरा मनोरोगी अस्पतालमे छोड़ि देलक अछि । तूँही कहह जे एकटा स्वस्थ आदमीकेँ जखन एहि अस्पतालमे राखि देल जाएत तँ ओकरा केहन लागत? हम तँ ओकरा ओहिठाम परेसान रही कारण दिन भरि ककरोसँ भेंट नहि होअए, करबाक हेतु कोनो काज नहि रहए । ने कतहु जाइ ने केओ आबए । बस, एकटा नौकर छल जे हमर नेकरम करए । ओकरो की सिखाओल-पढ़ाएल रहैक जे मुँह खोलबे नहि करए । कतबो प्रयास करितहुँ जे किछु गप्प करी जाहिसँ मोन हल्लुक होइत, ओ बजबे नहि करैत । अपन काज करैत आ चुपचाप घसकि जाइत। मसीनोकेँ चला दैत छैक तँ ओ बाजए लगैत छैक, मुदा ओ तँ ताहूसँ गेल-गुजरल छल । कहिओ दस दिनपर हीरा अबितए । औपचारिकतावश, दस मिनट किछु-किछु बजैत रहितए आ तकर बाद जे जाइत से गेले रहि जाइत । ओकरा रोगीकेँ इलाज करबासँ फुरसतिए नहि रहैत छैक । टाका कमाएपर लागल अछि। ओकर घरबला सेहो ओकरेसंगे अस्पतालमे व्यस्त रहैत छैक । एहनमे मोन कोना ने औनाइत?”
“अहाँ चिंता नहि करू । हम समाधान ताकि लेलहुँ अछि।”
“की?”
“बंगलागढ़, दरभंगामे एकटा वृद्धाश्रमक निर्माण कए रहल छी । मास-दूमास आओर लागत । एहि संस्थाक नाम अछि, नूतन प्रभात। गाम-घरमे परेसानीमे पड़ल बूढ़ लोकनिक एहिठाम आश्रय भेटतनि । गामे जकाँ सभटा ओरिआन रहत । ककरोसँ कोनो प्रकारक शुल्क नहि लेल जाएत । स्वेच्छासँ जँ केओ संस्थामे दान देबए चाहथि तँ से मना नहि कएल जाएत । दिल्लीक घर बेचि सभटा टाका ओहिमे लगा देलिऐक अछि । सरकारसँ सेहो किछु मदति भेटबाक प्रयास कए रहल छी ।”
“मुदा तोरा ई संस्था खोलबाक विचार कोना भेलह?”
“जहिआसँ हमर माए-बाबू गुजरि गेलाह तहिएसँ हुनकर स्मृतिमे किछु-ने-किछु करबाक इच्छा छल । मुदा जखन दिल्लीमे मालिकक दयनीय स्थिति देखलिअनि आ अहाँक कष्ट देखलहुँ तँ भेल जे किछु करबाक चाही । संयोगसँ दीपेंदुसँ ओही बीचे गप्प भेल । हम हुनका अपन मोनक बात कहलिअनि । ओ ओहि समय अमेरिकामे कोनो नीक नौकरी करैत छलाह । कहए लगलाह-
“दरभंगामे हमर घर खाली पड़ल अछि । हम ओकरा एहि काजक हेतु दान कए देब ।” संगहि किछु टाका सेहो मदति करबाक आश्वासन देलनि । हुनकर सहयोगसँ ई काज करब आसान भए गेल ।
हमरा गंगासँ फोनपर गप्प करैत ओहि अस्पतालक मनोचिकित्सक देखलक । ओ हमर कोठरीक बाहर ठाढ़ भेल हमरसभक गप्प-सप्प सुनैत रहल ।
“ई आदमी तँ एकदम ठीक अछि। एकरा कोनो बिमारी नहि छैक । तखन एकरा एहिठाम किएक आनल गेल?” – डाक्टर मोने-मोन सोचैत छल ।
हमर ध्यान अचानक डाक्टरपर गेल । हम फोन राखि देलिऐक ।
डाक्टर साहेब इसारासँ पुछलनि –
“फोन किएक राखि देलिऐक?”
“भेल जे कहीं अहाँ तमसा ने जाइ।”
“एहिमे तमसेबाक कोन बात छैक?”
“हम तँ एहि बातसँ पहुत प्रसन्न छी जे अहाँ एतेक नीकसँ फोनपर गप्प कए लैत छी । हमरा विचारसँ अहाँकेँ एहि अस्पतालमे रखबाक कोनो जरूरति नहि अछि । हम अहाँक बेटीकेँ फोन कए बजा दैत छी। अहाँ हुनका संगे चलि जाएब ।”
“नहि नहि । से टा नहि करब ।”
“से किएक?”
“हमर कष्टक कारणे ओएह थिक । ओ आएत आ फेरसँ हमरा ओहि कोठरीमे राखि देत ।”
“से की?”
“जाए दिअ ओ बातसभ । हमरा अहाँ पठा सकी तँ अपन गाम पठा दिअ । हम ओतए जाइते ठीक भए जाएब ।”
“ठीक तँ अहाँ छीहे ।”
“से तँ अहाँ ने कहैत छी । मुदा हमर बेटीकेँ कहब जे ओ बड़का डाक्टर अछि । ओकरे चलते हमर ई गति भेल अछि।”
“अहाँक पारिवारिक विषयमे हम की कए सकैत छी?”
“अहाँकेँ किछु करबाक काज नहि अछि ।”
“तखन?”
“गंगा अपना संगे हमरा लेने जाएत ।”
“मुदा अहाँक बेटी जँ हमरा पुछतीह तँ हम की जबाब देबैक?”
“कहि देबैक जे ओ गाम चलि गेलाह ।”
हम मास दिन ओहि अस्पतालेमे रहि गेलहुँ । कथी लेल हीरा कहिओ अबैत? “भने ओतए पड़ल छथि ।” – ओ सोचैत होएत।
एकदिन भोरे गंगा ओतए आएल । सबसँ पहिने ओ डाक्टरसँ भेंट केलक । ओकर चर्चा डाक्टर साहेब लग हम कैक बेर केने रहिऐक । तेँ ओ धर दए गंगाकेँ अपन कोठरीमे बजा लेलखिन ।
“हम मनोहरजीकेँ अपना संगे लए जेबनि ।”
“से तँ ओहो कहने रहथि । मुदा हुनकर बेटीकेँ पुछब जरूरी अछि । कारण अस्पतालक कागजपर हुनके दस्तखत छनि।”
“कोनो हरजा नहि । हम अपने हुनकासँ भेंट कए लैत छिअनि”
गंगा हमरा लग पहुँचल । ओकरा देखितहि हमरा जानमे-जान आएल । हम अपन ओछाएन सभ समेटलहुँ । अपन घरक सर्ट-पैंट पहिरलहुँ आ कुर्सीपर बैसि गेलहुँ ।
मुदा गंगाकेँ असमंजसमे देखलिऐक ।
“की बात छैक? तूँ किछु परेसान बूझा रहल छह?”
“डाक्टर कहलक जे हीराकेँ बजबए पड़त । तखने काज आगू बढ़त ।”
“डाक्टर के होइत अछि हमरा एतए राखएबला? जखन ओ स्वयं कहि रहल अछि जे हम ठीक छी । तखन हमरा एतए रोकबाक अधिकार ओकरा कतएसँ अएलैक? हम कोनो नवालिग नहि छी, पागल नहि छी, हमसभ तरहें ठीक छी । ई बात स्वयं डाक्टरो कहि रहल छथि । तखन हमरा ककरो अनुमति किएक चाही?”
“तखन?”
“तखन की? एहिठाम आब एक मिनट नहि रहि सकैत छी।”
ताबत डाक्टरो ओतए आबि गेल छलाह । हम हुनका पुछैत छिअनि-
“जखन हम ठीक छी तखन हमरा अहाँ किएक रोकि रहल छी?”
“हमरा भेल जे एकबेर हीराकेँ भेंट कए लितिअनि । ओ हमर संगी छथि । कहीं तमसा ने जाथि।”
“छोड़ू ई बात सभ । हम जा रहल छी । जाइत-जाइत हम स्वयं ओकरा भेंट करबैक आ सभटा बात बुझा देबैक जाहिसँ अहाँकेँ कोनो परेसानी नहि होएत ।”
हम गंगासंगे अस्पतालसँ बिदा भेलहुँ । डाक्टर साहेब मोने-मोन बहुत प्रसन्न रहथि । जाइत-जाइत एकटा मिठाइक डिब्बा हमरा पकड़ा देलाह ।
हम गंगा संगे कारसँ आगू बढ़ि जाइत छी ।
26
हुनकर देल पेटीक संगे हम नूतन प्रभात आबि गेल छी । रस्तामे गंगा हमर हिफाजति करैत रहल । हमर मनोवल बढ़बैत रहल । हम गंगाक स्वभावसँ पूर्व परिचित छलहुँ । ओकरा हमरासँ कोनो स्वार्थ नहि रहैक । ओकरा हमर संपत्तिपर बकोदृष्टि नहि रहैक। ओ निःस्वार्थ भावसँ अपन समस्त संपत्तिक दान कए अपन माता-पिताक स्मृतिमे नूतन प्रभात संस्थाक स्थापना केने छल । ओकर पत्नी, बच्चासभ आ स्वयं दिन-राति ओहि संस्थामे काज करैत छल। ओकरसभक समय दिन-राति ओतहि बीतैत छलैक । ओकरा कोनो लोभ नहि रहैक, ककरोसँ कोनो अपेक्षा नहि रहैक । ओकरा हमर कष्ट देखल नहि गेलैक । मालिकक दुर्दशा देखि ओ विचलित भए गेल छल । फेर एहन-एहन उदाहरण तँ घरे-घर पसरि गेल अछि । बृद्ध लोकनिक जीवन आ सम्मानक रक्षा जेना लोक बिसरि गेल अछि । जखन कि सभकेँ बूढ़ हेबाके छैक । मुदा भोगवादी संस्कृतिक बिहारिमे आगू-पाछू किछु नहि सुझि रहल छैक ।
गंगा अपन समस्त शक्तिसँ नूतन प्रभातक विकासमे लागल रहल । परिणामस्वरूप, साले भरिमे ओहि संस्थामे सएसँ बेसीए बृद्ध आबि गेलाह । जगह कम पड़ए लागल । धनक अभाव नहि रहि गेलैक । गंगाक इमान्दारीपर सभक विश्वास रहैक । देश-विदेशसँ चंदा अबैत रहैत छल । कालक्रमे दरभंगासँ सटले हाइवेपर एकटा विशाल भवनक निर्माण करबाक योजना बनाओल गेल जाहिमे बृद्ध लोकनिकेँ एकहिठाम सभटा सुविधा भेटतनि । ओतहि अस्पताल सेहो रहत । मनोरंजनक हेतु समस्त व्यवस्था तँ हेवे करत। बामा कात मंदिर रहत जतए नित्य कीर्तन, भजन होइत रहत।
गंगाक सहयोगसँ ओहि संस्थामे हमर समय बहुत नीकसँ बीति रहल छल । कखन भोर होइक, कखन साँझ होइक किछु पता नहि चलए । मुदा मोनमे कतहु एकटा कचोट रहिए गेल रहए। हुनकर देल पेटीकेँ देखितहि हम भावविभोर भए जाइ । लगैत छल जेना ओ कहि रहल छथि-
“सएह कहू । अहाँ बुते बौआक बिआहो कराएब नहि पार लागल । हमर सनेस अहाँ हमर पुतहु धरि नहि पहुँचा सकलहुँ।” हम एहि मनोव्यथासँ उबरि नहि पाबि रहल छलहुँ । ताहिपर सँ सुनलिऐक जे शंकरकेँ निशा छोड़ि देलकनि । किछुदिन सँ आब ओ अंग्रेजक संगे रहि रहल अछि । ई समाचार सुनि हम बहुत निराश भए गेलहुँ । भेल जे गंगासँ अपन मनोस्थितिपर चर्च करी । फेर सोचलहुँ – “आखिर हम ओकरा कतेक तंग करिऔक । ओहो तँ मनुक्खे अछि । फेर ओ बहुत नीक काजमे लागल अछि। हमरा सन-सन कतेको वयोबृद्धक जीवन बँचा रहल अछि । ओकरा अपनेमे ओझरेने रहब उचित नहि।”
एकदिन भोरे सुति-उठि तैयार भेलहुँ । बामा हाथमे पेटी आ दहिना हाथमे बेंत लेने बिदा भेलहुँ । कनीके आगू बढ़ल होएब की गंगा भेटि गेल । हमरा एना जाइत देखि ओ छटपटा गेल । हमर पैरपर खसि पड़ल । कहए लागल-
“हमरा एना छोड़ि कए नहि जाउ । जँ हमरासँ कोनो गलती भेल तँ माफ करू ।”
“तोरासँ गलतीक सबाले नहि उठैत अछि । तूँ तँ हमरा लेल भगवानक वरदान साबित भेलह । मुदा समय-समयक बात छैक । हमरा केओ बजा रहल अछि । आब हम चलब ।”
“मुदा अहाँ जा कतए रहल छी?”
“गंगोत्री।”
“मुदा एहि बएसमे असगरे अहाँ गंगोत्री कोना जाएब?”
“से जानथि भगवान ।”
“हम अहाँक संगे चलब।”
हम कतबो कहलिऐक गंगा नहि मानलक । ओ हमरा संगे बिदा भए गेल ।
27
गंगोत्रीक सुरम्य वातावरणमे पहुँचि हम आनंदसँ गद-गद छलहुँ । लगैत छल जे आइ जीवनक सभसँ नीक दिन अछि। अछि कोना ने? हम आइ हुनकासँ फेरसँ भेंट हेबाक सुखद अनुभूति कए रहल छी । जेना ओ आ हम संगे गंगाक कातमे ठाढ़ छी ।
“नहि, नहि ओ नहि हुनकर देल गेल पेटी हमरा संगे अछि।”
हम ओहि पेटीकेँ गंगामे विसर्जित करैत छी । गंगा सेहो लगीचेमे ठाढ़ छल ।
“माफ करब । हम अहाँक संकल्पकेँ नहि राखि सकलहुँ। हम अहाँक देल चीज अहींकेँ समर्पित करबाक हेतु विवश छी ।”
“कोनो बात नहि …। ई जीवन थिक । अपूर्णता एकर स्वभाव छैक।”- लागल जेना गंगाक कलकल करैत धाराक मारफत ओ अपन बात कहि रहल छथि ।
हमर आँखिसँ एकबूंद नोर खसि पड़ैत अछि । गंगा से देखैत अछि । ओ भरि पाँज कए हमरा पकरि लैत अछि । हम अपन झोरासँ दूटा लिफाफा निकालैत छी ।
“ई की अछि?”
“एहिमे हमर गामक सभटा संपत्तिक नूतन प्रभातकेँ दान देबाक इच्छापत्र अछि ।”
“आ दोसर लिफाफामे?”
“मुखिआक नामसँ दस लाखक बैंक ड्राफ्ट अछि जे तूँ ओकरा दए दिअहक ।”
गंगा हमरा दिस बकर-बकर देखैत रहि जाइत अछि । हम ओकरा इसारासँ ओहि कागजकेँ सम्हारि कए रखबाक आग्रह करैत छी । गंगा हमर बात मानि जाइत अछि । जाबे गंगा ओहि कागजकेँ राखलक ताबते हम आगू बढ़ि जाइत छी। गंगामे डुबकी लगबैत काल एकबेर फेर ओ स्मृतिमे अबैत छथि । जेना ओ कहि रहल छथि-
“देखू, अहाँक बिना हम काँट-काँट भए गेल छी । आब देरी नहि करू । हम ई वियोग आओर नहि सहि सकैत छी।”
“आब किएक परेसान छी? हम तँ अहीं लग आबि रहल छी ।”
गंगा पलटि कए देखैत अछि । हम कतहु नहि देखाइत छी। ओ थोड़े काल अबाक ठामहि रहि जाइत अछि । हम ओकरा गंगामे कनीके फटकी तेजीसँ बहाइत देखाइत छिऐक । ओ चाहिओ कए किछु नहि कए पबैत अछि । ओकर आँखिसँ अश्रुक धार अविरल बहि रहल छैक । लगीचेमे ठाढ़ एकटा महात्माजी ओकर माथपर हाथ दैत कहैत छथिन-
“आब हुनकर मोह छोड़ह । ओ तँ मुक्त भए गेलाह ।”
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