स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
विभीषण केर भगवान् श्री रामजीक शरण लेल प्रस्थान तथा शरण प्राप्ति
१. श्री रामजी सत्य संकल्प एवं (सर्वसमर्थ) प्रभु छथि आर (हे रावण) अहाँक सभा काल केर वश अछि। तेँ हम आब श्री रघुवीर केर शरण मे जाइत छी, आगू हमरा दोष नहि देब। – एना कहिकय विभीषणजी जहिना चलला, तहिना सब राक्षस आयुहीन भ’ गेल। ओकरा सभक मृत्यु निश्चित भ’ गेलैक।
२. शिवजी कहैत छथि – हे भवानी! साधु केर अपमान तुरन्ते सम्पूर्ण कल्याण केर हानि (नाश) कय दैत छैक। रावण जाहि क्षण विभीषण केँ त्यागलक, ताहि क्षण ओ अभागा वैभव (ऐश्वर्य) सँ हीन भ’ गेल। विभीषणजी हर्षित भ’ कय मोन मे कतेको रास मनोरथ करैत श्री रघुनाथजीक पास चलि देलाह। ओ सोचैत जा रहल छथि – “हम जाकय भगवान् केर कोमल आ लाल वर्ण केर सुन्दर चरणकमल केर दर्शन करब, जे सेवक सब केँ सुख दयवला अछि, जाहि चरण केर स्पर्श पाबि ऋषि पत्नी अहल्या तरि गेलीह आ जे दंडकवन केँ पवित्र करयवला अछि। जाहि चरण केँ जानकीजी हृदय मे धारण कय रखने छथि, जे कपटमृग संग ओकरा पकड़बाक लेल दौड़ल छल आर जे चरणकमल साक्षात् शिवजीक हृदय रूपी सरोवर मे विराजैत अछि, हमर अहोभाग्य अछि जे हुनकहि आइ हम देखब। जाहि चरण केर पादुका मे भरतजी अपन मोन लगा रखने छथि, अहा! आइ हम वैह चरण केँ एखनहि जाकय अपन आँखि सँ देखब।”
३. एहि तरहें प्रेमसहित विचार करिते ओ शीघ्रहि समुद्रक ओहि पार (जेम्हर श्री रामचंद्रजीक सेना छल) आबि गेलाह। बानर सब विभीषण केँ अबैत देखलक त ओ सब बुझलक जे शत्रु पक्षक कियो दूत छी। हुनका पहरा पर रोकिकय ओ सब सुग्रीव लग गेल आ हुनका सबटा समाचार कहि सुनेलक। सुग्रीव श्री रामजी लग जाकय कहलखिन – “हे रघुनाथजी! सुनू, रावणक भाइ अपने सँ भेटय आयल अछि।” प्रभु श्री रामजी कहलखिन – “हे मित्र! अहाँक कि कहब अछि?” वानरराज सुग्रीव कहलखिन – “हे महाराज! सुनू, राक्षस सभक माया कियो नहि बुझि पबैत अछि। ई सब इच्छानुसार रूप बदलयवला छली सब होइछ, नहि जानि कोन कारण सँ एतय आयल अछि। बुझि पड़ैत अछि जे ई मूर्ख हमरा लोकनिक भेद लेबय आयल अछि, ताहि लेल हमरा त यैह ठीक बुझाइत अछि जे एकरा बान्हिकय राखल जाय।”
४. श्री रामजी कहलखिन – “हे मित्र! अहाँ नीति त ठीके विचारलहुँ, मुदा हमर प्रण अछि जे शरणागतक भय केँ हरण करू!” प्रभुक वचन सुनिकय हनुमान्जी हर्षित भेलाह आ मनहि-मन कहय लगलाह जे भगवान् केहेन शरणागतवत्सल (शरण मे अयला पर पिताक भाँति प्रेम करयवला) छथि।
सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि।
ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि॥४३॥
श्री रामजी फेर बजलाह – “जे मनुष्य अपन अहित केर अनुमान कयकेँ शरण मे आयल जीव केँ त्यागैत अछि, से पामर (क्षुद्र) छी, पापमय छी, ओकरा देखइयो मे हानि होइछ, पाप लगैछ।”
“जेकरा करोड़ों ब्राह्मणहु केर हत्या लागल होइ, शरण मे अयला पर हम ओकरहु त्याग नहि करैत छी।”
“जीव जहिना हमर सम्मुख होइत अछि, तहिना ओकर करोड़ों जन्मक पाप नष्ट भ’ जाइत छैक।”
“पापी केर ई सहज स्वभाव होइत छैक जे हमर भजन ओकरा कहियो नहि सोहाइत छैक। यदि ओ (रावणक भाइ) निश्चय टा दुष्ट हृदयक होयत त कि ओ हमर सम्मुख आबि सकैत छल?”
निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा॥
भेद लेन पठवा दससीसा। तबहुँ न कछु भय हानि कपीसा॥३॥
“जे मनुष्य निर्मल मन के होइछ, वैह हमरा पबैछ। हमरा कपट आर छल-छिद्र नहि सोहाइछ। यदि ओकरा रावण भेदे लियए लेल पठेलक हँ, तैयो हे सुग्रीव! अपना सब केँ कोनो भय अथवा हानि नहि अछि।”
“कियैक तँ हे सखे! जगत मे जतेको राक्षस सब अछि, लक्ष्मण क्षणहि भरि मे ओकरा सबकेँ मारि सकैत छथि आ यदि ओ भयभीत भ’ कय हमर शरण मे आयल अछि तखन त हम ओकरा प्राणक समान जोगाकय राखब।”
कृपाक धाम श्री रामजी हँसिकय कहलखिन – “दुनू स्थिति मे ओकरा लेने आउ।”
५. तखन अंगद आ हनुमान् सहित सुग्रीवजी ‘कपालु श्री रामजी की जय हो’ कहिते चलि पड़लाह। विभीषणजी केँ आदर सहित आगू कयकेँ बानर सब फेर ओतय चललाह जेतय करुणाक खान श्री रघुनाथजी रहथि। नेत्र केँ आनन्दक दान देनिहार दुनू भाइ लोकनि केँ विभीषणजी दूरहि सँ देखलनि। फेर शोभाक धाम श्री रामजी केँ देखिकय ओ पलक झपकनाय तक रोकिकय, स्तब्ध मुद्रा सँ एकटक देखिते रहि गेलाह।
६. भगवान् केर विशाल भुजा छन्हि, लाल कमल समान नेत्र छन्हि आर शरणागत केर भय केँ नाश करयवला साँवला शरीर छन्हि। सिंह जेकाँ कन्धा छन्हि, विशाल वक्षःस्थल (चौड़ा छाती) खूब शोभा दय रहल अछि। असंख्य कामदेव केर मन केँ मोहित करयवला मुखमण्डल छन्हि। भगवान्क स्वरूप देखिकय विभीषणजीक नेत्र मे प्रेमाश्रुक जल भरि गेलनि आ शरीर अत्यन्त पुलकित भ’ गेलनि। फेर मोन मे धीरज धयकय ओ कोमल वचन बजलाह –
“हे नाथ! हम दशमुख रावण केर भाइ छी। हे देवता सभक रक्षक! हमर जन्म राक्षस कुल मे भेल अछि। हमर तामसी शरीर अछि, स्वभावहि सँ हमरा पाप प्रिय अछि, जेना उल्लू केँ अन्धकार सँ सहज स्नेह होइत छैक। हम कान सँ अपनेक सुयश सुनिकय आयल छी जे प्रभु भव (जन्म-मरण) केर भय केँ नाश करयवला छथि। हे दुखियाक दुःख दूर करयवला आ शरणागत केँ सुख दयवला श्री रघुवीर! हमर रक्षा करू, रक्षा करू।”
७. प्रभु हुनका एतेक कहिकय दंडवत् करैत देखलनि त ओ खूब हर्षित भ’ कय तुरन्त उठलाह। विभीषणजीक दीन वचन सुनला पर प्रभुक मोन केँ बहुते नीक लगलनि। ओ अपन विशाल भुजा सँ पकड़िकय हुनका हृदय सँ लगा लेलनि। छोट भाई लक्ष्मणजी सहित गला मिलिकय हुनका अपना लग बैसाकय श्री रामजी भक्त सभक भय केँ हरयवला वचन बजलाह –
“हे लंकेश! परिवार सहित अपन कुशल कहू। अहाँक निवास खराब जगह पर अछि। दिन-राति दुष्ट सभक मंडली मे बसैत छी। एहेन दशा मे हे सखे! अहाँक धर्म कोन तरहें निभैत अछि?”
“हम अहाँक सब रीति (आचार-व्यवहार) जनैत छी। अहाँ अत्यन्त नीतिनिपुण छी, अहाँ केँ अनीति नहि सोहाइत अछि। हे तात! नरक मे रहनाय बरु नीक अछि, लेकिन विधाता दुष्ट केर संग कहियो नहि देथि।”
८. विभीषणजी कहलखिन – “हे रघुनाथजी! आब अपनेक चरणक दर्शन कय हम कुशल सँ छी, जे अपने अपन सेवक जानिकय हमरा उपर दया कयलहुँ अछि।
ताबत धरि जीव केर कुशल नहि छैक आ न सपनहुँ मे ओकर मोन केँ शान्ति छैक जाबत धरि ओ शोक केर घर काम (विषय-कामना) केँ छोड़िकय श्रीरामजी केँ नहि भजैत अछि।
लोभ, मोह, मत्सर (डाह), मद आर मान आदि अनेकों दुष्ट ताबत धरि हृदय मे बसैत छैक जाबत धरि धनुष-बाण आ कमर मे तरकस धारण कएने श्री रघुनाथजी हृदय मे नहि बसैत छथि।
ममता पूर्ण अन्हरिया राति थिक, जे राग-द्वेष रूपी उल्लु सब केँ सुख दयवाली होइछ। से ममतारूपी रात्रि ता धरि जीव केर मोन मे बसैत छैक, जा धरि प्रभु अपनेक प्रतापरूपी सूर्य उदय नहि होइत छैक।
हे श्री रामजी! अपनेक चरणारविन्द केर दर्शन कय आब हम कुशल सँ छी, हमर भारी भय मेटा गेल।
हे कृपालु! अपने जेकरा पर अनुकूल होइत छी, ओकरा तीनू प्रकारक भवशूल (आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक ताप) नहि व्यापैत छैक।
हम अत्यन्त नीच स्वभाव केर राक्षस छी। हम कहियो शुभ आचरण नहि कयलहुँ। जिनकर रूप मुनियो लोकनिक ध्यान मे नहि अबैत अछि, से प्रभु स्वयं हर्षित भ’ कय हमरा हृदय सँ लगा लेलनि, हे कृपा आ सुख केर पुंज श्री रामजी! हमर अत्यन्त असीम सौभाग्य अछि, जे हम ब्रह्मा आ शिवजी द्वारा सेवित युगल चरणकमल केँ अपन नेत्र सँ देखलहुँ।”
९. श्री रामजी कहलखिन्ह – “हे सखा! सुनू, हम अहाँ केँ अपन स्वभाव कहैत छी, जे काकभुशुण्डि, शिवजी और पार्वतीजी सेहो जनैत छथि।
कोनो लोक सम्पूर्ण जड़-चेतन जगत् केर द्रोही हो, यदि ओहो भयभीत होइत हमर शरण ताकिकय आबि जाय, आ मद, मोह तथा नाना प्रकार केर छल-कपट त्यागि दियए त हम ओकरा तुरन्त साधु समान बना दैत छी।
माता, पिता, भाइ, पुत्र, स्त्री, शरीर, धन, घर, मित्र और परिवार – एहि समस्त ममत्वरूपी ताग केँ गुहिकय ओकर डोरी बना ओहि डोरी सँ जे अपन मोन हमरा चरण मे बान्हि लैत अछि, सम्पूर्ण सांसारिक सम्बन्ध सभक केन्द्र हमरा बना लैत अछि, जे समदर्शी अछि, जेकर कोनो इच्छा नहि छैक आर जेकर मोन मे हर्ष, शोक आ भय नहि छैक – एहेन सज्जन हमर हृदय मे केना बसैत अछि, जेना लोभीक हृदय मे धन बसल करैत छैक।
अहाँ समान सन्त टा हमरा प्रिय छथि। हम आर केकरो निहोरा सँ (कृतज्ञतावश) देह धारण नहि करैत छी। जे सगुण (साकार) भगवान् केर उपासक छथि, दोसरक हित मे लागल रहैत छथि, नीति आ नियम सब मे दृढ़ छथि आ जिनका ब्राह्मण लोकनिक चरण मे प्रेम अछि, ओ मनुष्य हमरा प्राणक समान प्रिय छथि। हे लंकापति! सुनू, अहाँ मे उपर्युक्त सब गुण अछि। एहि सँ अहाँ हमरा बड बेसी प्रिय छी।”
१०. श्री रामजीक वचन सुनिकय सब बानर लोकनिक समूह कहय लागल – “कृपा के समूह श्री रामजी की जय हो!” प्रभुक वाणी सुनैत छथि आर से कान लेल अमृत बुझि विभीषणजी अघाइत नहि छथि। ओ बेर-बेर श्री रामजीक चरणकमल केँ पकड़ैत छथि, अपार प्रेम छन्हि, हृदय मे समाइत नहि छन्हि। विभीषणजी कहैत छथिन – “हे देव! हे चराचर जगत् के स्वामी! हे शरणागत के रक्षक! हे सभक हृदय के भीतर के जननिहार! सुनू, हमर हृदय मे पहिने किछु वासना छल। से प्रभुक चरणक प्रीति रूपी नदी मे बहि गेल। आब त हे कृपालु! शिवजीक मन केँ सदैव प्रिय लागयवला अपन पवित्र भक्ति हमरा देल जाउ।”
११. ‘एवमस्तु’ (एहिना हो) कहिकय रणधीर प्रभु श्री रामजी तुरन्ते समुद्रक जल माँगलनि। आर कहलखिन – “हे सखा! यद्यपि अहाँक कोनो इच्छा नहि अछि, मुदा जगत् मे हमर दर्शन अमोघ अछि, ओ निष्फल नहि जाइछ।” एना कहिकय श्री रामजी हुनका राजतिलक कय देलखिन्ह। आकाश सँ पुष्पक अपार वृष्टि होबय लागल। श्री रामजी रावण केँ क्रोध रूपी अग्नि मे, अपनहि श्वास रूपी पवन सँ प्रचंड भ’ रहल छल, से जरैत विभीषण केँ बचा लेलनि आर हुनका अखंड राज्य दय देलनि। शिवजी जे संपत्ति रावण केँ दसो सिर केर बलि देला देने रहथि, वैह संपत्ति श्री रघुनाथजी विभीषण केँ बहुते सकुचाइत दय देलनि। एहेन परम कृपालु प्रभु केँ छोड़िकय जे मनुष्य दोसर केँ भजैत अछि, से बिना सींग-पूँछ केर पशु थिक। अपन सेवक जानिकय विभीषण केँ श्री रामजी अपना लेलनि। प्रभुक स्वभाव बानरकुल केर मोन केँ बड नीक लगलैक। फेर सब किछु जानयवला, सभक हृदय मे बसयवला, सर्वरूप (सब रूप मे प्रकट), सबसँ रहित, उदासीन, कारण (भक्त पर कृपा करबाक लेल) सँ मनुष्य बनल तथा राक्षस सभक कुल केँ नाश करयवला श्री रामजी नीति केर रक्षा करयवला वचन बजलाह –
शेष ऐगला अध्याय मे….!
हरिः हरः!!