रामचरितमानस मोतीः लंकादहन

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

लंकादहन

पूर्व प्रसंगः रावण केँ हनुमान्‌जी बहुत गूढ़ सन्देश देलनि, तथापि अहंकार मे चूर रावण लेल ओ व्यर्थ भेल। आब रावण द्वारा हनुमान्‌जी केँ दण्डित करबाक क्रम चलि रहल अछि, अंग-भंग कय केँ वापस पठेबाक बात कहला उपरान्त आगू कहैत अछि –

१. हम सबकेँ बुझाकय कहि रहल छी जे बन्दर केर ममत्व पूँछ पर होइत छैक, तेँ तेल मे कपड़ा बोरिकय एकर पूँछ मे बान्हिकय आगि लगा दिहिन। जखन बिना पूँछ के ई बानर अपन स्वामी (श्री रामचन्द्रजी) लग जायत तखन ओ मूर्ख अपन मालिक केँ संग लयकय आयत। जेकर ई एतेक बेसी बड़ाइ कयलक अछि, कनी हमहुँ देखी ओकर प्रभुता केँ।

२. ई वचन सुनिते हनुमान्‌जी मन मे मुस्कुरेलाह आ मनहि-मन बजलाह – “हम जानि गेलहुँ जे सरस्वतीजी एकरा एहेन बुद्धि दय मे सहायक भेली अछि।” रावणक वचन सुनिकय मूर्ख राक्षस सब हनुमान्‌जीक पूँछ मे आगि लगेबाक तैयारी करय लागल।

३. पूँछ लपेटय मे एतबा कपड़ा आर घी-तेल लागल जे नगर मे कपड़ा, घी आ तेल नहि बचल। हनुमान्‌जी एहेन खेल कयलनि जे पूँछ बढ़ि गेल छल। नगरवासी लोक सब तमाशा देखय आबि गेल छल। ओ सब हनुमान्‌जी केँ पैर सँ ठोकर मारैत छल आ हुनकर हँसी करैत छल।

४. ढोल बजैत अछि, सब लोक सब ताली बजबैत अछि। हनुमान्‌जी केँ नगर भरि मे घुमाकय तखन पूँछ मे आगि लगा दैत अछि। आइग जरैत देखि हनुमान्‌जी तुरन्ते बहुत छोट रूप के भ’ गेलाह। बन्धन सँ निकलिकय ओ सोनाक अटारी सब पर जा चढ़ला।

५. हुनका देखिकय राक्षस सभक स्त्री लोकनि भयभीत भ’ गेली। ताहि समय भगवान्‌ केर प्रेरणा सँ उनचासो पवन (हवा) चलय लागल। हनुमान्‌जी अट्टहास कयकेँ गर्जला आ बढ़िकय आकाश सँ ठेकि गेलाह। देह बड विशाल, धरि अत्यन्त हल्लुक (फुर्तीला) अछि। ओ दौड़िकय एक गोट महल सँ दोसर महल पर चढ़ि जाइत छथि।

६. नगर जरि रहल अछि, लोक सब बेहाल भ’ गेल अछि। आगि के करोड़ों भयंकर लपट झपटि रहल अछि। बाप हौ! माय गय! आब हमरा सब केँ के बचायत? चारू दिश यैह चिख-पुकार आ शोर मचल अछि। हम सब त पहिने कहने रही जे ई बानर नहि छी, बानर के रूप धेने कोनो देवता छी!

७. साधु केर अपमानक यैह फल भेलैक जे नगर, अनाथक नगर जेकाँ जरि रहल छैक। हनुमान्‌जी एक्कहि क्षण मे सारा नगर जरा देलखिन। एक विभीषण टाक घर नहि जरलनि। शिवजी कहैत छथिन – “हे पार्वती! जे अग्नि केँ बनेलनि, हनुमान्‌जी हुनकहि दूत थिकाह। यैह कारण ओ अग्नि सँ नहि जरलाह।” हनुमान्‌जी उलटि-पलटिकय (एक दिश सँ दोसर दिश धरि) समस्त लंका जरा देलनि। फेर ओ समुद्र मे कूदि पड़लाह।