स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
शरद ऋतुक वर्णन
(पूर्व अध्याय मे वर्षा ऋतुक वर्णन भगवान् राम केर श्रीमुख सँ भेल आ तकर बाद…..)
१. हे लक्ष्मण! देखू, वर्षा बिति गेल आ परम सुन्दर शरद् ऋतु आबि गेल।
- फुलायल कास सँ सम्पूर्ण पृथ्वी आच्छादित भेल बुझाइत अछि, मानू वर्षा ऋतु कासरूपी उज्जर केस रूप मे अपन बुढ़ापा प्रकट कय रहल अछि।
- अगस्त्य केर तारा उदय भ’ बाटक पानि सब सोखि लेलक, जेना सन्तोष लोभ केँ सोखि लैत अछि।
- नदी आ पोखरि केर निर्मल जल एना शोभा पाबि रहल अछि जेना मद आ मोह सँ रहित सन्त लोकनिक हृदय।
- नदी आर पोखरिक जल धीरे-धीरे सुखा रहल अछि, जेना ज्ञानी (विवेकी) पुरुष सब ममताक त्याग करैत छथि।
- शरद ऋतु बुझिकय खंजन चिड़ैयाँ आबि गेल, जेना समय पाबिकय सुन्दर सुकृत आबि सकैत अछि, पुण्य प्रकट भ’ जाइत अछि।
- न थाल-कीच अछि आ न धुरा, एहि सँ पृथ्वी निर्मल भ’ कय एना शोभा दय रहल अछि जेना नीतिनिपुण राजाक करनी!
- जल कम भ’ गेला सँ मछरी सब व्याकुल भ’ रहल अछि, जेना मूर्ख (विवेकशून्य) कुटुम्बी (गृहस्थ) धन बिना व्याकुल होइत छथि।
- बिना मेघ के निर्मल आकाश एना सुशोभित भ’ रहल अछि जेना भगवद्भक्त सब आशा आदि केँ छोड़िकय सुशोभित होइत छथि।
- कतहु-कतहु, विरले कोनो स्थान पर, शरद् ऋतु केर कने-मने वर्षा भ’ रहल अछि; जेना कियो विरले हमर भक्ति पबैत अछि।
- शरद् ऋतु पाबि राजा, तपस्वी, व्यापारी आर भिखारी (क्रमशः विजय, तप, व्यापार और भिक्षा लेल) हर्षित भ’ कय नगरि छोड़िकय चलि देलाह, जेना श्री हरि केर भक्ति पाबिकय चारू आश्रमक लोक नाना प्रकारक साधनरूपी श्रम सब त्यागि देल करैत छथि।
- जे माछ अथाह जल मे अछि, ओ सुखी अछि, जेना श्री हरिक शरण मे चलि गेलाक बाद एकहु टा बाधा नहि रहैत छैक।
- कमल फुलेला सँ पोखरि केना शोभायमान अछि जेना निर्गुण ब्रह्मण सगुण भेला पर शोभित होइत छथि।
- भँवरा सब अनुपम शब्द सँ गूँजि रहल अछि आ चिड़ै-चुनमुनी नाना प्रकारक सुन्दर शब्द सब बाजि रहल अछि, राति देखिकय चकवा सभक मोन मे ओहिना दुःख भ’ रहल छैक जेना दोसरक संपत्ति देखिकय दुष्ट सब केँ होइत छैक।
- पपीहा रट लगौने अछि, ओकरा बड प्यास छैक, जेना श्री शंकरजीक द्रोही सुख नहि पबैत अछि सुख वास्ते झखैत रहैत अछि।
- शरद् ऋतुक ताप केँ रातिक समय चन्द्रमा हरण कय लैत अछि, जेना सन्त सभक दर्शन सँ पाप दूर भ’ जाइत अछि।
- चकोर सभक समुदाय चन्द्रमा केँ देखिकय एहि तरहें टकटकी लगौने अछि जेना भगवद्भक्त भगवान् केँ पाबिकय हुनक निर्निमेष नेत्र सँ दर्शन करैत अछि।
- मच्छर आ डाँस जाड़क डरे एना नष्ट भ’ गेल जेना ब्राह्मणक संग वैर कयला सँ कुल केर नाश भ’ जाइत अछि।
- वर्षा ऋतु के कारण पृथ्वी पर जे जीव भरि गेल छल, ओ शरद् ऋतु केँ पाबिकय ओहिना नष्ट भ’ गेल जेना सद्गुरु भेटि गेला सँ सन्देह आ भ्रम केर समूह नष्ट भ’ जाइत अछि।
हरिः हरः!!