रामचरितमानस मोतीः श्री राम संग श्री हनुमान केर भेंट आ सुग्रीव सँ मित्रता

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

श्री राम संग श्री हनुमान केर भेंट आ सुग्रीव सँ मित्रता

१. श्री रघुनाथजी आगू बढ़लाह। ऋष्यमूक पर्वत नजदीक आबि गेल। ऋष्यमूक पर्वत पर मंत्री लोकनिक संग सुग्रीव रहैत छलथि। अतुलनीय बल केर सीमा श्री रामचंद्रजी आर लक्ष्मणजी केँ अबैत देखि सुग्रीव बहुते डरा गेलाह, डराइते ओ बजलाह – “हे हनुमान्‌! सुनू! ई दुनू पुरुष बल आ रूप केर निधान छथि। अहाँ ब्रह्मचारीक रूप धारण कयकेँ जाउ आ देखू। अपन हृदय मे हुनक यथार्थता जानि संकेत मे बुझाउ। जँ ओ मोनक मलिन बालिक पठायल हेता त हम बिना विलम्ब कएने इहो पर्वत छोड़िकय अन्यत्र कतहु भागि जाय।”

२. हनुमान्‌जी ब्राह्मणक रूप धय ओतय गेलथि जतय भगवान् दुनू भाइ रहथि। माथ झुका प्रणाम कय पुछलनि –

“हे वीर! श्यामल आ गोर शरीरधारी! अपने सब के थिकहुँ जे क्षत्रिय रूप मे वन मे घुमि रहल छी?”

“हे स्वामी! कठोर भूमि पर कोमल चरण सँ चलयवला अपने लोकनि कोन कारण सँ वन मे विचरि रहल छी? मन केँ हरण करयवला अहाँक सुन्दर, कोमल अंग अछि आर अहाँ वन केर दुःसह रौद आ बसात केँ सहि रहल छी!”

“कि अपने ब्रह्मा, विष्णु, महेश – एहि तीन देवता लोकनि मे सँ कियो छी या अपने दुनू नर ओ नारायण छी? अथवा अपने जगत्‌ केर मूल कारण और संपूर्ण लोक सभक स्वामी स्वयं भगवान्‌ छी, जे लोक केँ भवसागर सँ पार उतारय तथा पृथ्वीक भार नष्ट करबाक लेल मनुष्यरूप मे अवतार लेलहुँ अछि?”

३. श्री रामचन्द्रजी कहलखिन – “हम कोसलराज दशरथजीक पुत्र छी आर पिताक वचन मानि वन मे आयल छी। हमरा लोकनिक नाम राम आ लक्ष्मण अछि आ हम दुनू भाइ छी। हमरा सभक संग सुन्दर सुकुमारी स्त्री सेहो छलीह। एतय वन मे कोनो राक्षस हमर पत्नी जानकीक हरण कय लेलक अछि। हे ब्राह्मण! हम हुनकहि ताकैत फिरि रहल छी। आब हम त अपन परिचय आ चरित्र कहि देलहुँ, मुदा हे ब्राह्मण! अपने अपन कथा सेहो बुझाकय कहू।”

४. प्रभु केँ चिन्हिकय हनुमान्‌जी हुनक चरण पकड़ि पृथ्वी पर खसैत साष्टांग दंडवत्‌ प्रणाम कयलनि। शिवजी कहैत छथि – “हे पार्वती! ओहि सुखक वर्णन नहि कयल जा सकैत अछि। शरीर पुलकित अछि। मुख सँ वचन नहि निकलैत अछि। ओ प्रभु केर सुन्दर वेष केर रचना देखि रहल छथि। फेर धीरज धय कय स्तुति कयलनि। अपन नाथ केँ चिन्हि लेला सँ हृदय मे हर्ष भ’ रहल छन्हि।”

५. पुनः हनुमान्‌जी कहलखिन – “हे स्वामी! हम जे पुछलहुँ ओ हमर पुछब त न्यायपूर्ण छल। हम त वर्षों बाद अपने केँ देखलहुँ, सेहो तपस्वीक वेष मे। आ, हमर बानरी बुद्धि अछि ताहि कारण नहि चिन्हि सकलहुँ। संगहि अपना संग विद्यमान परिस्थितिक मुताबिक हम अहाँ सँ पुछलहुँ। मुदा अपने मनुष्य जेकाँ हमरा सँ केना पुछि रहल छी?”

“हम त अपनहि केर मायाक वश सब बिसरिकय भटकैत रहैत छी तेँ अपन स्वामी (अपने) केँ नहि चिन्हि पेलहुँ। एक त हम ओहिना मन्द छी, दोसर मोह केर वश मे छी, तेसर हृदय केर कुटिल आ अज्ञान छी, फेर हे दीनबन्धु भगवान्! अहाँ त हमरा बिसरिये देलहुँ?”

“हे नाथ! यद्यपि हमरा मे बहुतो रास अवगुण सब अछि, तथापि ई सेवक कथमपि स्वामीक विस्मृति मे नहि पड़य। अपने कहियो सेवक केँ नहि बिसरियौक।”

“हे नाथ! जीव सब अहाँक माया सँ मोहित अछि। ओ अपनहि केर कृपा सँ निस्तार पाबि सकैत अछि। ताहि पर हे रघुवीर! हम अपनेक दोहाइ दैत कहैत छी जे हम भजन-साधन किछुओ नहि जनैत छी। सेवक स्वामी के आ पुत्र माता के भरोसे निश्चिन्त रहैत अछि। प्रभु केँ सेवक केर पालन-पोषण करिते बनैत अछि, करहे पड़ैत अछि।”

६. एतेक कहिकय हनुमान्‌जी अकुलाकय प्रभुक चरण पर खसि पड़लाह आ अपन असली शरीर प्रकट कय देलनि। हुनकर हृदय मे प्रेम भरि गेलनि। तखन श्री रघुनाथजी हुनका उठाकय हृदय सँ लगा लेलनि आर अपन नेत्रक जल सँ सींचिकय शीतल कय देलनि। तखन कहलखिन – “हे कपि! सुनू, मोन मे ग्लानि नहि मानब, मोन छोट नहि करब। अहाँ हमरा लक्ष्मणहुँ सँ दूना प्रिय छी। सब गोटे हमरा समदर्शी कहैत छथि, हमरा लेल न कियो प्रिय अछि आ अप्रिय, मुदा हमरा सेवक प्रिय छथि, कियैक तँ ओ अनन्यगति होइत छथि, हुनका हमरा छोड़ि दोसर कोनो सहारा नहि होइत छन्हि। और हे हनुमान्‌! अनन्य वैह अछि जेकर एहेन बुद्धि कहियो नहि बिसराइत छैक जे हम सेवक छी आ ई चराचर (जड़-चेतन) जगत् हमर स्वामी भगवान् केर रूप थिक।”

७. स्वामी केँ अनुकूल देखि पवन कुमार हनुमान्‌जीक हृदय मे हर्ष भरि गेलनि आर हुनकर सबटा दुःख सेहो जाइत रहलनि। ओ बजलाह – “हे नाथ! एहि पर्वत पर वानरराज सुग्रीव रहैत छथि, ओ अपनेक दास छथि। हे नाथ! हुनका सँ मित्रता कयल जाउ आर हुनका दीन बुझिकय निर्भय कय दियौन। ओ सीताजीक खोज करबेता आर जतय-ततय करोड़ों बानर केँ पठेता।” एहि तरहें सब बात बुझाकय हनुमान्‌जी श्री राम-लक्ष्मण दुनू जन केँ पीठ पर चढ़ा लेलनि।

८. जखन सुग्रीव श्री रामचंद्रजी केँ देखलति त अपन जन्म केँ अत्यन्त धन्य बुझलनि। सुग्रीव चरण मे मस्तक नमाकय आदर सहित भेटलाह। श्री रघुनाथजी सेहो छोट भाइ सहित हुनका संग गला लागिकय भेटलथि। सुग्रीव मोन मे एना सोचि रहला अछि जे हे विधाता! की ई हमरा सँ प्रीति करता?

हरिः हरः!!