रामचरितमानस मोतीः संत लोकनिक लक्षण आर सत्संग भजन लेल प्रेरणा

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

संत लोकनिक लक्षण आर सत्संग भजन लेल प्रेरणा

(प्रसंग नारदजी आ श्री रामचन्द्रजीक बीच संवाद – नारदजी द्वारा पूछल गेल प्रश्न जे हुनका प्रभुक माया सँ विवाहक इच्छा जगलाक बाद प्रभु आखिर विवाह मे बाधा उत्पन्न कियैक कयलनि, तेकर जवाब प्रभुजी देलखिन आ आब नारदजीक हृदय मे प्रभुक कहल शब्द प्रति जागि रहल स्नेहक भावना केर निरन्तरता)

१. नारदजी सोचि रहल छथि – मनुष्य भ्रम केँ त्यागिकय एहेन प्रभु केँ नहि भजैत अछि ओ ज्ञानक कंगाल, दुर्बुद्धि आ अभागल अछि। आब नारद मुनि आदर सहित बजलाह – “हे विज्ञान-विशारद श्री रामजी! सुनू! हे रघुवीर! हे भव-भय (जन्म-मरण के भय) केर नाश करयवला हमर नाथ! आब कृपा कय संत लोकनिक लक्षण कहू!

२. श्री रामजी कहलखिन –

“हे मुनि! सुनू, हम संत सभक गुण कहैत छी, जाहि कारण हम हुनका लोकनिक वश मे रहैत छी।”

“ओ संत (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर – एहि) छह विकार (दोष सब) केँ जीतने, पापरहित, कामनारहित, निश्चल (स्थिरबुद्धि), अकिंचन (सर्वत्यागी), बाहर-भीतर सँ पवित्र, सुख केर धाम, असीम ज्ञानवान्‌, इच्छारहित, मिताहारी, सत्यनिष्ठ, कवि, विद्वान, योगी, सावधान, दोसर केँ मान देनिहार, अभिमानरहित, धैर्यवान, धर्म के ज्ञान आर आचरण मे अत्यन्त निपुण, गुण सभक घर, संसारक दुःख सब सँ रहित आर संदेह सब सँ सर्वथा छुटल लोक होइत छथि।”

“हमर चरण कमल केँ छोड़िकय हुनका न देहे प्रिय होइत छन्हि, न घरे। कान सँ अपन गुण सुनय मे सकुचाइत छथि, दोसरक गुण सुनय सँ विशेष हर्षित होइत छथि।”

“सम और शीतल छथि, न्याय केँ कखनहुँ त्याग नहि करैत छथि। सरल स्वभाव होइत छन्हि आर सब सँ प्रेम रखैत छथि।”

“ओ जप, तप, व्रत, दम, संयम आर नियम मे रत रहैत छथि आर गुरु, गोविंद तथा ब्राह्मण लोकनिक चरण मे प्रेम रखैत छथि।”

“हुनका मे श्रद्धा, क्षमा, मैत्री, दया, मुदिता (प्रसन्नता) आर हमर चरण मे निष्कपट प्रेम रहैत छन्हि। तथा वैराग्य, विवेक, विनय, विज्ञान (परमात्मा के तत्व केर ज्ञान) व वेद-पुराणक यथार्थ ज्ञान सेहो रहैत छन्हि।”

“ओ दम्भ, अभिमान आर मद कखनहुँ नहि करैत छथि आ बिसरियोकय कुमार्ग पर पैर नहि रखैत छथि।”

“ओ सब सदिखन हमरहि चर्चा – लीला आदि केँ गबैत आ सुनैत छथि। बिना कोनो कारणहु दोसरक हित (परहित) मे लागल रहैत छथि। हे मुनि! साधुक गुण एतबे छन्हि जेकरा कोनो महान श्रुति, शेष आ शारदा सेहो पूरा वर्णन नहि कय सकैत छथि।”

३.

छंद :
कहि सक न सारद सेष नारद सुनत पद पंकज गहे।
अस दीनबंधु कृपाल अपने भगत गुन निज मुख कहे॥
सिरु नाइ बारहिं बार चरनन्हि ब्रह्मपुर नारद गए।
ते धन्य तुलसीदास आस बिहाइ जे हरि रँग रँए॥

‘शेष आर शारदा सेहो नहि कहि सकैत छथि’ से सुनिते नारदजी श्री रामजीक चरणकमल पकड़ि लेलनि। दीनबंधु कृपालु प्रभु एहि तरहें अपनहि श्रीमुख सँ अपन भक्त सभक गुण कहलनि। भगवान्‌ केर चरण मे बेर-बेर सिर नमाकय नारदजी ब्रह्मलोक केँ चलि गेलाह।

४. तुलसीदासजी कहैत छथि जे ओ पुरुष धन्य अछि जे सबटा आशा छोड़िकय केवल श्री हरि केर रंग मे रंगा गेल अछि। जे लोक रावणक शत्रु श्री रामजीक पवित्र यश गाओत आ सुनत, ओ वैराग्य, जप आर योग कयने बिना श्री रामजीक दृढ़ भक्ति पाओत। युवती स्त्रीक शरीर दीपकक लौ केर समान अछि, हे मन! तूँ ओकर फतिंगा नहि बन। काम आर मद केँ छोड़िकय श्री रामचन्द्रजीक भजन कर आर सदा सत्संग कर।

मासपारायण, बाइसम विश्राम इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने तृतीयः सोपानः समाप्तः।

कलियुग केर संपूर्ण पाप सभक विध्वंस करयवला श्री रामचरितमानस केर ई तेसर सोपान समाप्त भेल।

(अरण्यकाण्ड समाप्त)