रामचरितमानस मोतीः नारद-राम संवाद

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

नारद-राम संवाद

१. भगवान्‌ केँ विरहयुक्त देखि नारदजीक मोन मे विशेष रूप सँ सोच भेलनि। ओ विचारय लगलाह जे हमरे श्राप केँ स्विकारि श्री रामजी नाना प्रकारक दुःख सभक भार सहि रहल छथि। ओहि चलते एतेक भारी दुःख उठा रहल छथि। एहेन भक्तवत्सल प्रभु केँ जाकय देखी। फेर एहेन अवसर जानि कहिया आओत! ई विचारि नारदजी हाथ मे वीणा लेने ओतय पहुँचि गेलाह जतय प्रभु सुखपूर्वक बैसल छलथि। ओ कोमल वाणी सँ प्रेमपूर्वक बहुतो प्रकार सँ बखानि-बखानि कय रामचरितक गान करैत चलि आबि रहल छलथि।

२. दण्डवत्‌ करैत देखि श्री रामचन्द्रजी नारदजी केँ उठा लेलखिन्ह आ बड़ीकाल धरि हुनका अपनहि हृदय सँ सटेने रखलखिन्ह। फेर कुशलक्षेम पुछि स्वागत करैत हुनका अपनहि लग बैसा लेलखिन्ह। लक्ष्मणजी आदरक संग हुनकर चरण धोलखिन।

३. बहुते प्रकार सँ विनती कय आर प्रभु केँ मन मे प्रसन्न बुझि नारदजी अपन कमल समान हाथ जोड़िकय बजलाह – “हे स्वभावहि सँ उदार श्री रघुनाथजी! सुनू। अहाँ सुन्दर अगम आर सुगम वर देनिहार छी। हे स्वामी! हम एकटा वर मँगैत छी, से हमरा दिय’। यद्यपि अपने अंतर्यामी हेबाक नाते सब किछु जनिते छी।”

४. श्री रामजी कहलखिन – “हे मुनि! अहाँ हमर स्वभाव जनिते छी। कि हम अपन भक्त सब सँ कहियो कोनो बात नुकबैत छी? हमरा एहेन कोन वस्तु प्रिय लगैत अछि, जे हे मुनिश्रेष्ठ! जे अहाँ नहि माँगि सकैत छी? हमरा भक्तक लेल किछु अदेय नहि अछि। एहेन विश्वास बिसरियोकय नहि छोड़ब।”

५. तखन नारदजी हर्षित भ’ कय बजलाह – “हम एहेन वर मँगैत छी, ई धृष्टता करैत छी – यद्यपि प्रभुक अनेकों नाम अछि आर वेद कहैत अछि जे ओ सब एक सँ एक बढिकय अछि, तखन हे नाथ! रामनाम सब नाम सँ बढिकय हुए आ पापरूपी पक्षी सभक समूह लेल ई वधिक के समान हुए। अपनेक भक्ति पूर्णिमाक रात्रि छी, जाहि मे ‘राम’ नाम यैह पूर्ण चंद्रमा भ’ कय आर आन सब नाम तरेगन भ’ कय भक्त सभक हृदयरूपी निर्मल आकाश मे निवास करय।”

६. कृपा सागर श्री रघुनाथजी मुनि सँ ‘एवमस्तु’ (एहिना होयत) कहलनि। तखन नारदजी मोन मे अत्यन्त हर्षित भ’ कय प्रभुक चरण मे मस्तक नमौलनि। श्री रघुनाथजी केँ अत्यन्त प्रसन्न जानि नारदजी फेर कोमल वाणी बजलाह – “हे रामजी! हे रघुनाथजी! सुनू, जखन अपने अपन माया केँ प्रेरित कयकेँ हमरा मोहित कएने रही, तखन हम विवाह करय चाहैत रही। हे प्रभु! अपने हमरा कोन कारणे विवाह नहि करय देलहुँ?”

७. प्रभुजी कहलखिन –

“हे मुनि! सुनू, हम अहाँ केँ हर्षक संग कहैत छी जे समस्त आशा-भरोसा छोड़िकय हमरहि टा भजैत अछि, हम सदैव ओकर ओहिना रखवारि करैत छी, जेना माता बालकक रक्षा करैत छथि।”

“छोट बच्चा जखन दौड़िकय आगि आ साँप केँ पकड़य जाइत अछि, त ओतय माता अपन हाथे ओहि बच्चा केँ पकड़िकय आगि-साँप सँ दूर करैत ओकरा बचा लेल करैत छथिन। सियान भ’ गेला पर वैह पुत्र पर माता प्रेम ते करैत छथि, मुदा पैछला बेर जेकाँ मातृ परायण शिशु जेकाँ फेर ओहि सियान पुत्र केँ बचेबाक चिन्ता नहि करैत छथि माता, कियैक तँ आब ओ माता पर निर्भर नहि रहि अपन रक्षा अपनहि करय लगैत छथि।”

“ज्ञानी हमर प्रौढ (सियान) पुत्र केर समान छथि आर अहाँ जेहेन अपन बल केर मान नहि करयवला सेवक हमर शिशु पुत्र केर समान छथि। हमर सेवक केँ केवल हमरहि टा बल रहैत छन्हि आर ज्ञानी केँ अपन बल भेल करैत छैक। धरि काम-क्रोध रूपी शत्रु तँ दुनूक लेल छैक। भक्त केर शत्रु केँ मारबाक जिम्मेवारी हमरा पर रहैत अछि, कियैक त ओ हमर परायण भ’कय हमरहि बल मानैत अछि, लेकिन अपन बल केँ मानयवला ज्ञानी केर शत्रु सब केँ नाश करबाक जिम्मेदारी हमरा उपर नहि अछि।”

“एना विचारिकय पंडितजन (बुद्धिमा लोक) हमरहि टा केँ भजैत छथि। ओ ज्ञान प्राप्त भेलोपर भक्ति केँ नहि छोड़ैत छथि।”

“काम, क्रोध, लोभ आर मद आदि मोह (अज्ञान) केर प्रबल सेना थिकैक। एहि मे मायारूपिणी (मायाक साक्षात्‌ मूर्ति) स्त्री तँ अत्यन्त दारुण दुःख दयवाली थिकीह। हे मुनि! सुनू, पुराण, वेद आर सन्त कहैत छथि जे मोहरूपी वन केँ विकसित करबाक लेल स्त्री वसंत ऋतु केर समान छथि। जप, तप, नियम रूपी संपूर्ण जल केर स्थान सब केँ स्त्री ग्रीष्म रूप भ’कय सर्वथा सोखि लैत छथि। काम, क्रोध, मद आर मत्सर (डाह) आदि बेंग सब थिक। एकरा सब केँ वर्षा ऋतु भ’कय हर्ष प्रदान करयवाली एकमात्र यैह (स्त्री) थिकीह। खराब वासना सब कुमुदक समूह थिक। ओकरा सदैव सुख दयवाली ई शरद् ऋतु थिकीह। समस्त धर्म कमल केर झुंड छी। ई नीच (विषयजन्य) सुख दयवाली स्त्री हिमऋतु भ’कय ओकरो जरा दैत छथिन। फेर ममतारूपी जवासक समूह (वन) स्त्रीरूपी शिशिर ऋतु केँ पाबिकय हरियर-कंचन भ’ जाइत अछि। पापरूपी उल्लु सभक समूह लेल ई स्त्री सुख दयवाली घोर अंधकारमयी रात्रि थिकीह। बुद्धि, बल, शील आर सत्य – ई सब मछरी सब छी आर ओकरा सब केँ फँसाकय नष्ट करबाक लेए स्त्री बंसीक समान छथि, चतुर पुरुष एना कहल करैत छथि। युवती स्त्री अवगुणक मूल, पीड़ा दयवाली आर सब दुःख सभक खान छथि, ताहि लेल हे मुनि! हम जी मे यैह सब जानिकय अहाँ केँ विवाह करय सँ रोकने छलहुँ।”

८. श्री रघुनाथजीक सुन्दर वचन सुनिकय मुनिक शरीर पुलकित भ’ गेलनि आर नेत्र मे प्रेमाश्रुक जल सेहो भरि गेलनि। ओ मनहि-मन कहय लागलथि – कहू त! कोन प्रभु केर एहेन रीती छन्हि जिनकर सेवक पर एतेक ममत्व आ प्रेम होइन्ह!

हरिः हरः!!