रामचरितमानस मोतीः शबरी पर कृपा, नवधा भक्ति उपदेश आर पम्पासर दिश प्रस्थान

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

शबरी पर कृपा, नवधा भक्ति उपदेश आर पम्पासर दिश प्रस्थान

१. उदार श्री रामजी कबन्ध केँ गति दय शबरीजीक आश्रम मे पधारलाह। शबरीजी श्री रामचन्द्रजी केँ घर आयल देखि मुनि मतंगजीक वचन मोन पाड़ैत खूब प्रसन्न भ’ गेलीह। (मुनि मतंगजी शबरीजीक भगवान् प्रति समर्पण आ ऋषि-मुनिजन लोकनिक सेवाक भाव, आजीवन समर्पण सँ प्रभावित भ’ कहने रहथिन जे भगवान् स्वयं अहाँक पास एक दिन अवश्य अओता।)

२. कमल सदृश नेत्र आर विशाल भुजा, माथ पर जटाक मुकुट आ हृदय पर वनमाला धारण कयने सुन्दर, श्यामल आ गोर दुनू भाकइ चरण मे शबरीजी लिपटि गेलीह। ओ प्रेम मे मग्न भ’ गेलीह। मुंह सँ बाजल तक नहि भ’ रहल छन्हि। बेर-बेर चरणकमल मे सिर नमा रहल छथि। फेर ओ जल लयकय आदरपूर्वक दुनू भाइक चरण पखारलीह। हुनका सब केँ सुन्दर आसन पर बैसौलीह। रस सँ भरल आ स्वादिष्ट कन्द, मूल आ फल आनिकय श्री रामजी केँ देलीह। प्रभु बेर-बेर प्रशंसा कय-कयकेँ हुनकर देल फल सब प्रेमपूर्वक भोग लगबैत छथि। फेर शबरीजी हाथ जोड़िकय आगू ठाढ़ भ’ गेलखिन। प्रभु केँ देखिकय हुनकर प्रेम बड बेसी बढ़ि गेल छन्हि। ओ कहलखिन – “हम कोन प्रकारे अहाँक स्तुति करू? हम नीच जाति के आ अत्यन्त मूढ़ बुद्धि छी। जे अधमहु सँ अधम स्त्री सब छथि ताहू मे अत्यन्त अधम स्त्री छी, आर तहू मे हे पापनाशन! हम मन्दबुद्धि छी।”

३. श्री रघुनाथजी कहलखिन –

“हे भामिनि! हमर बात सुनू! हम त केवल एक भक्ति मात्र केर सम्बन्ध मानैत छी। जाति, पाँति, कुल, धर्म, बड़ाइ, धन, बल, कुटुम्ब, गुण व चतुरता – एहि सब केँ भेलोपर भक्ति सँ रहित मनुष्य केहेन लगैत अछि, जेना जलहीन बादल (शोभाहीन) देखाइत हो।”

“हम अहाँ सँ अपन नवधा भक्ति कहैत छी। अहाँ सावधान भ’कय सुनू आ मोन मे धारण करू। पहिल भक्ति अछि सन्त लोकनिक सत्संग। दोसर भक्ति अछि हमर कथा-प्रसंग मे प्रेम। तेसर भक्ति अछि अभिमानरहित भ’ कय गुरुक चरणकमल केर सेवा आ चारिम भक्ति ई अछि जे कपट छोड़िकय हमर गुणसमूह केर गान करू। हमर (राम) मंत्र केर जाप आर हमरहि मे दृढ़ विश्वास – ई पाँचम भक्ति छी, जे वेद मे प्रसिद्ध अछि। छठम् भक्ति अछि इन्द्रिय सभक निग्रह, शील (नीक स्वभाव आ चरित्र), बहुतो काज सब सँ वैराग्य आ निरन्तर सन्त पुरुष लोकनिक धर्म (आचरण) मे लागल रहब। सातम भक्ति अछि जगत्‌ भरि केँ समभाव सँ हमरा मे ओतप्रोत (राममय) देखब आर सन्त लोकनि केँ हमरो सँ बेसी उपर मानब। आठम भक्ति अछि – जे किछु भेटि जाय, ताहि मे सन्तोष करब आ सपनहुँ मे दोसरक दोष नहि देखब। नवम् भक्ति अछि सरलता आर सभक संग कपटरहित बर्ताव करब, हृदय मे हमर भरोसा राखब आर कोनो अवस्था मे हर्ष आ दैन्य (विषाद) नहि होयब।”

“एहि नौ गोट मे सँ जेकरा एकहु टा होइत अछि, से स्त्री-पुरुष, जड़-चेतन कियो हो – हे भामिनि! हमरा वैह अत्यन्त प्रिय अछि। फेर अहाँ मे सब प्रकारक भक्ति दृढ़ अछि।”

“अतएव जे गति योगीजन लेल पर्यन्त दुर्लभ अछि, वैह आइ अहाँ लेल सुलभ भ’ गेल अछि। हमर दर्शन केर परम अनुपम फल यैह अछि जे जीव अपन सहज स्वरूप केँ प्राप्त भ’ जाइत अछि। हे भामिनि! आब यदि अहाँ गजगामिनी जानकी जीक किछु खबैर जनैत छी त बताउ।”

४. शबरी कहलखिन – “हे रघुनाथजी! अपने पंपा नामक सरोवर पर जाउ। ओतय अहाँ केँ सुग्रीव सँ मित्रता होयत। हे देव! हे रघुवीर! ओ सब हाल बतायत। हे धीरबुद्धि! अहाँ सब किछु जानितो हमरा सँ पुछैत छी!” बेर-बेर प्रभुक चरण मे सिर नमाकय, प्रेम सहित ओ सब कथा सुनौलीह।

५.

छंद :
कहि कथा सकल बिलोकि हरि मुख हृदय पद पंकज धरे।
तजि जोग पावक देह परि पद लीन भइ जहँ नहिं फिरे॥
नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू।
बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागहू॥

सब कथा कहिकय भगवान्‌ केर मुखक दर्शन कय, हुनकर चरणकमल केँ धारण कय लेलीह आ योगाग्नि सँ देह केँ जराकय त्याग करैत ओ ओहि दुर्लभ हरिपद मे लीन भ’ गेलीह जाहिठाम सँ घुरनाय नहि होइत अछि। तुलसीदासजी कहैत छथि जे अनेकों प्रकारक कर्म, अधर्म आ बहुतो रास मत – ई सब शोकप्रद अछि, हे मनुष्य लोकनि! एकरा सब केँ त्यागि दिअ आ विश्वास कय केँ श्री रामजीक चरण मे प्रेम करू।

६. जे नीच जाति के आर पाप सभक जन्मभूमि रहथि, एहेन स्त्री केँ सेहो जे मुक्त कय देलनि, अरे महादुर्बुद्धि मन! तूँ एहेन प्रभु केँ बिसरिकय सुख चाहैत छँ?

७. श्री रामचन्द्रजी ओहो वन केँ छोड़ि देलनि आर आगू चललाह। दुनू भाइ अतुलनीय बलवान् आ मनुष्य सब मे सिंह के समान छथि। प्रभु विरही सब जेकाँ विषाद करैत अनेकों कथा आ संवाद सब कहैत छथि –

“हे लक्ष्मण! कनी वनक शोभा त देखू! ई देखिकय केकर मन क्षुब्ध नहि होयत? पक्षी आ पशु सभक समूह सब स्त्री सहित अछि। मानू ओ सब हमर निन्दा कय रहल हो!”

“हमरा देखिकय जखन डरक मारे हिरन सभक झुंड भागय लगैत अछि, तखन हिरनी सब ओकरा सब सँ कहैत छैक – तोरा सब केँ डरेबाक जरूरत नहि छौक, तूँ सब त साधारण हिरन मे जन्म लेने छँ, तूँ सब आनन्द करे। ई त सोनाक हिरन ताकय आयल छथि।”

“हाथी सब हथिनि सब केँ संग लय लैत अछि, ओ सब मानू हमरा शिक्षा दैत अछि जे स्त्री केँ कखनहुँ असगर नहि छोड़बाक चाही। खूब बढियां सँ चिन्तन कएने शास्त्र सब केँ बेर-बेर देखैत रहबाक चाही। खूब नीक सँ सेवा कयल गेल राजा केँ सेहो अपन वश मे भ’ जेबाक भान नहि करबाक चाही। आर स्त्री केँ भले हृदये मे कियैक न राखल जाय, मुदा युवती स्त्री, शास्त्र आर राजा केकरहु वश मे नहि रहैछ।”

“हे तात! एहि सुन्दर वसंत केँ त देखू। प्रिया के बिना हमरा ई डर उत्पन्न कय रहल अछि। हमरा विरह सँ व्याकुल, बलहीन आर बिल्कुल अकेला जानि कामदेव वन, भौंरा आ पक्षी सब केँ संग लयकय हमरा उपर धावा बाजि देने छथि। धरि जखन हुनकर दूत ई देखि गेल जे हम भाइ के संग छी, असगर नहि छी, तखन ओकर बात सुनिकय कामदेव बुझू जे सेना सब केँ रोकिकय डेरा राखि देने छथि।”

“अनेकों वृक्ष नाना प्रकार सँ फुलायल अछि। मानू अलग-अलग बाना (वर्दी) धारण कएने बहुते रास तीरंदाज सब हो। कतहु-कतहु सुन्दर वृक्ष शोभा दय रहल अछि। मानू योद्धा सब अलग-अलग ठाढ़ भ’ कय छावनी बनेने रहथि।”

“कोयली सब कूजि रहल अछि, वैह मानू मतवाला हाथी जेकाँ चिग्घाड़ मारि रहल होइथ। ढेक आर महोख पक्षी मानू ऊँट आर खच्चर बनि गेल अछि। मोर, चकोर, तोता, परबा आर हंस मानू सबटा सुन्दर ताजी (अरबी) घोड़ा सब छी। तीतर आर बटेर सब पैदल सिपाही सभक झुंड छी।”

“कामदेवक सेनाक वर्णन नहि भ’ सकैत अछि। पर्वत सभक शिला रथ आर जल केर झरना नगाड़ा थिक। पपीहा भाट छी, जे गुणसमूह (विरुदावली) केर वर्णन करैत अछि। भौंराक गुंजार भेरी आर शहनाई छी। शीतल, मंद आर सुगंधित हवा मानू दूतक काज आयल हो। एहि तरहें चतुरंगिणी सेना संग लेने कामदेव मानू सबकेँ चुनौती दैत विचरि रहल छथि।”

“हे लक्ष्मण! कामदेव केर एहि सेना केँ देखिकय जे धीर बनल रहैत अछि, जगत् मे वैह वीर सभक प्रतिष्ठा होइत छैक। एहि कामदेव केर एक स्त्रीक बड भारी बल छैक, ओकरा सँ जे बचि जाय वैह श्रेष्ठ योद्धा थिक।”

हे तात! काम, क्रोध और लोभ – ई तीन अत्यंत दुष्ट अछि। ई विज्ञान केर धाम मुनि सभक मोन तक केँ पलहि भरि मे क्षुब्ध कय दैत अछि। लोभ केँ इच्छा आ दम्भ केर बल अछि, काम केँ केवल स्त्रीक बल अछि तथा क्रोध केँ कठोर वचन केर बल अछि, श्रेष्ठ मुनि विचारिकय एना कहैत छथि।”

८. शिवजी कहैत छथि – “हे पार्वती! श्री रामचन्द्रजी गुणातीत (तीनू गुण सँ परे), चराचर जगत्‌ केर स्वामी आर सभक अंतर केँ जानयवला छथि। उपर्युक्त बात सब कहिकय ओ कामी लोकक दीनता (बेबसी) देखौलनि अछि आ धीर (विवेकी) पुरुषक मोन मे वैराग्य केँ दृढ़ कयलनि अछि।”

“क्रोध, काम, लोभ, मद आ माया – ई सबटा श्री रामजीक दया सँ छुटि जाइत अछि। ओ नट (नटराज भगवान्‌) जेकरा पर प्रसन्न होइत छथि, ओ मनुष्य इंद्रजाल (माया) मे नहि भटकैत अछि।”

“हे उमा! हम अहाँ केँ अपन अनुभव कहैत छी – हरि केर भजन टा सत्य अछि, ई सम्पूर्ण जगत् त सपना जेकाँ झूठ अछि।”

९. आब प्रभु श्री रामजी पंपा नामक सुन्दर आर गहींर सरोवरक तीर पर पहुँचि गेलाह। ओकर जल सन्त लोकनिक हृदय जेहेन निर्मल अछि। मन केँ हरण करयवला सुन्दर चारि गोट घाट बनल अछि। तरह-तरह के पशु जहाँ-तहाँ जल पी रहल अछि। मानू उदार दानी पुरुषक घर याचकक भीड़ लागल हो! भौंराक गुंजार भेरी आर शहनाई थिक। शीतल, मंद आर सुगंधित हवा मानू दूत केर काज लयकय आयल अछि। एहि प्रकारे चतुरंगिणी सेना संग लय कामदेव सब केँ चुनौती दैत विचरण कय रहला अछि।

१०. घनगर पुरइन (कमल केर पत्ता) केर ओट मे जलक जल्दी पता नहि चलैछ। जेना माया सँ झाँपल रहबाक कारण निर्गुण ब्रह्म नहि देखाइत छथि। ओहि सरोवरक अत्यंत अथाह जल मे सब मछरी सब सदा एकरस (एक समान) सुखी रहैत अछि। जेना धर्मशील पुरुष लोकनि केँ सब दिन सुखपूर्वक बितैत अछि। ओहि मे रंग-बिरंगक कमल खिलल अछि। बहुतो रा भौंरा सब मधुर स्वर सँ गुंजार कय रहल अछि। जलक मुर्गा आर राजहंस बाजि रहल अछि, मानू प्रभु केँ देखिकय हुनकर प्रशंसा कय रहल हो। चक्रवाक, बगुला आदि पक्षी सभक समुदाय देखिते बनैत अछि, ओकर वर्णन नहि कयल जा सकैछ। सुन्दर पक्षी सभक बाजब बड सोहाओन लगैछ, मानू रस्ता मे जाइत पथिक केँ बजा लैत हो।

११. ओहि झील (पंपा सरोवर) केर समीप मुनि लोकनि आश्रम बना रखने छथि। ओकर चारू दिश वन केर सुन्दर वृक्ष सब छैक। चम्पा, मौलसिरी, कदम्ब, तमाल, पाटल, कटहल, ढाक आ आम आदि – कोयली सब ‘कुहू’ ‘कुहू’ केर शब्द कय रहल छैक। ओकर रसगर बोली सुनिकय मुनियो सभक ध्यान टुटि जाइत छन्हि।

१२. फल सँ लदल आ झुकल गाछ सब पृथ्वी सँ सटि गेल छैक, जेना परोपकारी पुरुष सब पैघ सम्पत्ति पाबिकय (विनय सँ) झुकि जाइत छथि।

१३. श्री रामजी अत्यन्त सुन्दर सरोवर देखिकय स्नान कयलनि आ भाइ लक्ष्मणजी सहित बैसि रहलाह। पुनः ओतय सब देवता आर मुनि लोकनि अयलाह आ स्तुति कयकेँ अपन-अपन धाम केँ चलि गेलाह। कृपालु श्री रामजी परम प्रसन्न बैसल छोट भाइ लक्ष्मणजी सँ रसगर कथा सब कहि रहल छथि।

हरिः हरः!!