रामचरितमानस मोतीः श्री रामजी आगू चललाह, विराध वध और शरभंग प्रसंग

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

श्री रामजी आगू चललाह, विराध वध और शरभंग प्रसंग

१. अत्रि मुनिक चरणकमल मे प्रणाम करैत देवता, मनुष्य आ मुनि लोकनिक स्वामी श्री रामजी दोसर वन लेल चलि पड़लाह। आगू श्री रामजी छथि आर हुनका पाछू छोट भाइ लक्ष्मणजी छथि। दुनू गोटे मुनि समान सुन्दर वेष बनौने अत्यन्त सुशोभित छथि। दुनू गोटेक बीच मे श्री जानकीजी एना सुशोभित छथि जेना ब्रह्म आर जीव के बीच मे स्वयं माया होइथ।

२. नदी, वन, पर्वत आ दुर्गम घाटी, सब कियो अपन स्वामी केँ चिन्हि सुन्दर रास्ता दय रहल छथि। जतय-जतय देव श्री रघुनाथजी जाइत छथि, ओतय-ओतय बादल सब आकाश मे छाहरि करैत जा रहल अछि।

३. रास्ता मे जाइत विराध राक्षस भेटल। सामने अबिते श्री रघुनाथजी ओकरा मारि देलनि। श्री रामजीक हाथे मरिते देरी ओ तुरन्त सुन्दर-दिव्य रूप प्राप्त कय लेलक। ओकरा बहुते दुःखी देखि प्रभुजी अपन परमधाम केँ पठा देलखिन।

४. फेर ओ सुन्दर छोट भाइ लक्ष्मणजी आ सीताजीक संग ओतय पहुँचलाह जतय मुनि शरभंगजी रहथि। श्री रामचन्द्रजीक मुखकमल देखिकय मुनिश्रेष्ठक नेत्ररूपी भौंरा खूब आदर सँ ओकर मकरन्द रस पान कय रहल अछि। शरभंगजीक जन्म धन्य अछि।

५. मुनि कहलखिन – “हे कृपालु रघुवीर! हे शंकरजीक मनरूपी मानसरोवर के राजहंस! सुनू, हम ब्रह्मलोक केँ जा रहल छलहुँ। एतबा मे कान सँ सुनलहुँ जे अपने वन मे आयब। तहिये सँ हम दिन-राति अहाँक बाट देखैत रही। आब आइ प्रभु केँ देखिकय छाती शीतल भ’ गेल। हे नाथ! हम सब साधन सँ हीन छी। अपने अपन दीन सेवक जानिकय हमरा पर कृपा कयलहुँ अछि। हे देव! ई कोनो अहाँक हमरा उपर एहसान नहि थिक। हे भक्त-मनचोर! एना कयकेँ अपने अपन प्रण केर रक्षा मात्र कयलहुँ अछि। आब एहि दीन केर कल्याण लेल ताबत धरि एतहि रुकू जाबत धरि हम शरीर छोड़िकय अपने सँ नहि भेटि ली।” (यानि ता धरि रुकू जा धरि ई शरीर छोड़िकय हम अपनेक धाम नहि पहुँचि जाय!)

६. योग, यज्ञ, जप, तप जे किछु व्रत आदि मुनि कएने रहथि, सब प्रभु केँ समर्पण कयकेँ बदला मे भक्तिक वरदान लय लेलनि। एहि तरहें दुर्लभ भक्ति पाबिकय चिता रचिकय मुनि शरभंग हृदय सँ सब आसक्ति छोड़ि ओहि पर जा कय बैसि रहलाह। “हे नील मेघक समान श्याम शरीरधारी सगुण रूप श्री रामजी! सीताजी आर छोट भाइ लक्ष्मणजी सहित अपने निरन्तर हमर हृदय मे निवास करू।” एना कहिकय शरभंगजी योगाग्नि सँ अपन शरीर केँ जरा लेलनि आर श्री रामजीक कृपा सँ ओ वैकुंठधाम पहुँचि गेलाह।

७. मुनि भगवान मे लीन एहि लेल नहि भेलाह जे ओ पहिनहि भेद भक्तिक वर लय लेने रहथि। ऋषि लोकनिक समूह मुनि श्रेष्ठ शरभंगजीक एहेन दुर्लभ गति देखिकय सब कियो अपन हृदय मे विशेष रूप सँ सुखी भेलथि। समस्त मुनिवृंद श्री रामजीक स्तुति कय रहल छथि आ कहि रहल छथि – “शरणागत हितकारी करुणा कन्द (करुणाक मूल) प्रभु केर जय हो!”

८. फेर श्री रघुनाथजी आगू वन लेल चलि पड़लाह। श्रेष्ठ मुनि लोकनिक बहुतो रास समूह हुनका संग भ’ गेलनि। जेम्हर-तेम्हर हड्डी सभक ढेरी देखि रघुनाथजी केँ बड़ा दया एलनि। ओ मुनि लोकनि सँ एहि मादे जिज्ञासा कयलनि। मुनि सब कहलखिन – “हे स्वामी! अपने सर्वदर्शी (सर्वज्ञ) और अंतर्यामी (सभक हृदयक बात जननिहार) छी। जानियो कय अनजान जेकाँ हमरा सब सँ केना पुछि रहल छी? राक्षस सभक दल मुनि लोकनि केँ खा गेल। ई सबटा हुनकहि सभक हड्डीक ढेरी छी।” ई सुनिते श्री रघुवीर केर नेत्र मे जल भरि गेलनि। हुनकर आँखि मे करुणाक नोर भरि गेलनि।

हरिः हरः!!