‘हम आबि रहल छी’ – मैथिली धारावाहिक भाग ९

उपन्यास ‘हम आबि रहल छी’ पर आधारित धारावाहिक लेख

– रबीन्द्र नारायण मिश्र (उपन्यासकार)

हम आबि रहल छी-भाग ९

9

साँझमे हम, गंगा, ओकर माता-पिता सभ संगे टीसन बिदा भेलहुँ । गंगाक सार, सरहोजि, पितिऔत भौजी, आ कहि ने के के ओकरासभकेँ बिदा करबाक हेतु टीसन आएल रहैक। अजमेरीगेट दिस प्लेटफार्म नंबर एकसँ ट्रेनकेँ खुजबाक रहैक । ट्रेन टीसनपर पहुँचि गेल छल । गंगाकेँ बिदा करए आएल ओकर कुटुंब, मित्रसभ सोझे प्लेटफार्मपर पहुँचि गेल । सभगोटे ताधरि ओतए आपसमे गप्पसप्प करैत रहि गेल जाधरि की ट्रेनक सीटी बाजि नहि गेल । सीटी बजितहि सभ धराधर ट्रेनसँ उतरल ।

थोड़बे कालक बाद यात्रीसभ अपन-अपन स्थानपर बैसि गेल रहथि । सामनेक सीटपर ओकर बाबू आ माए बैसल रहैक । ऊपरका दुनू शायिकापर केओ आओर यात्री छल । गंगा हमरा लेल पानि, किछु जलखै आ चाहक जोगार कए देने छल । हम आ गंगा चाह पिलहुँ । ओकर बाबू तमाकुल खेलक। माए बीड़ी पिबए चाहैक । मुदा गंगा मना कए देलकैक। गंगाक माए-बाबू सुति रहल। ऊपरका शायिकाबला दुनू यात्री सेहो अपन-अपन स्थानपर चलि गेल । रहि गेलहुँ हम आ गंगा । कतबो कहिऐक  गंगा अपन शायिकापर जेबे नहि करए । हमरा संगे गप्पमे बाझल रहल । कहैत रहल जे एहन मौका ओकरा फेर कहिआ भेटतैक? गप्प-सप्पमे हम पुछलिऐक-

“तूँ शंकरकेँ कोना जनैत छहक?”

“शंकरेकेँ नहि, हम तँ निशा, दीपेंदु आ दीपाकेँ सेहो जनैत छिअनि ।”

“से कोना?”

“हम कोनो आइसँ दिल्लीमे छी। हमरा एतए अएला पन्द्रह सालसँ बेसी भए गेल ।”

“ओतेक छोट बएसमे गाम छोड़ि कए कोना आएल भेलह?”

“कोनो निआरि कए थोड़े आएल रहिऐक ।”

“तखन?”

“हमर बाबूगाममे मालिकसँ किछ कर्जा लेने रहथि । मालिक दिन-राति तगादा करैक, अंट-संट बजैक । बाबूकेँ एकदिन नहि रहल गेलनि । किछु जबाब-सबाब कए देलखिन । तकरबाद तँ जे भेल से की कहू?”

“की भेलैक?”

“मालिक आ ओकर लठैतसभ बाबूकेँ गाछमे बान्हि कए बड्ड मारि मारलकैक । हमर माए हाथ-पैर जोड़ैत रहि गेलैक । मुदा लठैतसभ ओकरोपर एकाध लाठी चला देलकैक । माए ठामहि खसलि । हमरा केओ ई बात कहलक । हम दौड़ले ओहि ठाम पहुँचलहुँ । बाबूकेँ गाछमे ओहि हालतिमे बान्हल देखि सौंसे देहमे आगि लागि गेल । चारूकात लोकसभकेँ हाथ-पैर जोड़लहुँ । मुदा केओ मदति करए नहि आएल । सभकेँ मालिकक डर होइक । संयोगसँ दोसर गामक पहलमानसभ कुश्ती खेला कए वापस जाइत रहए ।  ओएहसभ बाबूकेँ मदति केलकनि ।  जौर काटि देलकनि।  इनारसँ आनि कए पानि देलकनि ।  तकरबाद उठा-पुठा कए घरो पहुँचा देलकनि ।  ओहीमेसँ केओ माएकेँ सेहो लदने आएल । केना ने केना बात चारूकात फैलि गेल । थाना-पुलिस होमए लागल । थानेदार बाबूकेँ धमका देलकनि- “खबरदार! यदि किछु बजबह तँ डकैती केसमे फँसा देबह।” मालिकसभ पुलिसकेँ मुँह बंद कए देलकैक। थोड़बे दिनमे सभकिछु शांत भए गेल । मुदा हमरा मोनमे जे आगि लागल से शांते नहि होअए । एकदिन बिना ककरो कहने गामसँ बिदा भए गेलहुँ  संयोगसँ दरभंगा टीसन पहुँचले रहिऐक की एकटा ट्रेन खुजैत रहैक । हम ओही ट्रेनमे बिना टिकटकेँ घुसिआ गेलहुँ ।”

“टीटी पकड़लकह नहि?”

“पकड़ि लेलक की । मुदा हमरा लगमे बैसल एकटा यात्री भगवान बनि कए ठाढ़ भए गेल ।”

“से की?”

ओ अपना जेबीसँ टीटीकेँ तीनटा नमरी धराधर पकड़ा देलकैक आ कहलकैक-

“एहि नेनाकेँ तंग नहि करहक । ई बहुत परेसानीमे बुझा रहल अछि ।”

असलमे हमरा रहि-रहि कनाए लागए । ट्रेनमे गाम मोन पड़ि जाए । माए-बाबूक स्मरण होमए लागए । मोन होअए जे भोकारि पारि कए कानी । ओ यात्री हमरा दिस बड़ी काल धरि देखैत रहल । ओकरा नहि रहल गेलैक । ओ सहटि कए हमरा लग आबि गेल आ पुछैत अछि –

“की बात छैक? तूँ एतेक परेसान किएक छह? ”

हम ओकरा सभटा बात खोलि कए कहलिऐक । ईहो कहलिऐक जे हम गाम वापस नहि जाए चाहैत छी ।

“तखन जेबहक कतए?” – ओ पुछलक ।

“से की जाने गेलिऐक? दिल्ली पहुँचलाक बाद सोचबे।”

ओहि यात्रीकेँ बहुत दया भेलैक ।

दिल्ली पहुँचलाक बाद कहैत अछि-

“तूँ हमरे संगे चलह । हमरे ओहिठाम रहिअह । हमर माएकेँ सेवा करिअह । मोन हेतह तँ पढ़बो लिखबो करिअह।”

“हम ओकर बात मानि ओकर संग धए लेलहुँ ।”

“तखन?”

“तखन की हेतैक । हम हुनका ओहिठाम रहए लगलहुँ। बुढ़ीक दिन-राति सेवा करए लगलहुँ । हमर सेवासँ ओ बहुत प्रसन्न रहैत छलीह । हुनकर इच्छा रहनि जे हम पढ़ी । मुदा हमरा पढ़ाइमे मोन नहि लागए । तहन ओएहसभ हमरा ड्राइभरी सिखबा देलाह, लाइसेंस बनबा देलाह, एकटा आटो सेहो किनि देलाह । ततबे नहि, नोएडामे एकटा छोटसन जमीन सेहो किना देलाह । हम हुनकर कर्जाकेँ क्रमशः कमा कए सधओलहुँ । ओसभ तँ वापस लेबहि नहि चाहथि । मुदा हम अड़ि गेलिऐक। हारि कए ओ सभ मानि गेलाह । जखन जेना जतबे सुविधा भेल, हुनकर कर्जा सधबैत रहलहुँ । एहि तरहें हमरा अपन जमीन भए गेल । तखन ओएहसभ कहलथि जे छोटो-छीन अपन घर बना लएह । ताहुमे ओ सभ मदति केलाह । आखिर घरो बनि गेल । हमर बिआहो भेल, दिल्लीएमे अपने दिसका कनिआसँ । ओकर परिवार बहुत दिनसँ हमरेसभक कालोनीमे रहैत छलैक। बिआह भेलाक बाद माए-बाबूकेँ सेहो दिल्ली लए अनलिअनि । तहिआसँ सभगोटे संगे रहैत छी ।”

“तोहर खिस्सा तँ बहुत रुचिगर छह । मुदा ओ आदमी छलाह के?”

आब तँ ओ स्वर्गवासी भए गेलाह । हुकनर एकहिटा बेटा छनि ।

“की नाम छनि हुनकर?”

“दीपेंदु ।”

“ओ! तँ दीपेंदु केँ तूँ बहुत दिनसँ जनैत छहुन ।”

“बहुत दिनसँ । हुनके चलते हुनकर संगीसभसँ सेहो परिचय भेल । अहाँक पुत्र शंकरसँ सेहो हुनके ओहिठाम भेंट भेल रहए ।”

ट्रेन मुगलसराय आबि गेल छल । एहिठाम इंजिनक अदला-बदली हेबाक रहैक । तेँ ओ बड़ीकाल धरि रुकल रहल। अधिकांश यात्री सुतल छलाह । हुनकासभकेँ किछु पता नहि चलल हेतनि जे ट्रेन कतए आबि गेल? मुदा हम आ गंगा जगले रही । गप्पक अंते नहि होइत छल । ने गंगाक जिज्ञासाक अंत होइत छल ने हमर । गंगाक मुँहे नव-नव खिस्सासभ सुनि हमर जिज्ञासा बढ़िते जा रहल छल । गंगा कैकबेर कहबो करए –

“थाकि गेल होएब । आब सुति जाउ ।”

“सुतबैक से निन्नो होअए तहन ने। ओहुना हमरा बहुत कम निन्न होइत अछि । ट्रेनमे तँ हम कहिओ नहि सुतैत छी । फेर एहि बेर तँ तूँ संगे छह । तरह-तरहक गप्प-सप्प करैत छह। कतेको एहन बातसभ आइ पता लागल जे हमरा नहि बूझल रहए। तेँ अजुका जगनाइ तँ बहुत सार्थक अछि । ने तूँ भेटितह ने हमरा शंकरक बिआहक पूर्वकथा पता लगैत ।”

“से किएक? अहाँसभ बिआहमे नहि आएल रहिऐक की?”

“हम तँ आबए जोकर नहि रही । मुदा शंकरक माएकेँ बहुत मोन लागल रहनि । कहिआसँ बेटाक बिआहक चर्च करैत रहैत छलीह । मुदा ओहो नहि जा सकलीह ।”

“भने नहि जाइत गेलहुँ ।”

“से की?”

“बितलाहा बातसभक चर्च कए आओर दुखी भए जाएब। एकरासभकेँ बिसरने नीक।”

“हम ई कोना बिसरि सकैत छी जे एही घटनासँ दुखी भए शंकरक माए चारूधामक यात्रापर चलि गेलीह आ गंगोत्रीमे स्नान करैत काल ओहीमे बिला गेलीह।”

“ई तँ बहुत दुखद भेल ।”

“मुदा उपाय की? जे बात अपना हाथमे नहि अछि तकर की कएल जा सकैत अछि? एकरा विधिक विधान बूझि सहि जेबेमे कल्याण थिक ।”

गंगा ट्रेनसँ नीचाँ उतरल । प्लेटफार्मपरसँ माटिक कुल्हरमे दू कप चाह लेने आएल । दुनूगोटे चाह पिनाइ शुरु केलहुँ आ गप्पो करैत रहलहुँ । गंगाकेँ हमरा बारेमे जानबाक जिज्ञासा बढ़ैत गेलैक।

“अहाँकेँ कैकटा धिआ-पुता अछि ।”

“दूटा । शंकर आ हीरा ।”

“दुनूमे जेठ के छथि?

“हीरा जेठ छैक । दुनूगोटेकेँ यथेष्ट शिक्षाक अवसर भेटनि ताहि लेल दिन-राति एक कए देलहुँ । हमर सरकारी नौकरीमे आमदनी सीमित छल आ पढ़ाइक खर्च बहुत भए जाइक ।”

“तखन केना की केलिऐक?”

“की करतिऐक? हमरा बाबा सपथ देने रहथि जे कहिओ ककरोसँ कर्जा नहि लेब । परिश्रमसँ जे उपार्जित होएत ताहीमे गुजर करब । दुनू बच्चा पढ़एमे बहुत तेजगर रहथि । इसकुलमे सभदिन प्रथम स्थान पबैत रहलाह । इसकुल दिससँ छात्रवृत्ति भेटैत रहलनि । किताब-काँपीसभ इसकुले दिससँ भेटि जानि । फीस माफे रहनि । तेँ इसकुली पढ़ाइ तँ आसानीसँ निपटि गेल। तकरबाद शंकर इंजिनीयरींगमे नाम लिखओलाह आ हीरा डाक्टरीमे। दुनूगोटे बिना कोचिंगकेँ एकहि बेरे प्रवेश परीक्षामे नीक स्थान प्राप्त केलथि आ अपन-अपन पसिंदक संस्थानमे नामांकन भए गेलनि । दू-दूटा विद्यार्थीक एकहि संगे खर्चा देब मोसकिल होइत गेलनि ।”

“से किएक? छात्रवृत्ति नहि भेटैक की? ”

“भेटैक । मुदा ओ पर्याप्त नहि रहैक ।”

“तखन कोना की केलिऐक?”

“की करतिऐक? मधुबनीमे दस कठ्ठा जमीन किनने रही। सोचने रही जे समय साल सुभ्यस्त होएत तखन घर बनाएब। मुदा से नहि भए सकल । ओकरा बेचए पड़ल । संगहि टिपोट बनबए लगलहुँ। संयोग ई भेलैक जे हमरा एहिसँ खूब आमदनी होमए लागल । दुनू बच्चाक पढ़ाइक खर्चा लेल ककरोसँ माङए नहि पड़ल।”

“ई तँ कमाले भए गेल ।”

“ईश्वरक कृपा । एहिमे हमर कोनो कमाल नहि छल । सभ ऊपरबलाक चमत्कार कहबाक चाही जे हमरा सन अदना आदमीक दू-दूटा संतान एतेक उच्च शिक्षा प्राप्त कए सकल ।”

हमरा लोकनिक चाह खतम भए गेल छल । ट्रेन मुगलसरायसँ आगू बढ़ि रहल छल । यात्रीसभ फोंफ काटि रहल छल । मुदा हम आ गंगा जेना सभटा गप्प आइए कए लेबाक हेतु आतुर रही । गप्प सँ गप्प निकलैत रहल । ट्रेन आगू बढ़ैत रहल आ बढ़ैत रहल हमरा लोकनिक जिज्ञासा ।

“गाम-घरमे एतेक पढ़ल-लिखल संतान तँ कमे लोककेँ हेतैक ।”

“से बात सही छैक । ओहो हमरा गाममे । पहिल बेर एहन भेल छल जे कोनो विद्यार्थी सभ परीक्षा  प्रथमश्रेणीमे सफल होइत गेल, ततबे नहि अपन पसिंदक संस्थानसभसँ डाक्टरी/इंजिनीयरींग केलक । हमर प्रसन्नताक तँ अंते नहि छल। चारूकातसँ दुनू बच्चाक बिआहक प्रस्तावसभ आबए लागल । मुदा हमसभ बाट तकिते रहि गेलहुँ । हमरासभकेँ जबरदस्त धक्का लागल । हीरा आ शंकर अपन-अपन पसिंदक वर कनिआ ताकि लेलथि । हमरासभकेँ ठकैत रहलाह । जे कथा उपस्थित होअए ताहिमे कोनो-ने-कोनो त्रुटि निकालि देथि । थोड़े दिनक बाद हीरा तँ अपन मोनक बात माएकेँ कहि देलखिन । हमरा लोकनि सहर्ष हुनकर बिआह कए देलिअनि । मुदा शंकरक ताल-पातरा किछु बुझेबे नहि करए । कखनो किछु तँ कखनो किछु कहि हमरा लोकनिकेँ टरका देथि । एकबेर हमर छोट भाए हुनका किछु कहलखिन तँ शंकर बेस हंगामा ठाढ़ कए देलाह । घरसँ भागि गेलाह आ तकरा बाद आइ धरि गाम नहि अएलाह । साल भरिक बाद पता लागल जे ओहो अपन पसिंदक एकटा  क्रिश्चन कनिआ संगे रहैत छथि। कहाँदनि ओ केरलक रहनिहार छलैक । नामसँ तँ नहि बुझाइक जे ओ क्रिश्चन छैक ।”

“तखन अहाँसभकेँ कोना पता लागल?”

बिआहसँ पूर्व ओकर पिता हमरा एकटा चिठ्ठी लिखलक ।

“की?”

लिखलक –

“हम अहाँसँ भेंट करए चाहैत छी । ओना सभबात तँ अहाँकेँ बुझले होएत । तथापि हमरा लोकनिमे भेंट-घांट भए जाए तँ बढ़िआँ होइत ।”

“अपन नाम लिखने छल-राजू थोमस”

“बात बूझि गेलिऐक ।”

“तँ ओकरा की जबाब देलिऐक?”

“की जबाब दितिऐक? चुप्पे रहि गेलहुँ । तकर बाद ने ओ हमरा किछु लिखलक आ ने हम किछु पता केलिऐक।”

ई बात कहैत-कहैत हमरा आँखिसँ नोर ढवर-ढवर खसि रहल छल । गंगा से देखलक । ओ बात बदलबाक प्रयास केलक। मुदा हम बड़ीकाल धरि किछु नहि बाजि सकलहुँ । ट्रेन आगू चलैत रहल । फरीछ भए गेल छल । ट्रेन लहेरियासराय पहुँचि गेल छल। यात्रीसभ उठि रहल छल । सभ अपन-अपन समानसभ सरिआबए लागल ।

“एकर बाद   ट्रेन दरभंगा जंक्सनपर ठाढ़ होएत ।” – गंगा बाजल । ताबतेमे ओकर मोबाइलक घंटी बाजए लगलैक।

“के?”

“दीपेंदु बाजि रहल छी ।”

“ओ! ट्रेनक हल्लामे नहि सुनि सकलिऐक ।”

“कतए जा रहल छह?”

“गाम। माए-बाबू संगे छथि ।”

“शंकरक बाबूक किछु पता नहि छैक?”

 “ओ तँ हमरा संगे छथि । से कोना?”

“कनी कालक बाद फोन करू । ट्रेनसँ उतरि कए गप्प करब।”

ट्रेन दरभंगा जंक्सन पहुँचल । प्लेटफार्म नंबर चारिपर लोकक करमान लागल छल । यात्रीसभ उतरबाक हेतु तत्पर भए रहल छलाह । मुदा ऊपरका यात्री सुतले रहए । गंगा हल्ला केलक –

“औ! अहाँ सुतले रहबैक? ट्रेन दरभंगा पहुँचि गेल ।”

ऊपरका सीटपरक यात्रीसभ शुरुएमे जे सुतल से रस्ताभरि सुतले रहि गेल । कतहु टस सँ मस नहि भेल । जखन ट्रेन दरभंगा पहुँचि गेल तँ गंगा जोर-जोरसँ हल्ला केलक-

“ट्रेन दरभंगा आबि गेल ।”

मुदा ऊपरका यात्रीकेँ कोनो असर नहि भेलैक । ऊपरका दोसर सीट पता नहि कखन खाली भए गेल रहैक। डिब्बाक लोकसभ ट्रेनसँ उतरबाक क्रममे आगू ससरि रहल छल । गंगाकेँ एना हल्ला करैत सुनि सभ थकमका गेल । मुदा ओ यात्री नहि उठल । ताबत रेलवे पुलिस बंदुक लटकओने अएलैक । ओ बंदूकक बटसँ ऊपरका सीटपर सुतल यात्रीकेँ हिलबैत अछि । ओ तैओ नहि उठल ।

“किछु गड़बड़ लागि रहल अछि ।”- सिपाही बाजल । ताबत एकटा युवक यात्री ऊपर चढ़ि गेल । ओकर नाक लग हाथ देलक ।

“साँस तँ चलि रहल छैक।” – ओ बाजल । “मुदा होस नहि छैक ।” – ओएह आगू बाजल । रेलवे पुलिस अपन मोबाइलपर फोन करैत अछि । दनादन तीन-चारिटा पुलिस जमा भए गेलैक । सभगोटे मिलि कए ओकरा ऊपरसँ उतारैत अछि । ट्रेनक यात्रीसभ क्रमशः डिब्बासँ बाहर भेल जाइत छथि । पुलिससभ ओहि आदमीकेँ नीचाँ उतारैत अछि । ताबत हम आ गंगा सेहो डिब्बासँ बाहर भए गेल रही । पुलिससभ ओहियात्रीकेँ प्लेटफार्मपर रखैत अछि ।

हमर ध्यान ओहि आदमीपर पड़ैत अछि । हम मोने-मोन सोचैत छी –

“ई तँ मुखिआ बुझा रहल अछि ।”

 हम सहटि कए ओकरा लग जाइत छी आ ओकरा ध्यानसँ देखैत छी । हँ, हँ, ई आओर केओ नहि मुखिए अछि ।

लगमे ठाढ़ पुलिससभ हमरा ओकरा बेर-बेर ध्यानसँ देखैत देखि लैत अछि।

“की बात छैक बाबा? अहाँ एकरा जनैत छिऐक की?”

“जनैत छिऐक।”

“ई के अछि?”

“हमरे गामक मुखिआ अछि ।”

“की ई अहींक संगे आबि रहल छल?”

हम तँ एकरा पहिलबेर ट्रेनसँ उतरबा काल देखलिऐक । रातिभरि ई टस सँ मस नहि भेल । सुतल से सुतले रहल । हम आ गंगा आपसमे गप्प करैत रही । ओकरा दिस ध्यान नहि गेल ।

“ओकर सामने बला सीटपरक यात्री कखन उतरल?” – पुलिस पुछैत अछि।

“से हमसभ नहि बुझलिऐक।”

“ई कोना भए सकैत अछि जे अहाँसभ से नहि बुझने होइ।”

“असलमे मुगलसरायमे हम चाह आनबाक हेतु उतरि गेल रही । भए सकैत अछि, ओही बीचमे ओ उतरि गेल होइक ।” – गंगा बाजल । हमहूँ मुरी हिला देलिऐक ।

“मुदा ई बूढ़ा तँ डिब्बेमे छलाह ।”

“हम नीचा उतरलहुँ । राति भरिक जगरनासँ हिनका तुरंते आँखि लागि गेलनि । हम जखन चाह लए कए वापस सीट लग अएलहुँ तँ ई फोंफ कटैत रहथि । हम हुनका उठेलिअनि । हमरा हाथमे चाह देखि कए फुरफुरा कए उठि गेलाह । दुनूगटे चाह पिलहुँ आ गप्पो करैत रहलहुँ । मुदा ऊपरका सीटपर के उतरल, के रहल ताहिबात सभपर ध्यान नहि गेल ।”

“तोहरसभक बात संदेहास्पद लगैत अछि । तूँ सभ हमरा संगे थाना चलह । ओतहि बात फरिछाएत ।”

हम आ गंगा अपन झोरा लेने पुलिसक जीपपर बैसि जाइत छी । थोड़बे कालमे पुलिसक जीप थाना पहुँचि जाइत अछि । संयोग एहन भेल जे थाना पहुचैत-पहुँचैत मुखिआ केँ होस आबि जाइत छनि । ओ उठि कए बैसि जाइत छथि । सामनेमे हमरा देखि कए प्रणाम करैत छथि ।

“हम एहि ठाम कोना आबि गेलहुँ?” – हमरासँ पुछैत अछि।

“तूँ तँ ट्रेनमे बेहोस पड़ल छलह । हमसभ तोरा ट्रेनसँ उतारलहुँ । ई सभ तोरे संगे तोहर सीटक नीचाँमे ट्रेनमे रहथि । तेँ हिनको थाना लेने अएलिअनि ।”

“मुदा हिनकासभ सँ तँ हमरा ट्रेनमे कतहु भेंटो नहि भेल छल ।” – मुखिआ बाजल ।

“तखन भेलैक की जे तूँ एना बेहोस भए गेलह ।” – पुलिस पुछैत अछि ।

“संभवतः हमरा सामनेक यात्री किछु केलक । ओ प्रसाद कहि कए हमरा एकटा पेरा देने रहए । हम ओहि पेराकेँ खेने रही । बस एतबे मोन पड़ैत अछि । तकर बाद की भेलैक, किछु मोन नहि अछि ।” – मुखिआ बाजल।

ओकरा मुँहे ई बात सुनि कए पुलिस हमरा आ गंगाकेँ छोड़ि देलक । मुदा हम थोड़े काल ओतहि रहि गेलहुँ । भेल जे मुखिआ  जँ ठीक भए जाएत तँ ओकरा संगे लेने जाएब । आखिर गौआँ अछि। संकटमे पड़ि गेल अछि । गंगो हमरे संगे रुकल रहल ।

“मुदा हुनका अखन थानामे रहए पड़तनि । ऐहि मामिलाक कागज-पत्र बनेबाक हेतैक । दरोगा साहेब अओताह । तखने हिनका छोड़ल जेतनि ।”

पुलिसक मुँहे ई बात सुनि कए हम आ गंगा थानासँ बिदा भए गेलहुँ। दरभंगा बस स्टैंड धरि दुनूगोटे संगे गेलहुँ। ओहिठामसँ अपन-अपन गामक बसपर चढ़ि गेलहुँ । हमरा गामक बस डेढ़ घंटाक बाद खुजलैक । ताबत गंगा अपन गामो पहुँचि गेल रहए । ओहिठामसँ हमरा फोन केलक । ओकरा आश्चर्य लगलैक जे हम अखन धरि बस स्टैंडेपर छी ।

“एतेक समय कथीमे लागि गेल?”

“बसे खराप भए गेलैक । कनीके घुसकले छल कि अगिलका चक्काक हबा फुस्स दए निकलि गेलैक । यात्रीसभ बससँ उतारि देल गेल । बस गाड़ीकेँ ठेलि कए स्टैंडमे आनल गेल । लगीचेक दोकानसँ मिस्त्री बजाओल गेल । तहन तँ ओकर पहिआ बदलल आ बहुत मोसकिलसँ आब हमसभ फेरसँ अपन-अपन सीटपर बैसलहुँ अछि । ताबत बहुत रास यात्रीसभ बसकेँ छोड़ि देलकैक। तेँ बस ठाढ़े अछि जाहिसँ किछु आओर यात्रीसभकेँ बैसाओल जा सकए ।

आखिर बस खुजल । जेना-जेना बस हमरा गाम दिस बढ़ैत गेल, हमरा जानमे-जान अबैत गेल । लागए जेना सौंसे देहमे नवीन ऊर्जाक संचार भए रहल अछि । बस हमर गाम पहुँचैत अछि। हम आगूबाटे उतरि जाइत छी । एमहर हम उतरैत छी आ पाछू लागल मुखिआ  सेहो टेकरसँ उतरैत अछि । दुनूगोटेकेँ गामक चौकपर भेंट भए जाइत अछि । हमसभ संगे आगू बढ़ैत छी । हम मुखिआक संगे अपना ओहिठाम पहुँचैत छी । घरक मुख्यद्वारिपर एकटा बड़का ताला लागल छल । ताला देखि हम बिस्मित छी ।

“अखन हमरे ओहिठाम चलू ।”

“से किएक? हम अपन घर छोड़ि कतहु किएक जाएब?”

“बादमे सभ बात कहब।”

“से की?”

“सएह कहू। अहाँ तेना बाजि रहल छी जेना किछु बुझले नहि होअए ।”

“ऐना बुझौअलि नहि बुझाबह । साफ-साफ बाजह जे बात की अछि? हम तँ दोसर ताला लगा गेल रही ।”

“तकर बाद बहुत किछु भए गेल ।”

“की भेल?”

“से हमरा किएक पुछि रहल छी ? अपन पुत्रसँ पुछिअनु।”

“तोरा जखन सभबात बूझल छह तँ बजबामे दिक्कति की छह?”

“बात की रहतैक आ हमरा बजबामे किएक परेसानी होएत? मुदा अहाँक स्थिति देखि बाजल नहि होइत अछि।”

“फेर ओएह बात? जे बात छैक से साफ-साफ कहह ।”

“अहाँक पुत्र आएल रहथि ।”

 “से?”

“ओ सभटा जमीन-जथा घर समेत हुंडे बेचि गेलाह । कहलाह जे हमर बाबू आब असगर गाममे नहि रहि सकैत छथि। बएस बहुत भए गेल छनि । ओ अपने नौकरी करताह की गाम सम्हारताह? । तेँ गामक चीज-वस्तुसभ बेचि देनाइ जरूरी छनि।”

गंगा मुँहे ई बातसभ सुनि हमरा बहुत कष्ट भेल । लागल जेना माथमे बिजलीक झटका लागि गेल हो । हम ठामहि टगि गेलहुँ।