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रामचरितमानस मोतीः अत्रि मिलन एवं स्तुति

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

अत्रि मिलन एवं स्तुति

१. चित्रकूट सँ प्रभु श्री रामचन्द्रजी सब मुनि लोकनि सँ विदा लैत सीताजी सहित चलि देलाह! जखन प्रभु अत्रिजीक आश्रम मे गेलाह त हुनकर आगमन सुनिते महामुनि हर्षित भ’ गेलथि। शरीर पुलकित भ’ गेलनि। अत्रिजी उठिकय दौड़ि पड़लाह। हुनका दौड़िते अबैत देखि श्री रामजी आरो शीघ्रता सँ बढ़ि चललाह। दण्डवत करिते श्री रामजी केँ उठाकय मुनि हृदय सँ लगा लेलनि आर प्रेमाश्रुक जल सँ दुनू भाइ केँ नहा देलनि। श्री रामजीक छवि देखि मुनिक नेत्र शीतल भ’ गेलनि। फेर ओ हुनका आदरपूर्वक अपन आश्रम मे लय अनलाह। पूजन कयकेँ सुन्दर वचन कहि मुनि मूल आर फल देलनि, जे प्रभुक मोन केँ खूब रुचलनि।

२. प्रभु आसन पर विराजमान छथि। नेत्र भरिकय हुनकर शोभा देखि परम प्रवीण मुनि श्रेष्ठ हाथ जोड़ि स्तुति करय लगलाह –

नमामि भक्त वत्सलं। कृपालु शील कोमलं॥
भजामि ते पदांबुजं। अकामिनां स्वधामदं॥१॥

निकाम श्याम सुंदरं। भवांबुनाथ मंदरं॥
प्रफुल्ल कंज लोचनं। मदादि दोष मोचनं॥२॥

प्रलंब बाहु विक्रमं। प्रभोऽप्रमेय वैभवं॥
निषंग चाप सायकं। धरं त्रिलोक नायकं॥३॥

दिनेश वंश मंडनं। महेश चाप खंडनं॥
मुनींद्र संत रंजनं। सुरारि वृंद भंजनं॥४॥

मनोज वैरि वंदितं। अजादि देव सेवितं॥
विशुद्ध बोध विग्रहं। समस्त दूषणापहं॥५॥

नमामि इंदिरा पतिं। सुखाकरं सतां गतिं॥
भजे सशक्ति सानुजं। शची पति प्रियानुजं॥६॥

त्वदंघ्रि मूल ये नराः। भजंति हीन मत्सराः॥
पतंति नो भवार्णवे। वितर्क वीचि संकुले॥७॥

विविक्त वासिनः सदा। भजंति मुक्तये मुदा॥
निरस्य इंद्रियादिकं। प्रयांतिते गतिं स्वकं॥८॥

तमेकमद्भुतं प्रभुं। निरीहमीश्वरं विभुं॥
जगद्गुरुं च शाश्वतं। तुरीयमेव केवलं॥९॥

भजामि भाव वल्लभं। कुयोगिनां सुदुर्लभं॥
स्वभक्त कल्प पादपं। समं सुसेव्यमन्वहं॥१०॥

अनूप रूप भूपतिं। नतोऽहमुर्विजा पतिं॥
प्रसीद मे नमामि ते। पदाब्ज भक्ति देहि मे॥११॥

पठंति ये स्तवं इदं। नरादरेण ते पदं॥
व्रजंति नात्र संशयं। त्वदीय भक्ति संयुताः॥१२॥

हे भक्त वत्सल! हे कृपालु! हे कोमल स्वभाववला! हम अपने केँ नमस्कार करैत छी। निष्काम पुरुष केँ अपन परमधाम दयवला अपनेक चरण कमल केँ हम भजैत छी। अपने नितान्त सुन्दर श्याम, संसार (आवागमन) रूपी समुद्र केँ मथबाक लेल मन्दराचल रूप, फूलायल कमल केर समान नेत्रवला आर मद आदि दोष सँ छोड़ेनिहार छी। हे प्रभो! अहाँक विशाल भुजाक पराक्रम आर अहाँक ऐश्वर्य अप्रमेय (बुद्धिक परे अथवा असीम) अछि। अपने तरकस आर धनुष-बाण धारण करनिहार तीनू लोक केर स्वामी सूर्यवंश केर भूषण, महादेवजीक धनुष केँ तोड़यवला, मुनिराज आर संत केँ आनंद दयवला आ देवता लोकनिक शत्रु असुरक समूह केर नाश करयवला अछि। अहाँ कामदेव केर शत्रु महादेवजी द्वारा वंदित, ब्रह्मा आदि देवता सँ सेवित, विशुद्ध ज्ञानमय विग्रह आर समस्त दोष केँ नष्ट करयवला छी। हे लक्ष्मीपते! हे सुखक खान आर सत्पुरुषक एकमात्र गति! हम अहाँ केँ नमस्कार करैत छी! हे शचीपति (इन्द्र) केर प्रिय छोट भाइ (वामनजी)! स्वरूपा-शक्ति श्री सीताजी आर छोट भाइ लक्ष्मणजी सहित अहाँ केँ हम भजैत छी। जे मनुष्य मत्सर (डाह) रहित भ’ कय अहाँक चरणकमल केर सेवन करैत अछि, ओ तर्क-वितर्क अनेकों प्रकारक सन्देह रूपी तरंग सब सँ पूर्ण संसार रूपी समुद्र मे नहि खसैत अछि, आवागमनक चक्कर मे नहि पड़ैत अछि। जे एकान्तवासी पुरुष मुक्तिक लेल, इन्द्रियादिक निग्रह कयकेँ (ओकरा विषय सबसँ हंटाकय) प्रसन्नतापूर्वक अपनेक भजैत छी, ओ स्वकीय गति केँ (अपन स्वरूप केँ) प्राप्त होइत अछि। ताहि अपने केँ जे एक (अद्वितीय), अद्भुत (मायिक जगत सँ विलक्षण), प्रभु (सर्वसमर्थ), इच्छारहित, ईश्वर (सभक स्वामी), व्यापक, जगद्गुरु, सनातन (नित्य), तुरीय (तीनू गुण सँ सर्वथा परे) आर केवल अपन स्वरूप मे स्थित अछि। तथा जे भावप्रिय, कुयोगी (विषयी पुरुष सभक) लेल अत्यन्त दुर्लभ, अपन भक्त सभक लेल कल्पवृक्ष (अर्थात्‌ हुनकर समस्त कामना सब केँ पूर्ण करयवला), सम (पक्षपातरहित) आर सदा सुखपूर्वक सेवन करय योग्य अछि, हम निरन्तर भजैत छी। हे अनुपम सुन्दर! हे पृथ्वीपति! हे जानकीनाथ! हम अपने केँ प्रणाम करैत छी। हमरा पर प्रसन्न होउ, हम अपने केँ नमस्कार करैत छी। हमरा अपन चरणकमल केर भक्ति दिअ। जे मनुष्य एहि स्तुति केँ आदरपूर्वक पढ़ैत छथि, ओ अहाँक भक्ति सँ युक्त भ’ कय अहाँक परमपद केँ प्राप्त होइत छथि, एहि मे सन्देह नहि। मुनि (एहि तरहें) विनती कयकेँ आर फेर सिर नमाकय, हाथ जोड़िकय कहलनि – हे नाथ! हमर बुद्धि अहाँक चरणकमल केँ कहियो नहि छोड़य।

हरिः हरः!!

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