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रामचरितमानस मोतीः जयन्तक कुटिलता आ फल प्राप्ति

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

जयन्तक कुटिलता आ फल प्राप्ति

१. एक बेर सुन्दर-सुन्दर फूल सब तोड़िकय श्री रामजी अपना हाथ सँ तरह-तरह के गहना बनौलनि आर सुन्दर स्फटिक शिला पर बैसि प्रभु बड़ा आदरक संग ओ गहना सब श्री सीताजी केँ पहिरौलनि आ सजौलनि।

२. ताहि घड़ी देवराज इन्द्रक मूर्ख पुत्र जयन्त कौआक रूप धयकय श्री रघुनाथजीक बल जाँचय चाहलक। जेना महान मन्दबुद्धि चुट्टी समुद्रक थाह पाबय चाहैत हो! ओ मूढ़, मन्दबुद्धिक कारण सँ भगवानक बल केर परीक्षा करबाक लेल कौआ बनि गेल आ सीताजीक पैर पर चोंच मारिकय भागि गेल।

३. जखन माता जानकीक पैर सँ खून बहय लगलनि तखन श्री रघुनाथजी देखलाह आर ओहि कौआरूपी जयन्त केँ दण्डित करबाक लेल अपन धनुष पर सींक (सरकंडा) केर बाण सन्धान कयलनि। श्री रघुनाथजी, जे अत्यन्त कृपालु छथि आर जिनका दीन लोक पर सदिखन प्रेम रहैत छन्हि, तिनको संग ओ अवगुणक घर ‘मूर्ख जयन्त’ आबिकय छल कयलक।

२. मंत्र सँ प्रेरित भ’ कय ओ ब्रह्मबाण दौड़ल। कौआ भयभीत भ’ भागल। भागैत-भागैत अपन असली रूप मे पिता इन्द्र लग पहुँचल। मुदा श्री रामजीक विरोधी जानि इन्द्र ओकरा नहि रखलनि। तखन ओ निराश भ’ गेल। ओकर मोन मे आर भय बढ़ि गेलैक।

३. जेना दुर्वासा ऋषि केँ चक्र सँ भय भेल रहनि किछु तहिना ओ जयन्त भय सँ आक्रान्त भ’ गेल। ओ ब्रह्मलोक, शिवलोक आदि समस्त लोक सब मे थाकल आ भय-शोक सँ व्याकुल अवस्था मे भागैत फिरल। मुदा कियो ओकरा बैसइयो तक लेल नहि कहलकैक। श्री रामजीक द्रोही केँ के राखि सकैत अछि?

४. काकभुशुण्डिजी कहैत छथि – हे गरुड़जी! सुनू! ओकरा लेल माता मृत्युक समान, पिता यमराजक समान आर अमृत विष केर समान भ’ जाइत छैक। मित्र सैकड़ो शत्रु जेकाँ करय लगैत छैक। देवनदी गंगाजी ओकरा लेल वैतरणी (यमपुरीक नदी) भ’ जाइत छथि। हे भाइ! सुनू! जे श्री रघुनाथजीक विमुख होइत अछि, समस्त संसार ओकरा लेल आइगो सँ बेसी गरम (जरबयवला) भ’ जाइत छैक।

५. नारदजी जयन्त केँ व्याकुल देखलनि त हुनका दया आबि गेलनि। कियैक त सन्तक चित्त बड़ा कोमल होइत छैक। ओ ओकरा बुझबैत कहलखिन जे अन्यत्र कतहु नहि, तुरन्त श्री रामजीक शरण मे जाकय क्षमा मांग, वैह टा रक्षा करथुन, आन कियो नहि।

६. ओ श्री रामजी लग गेल आ गोहारिकय विनती कयलक – “हे शरणागत के हितकारी! हमर रक्षा करू! हमर रक्षा करू!!” आतुर आर भयभीत जयन्त श्री रामजीक चरण पकड़ि लेलक आर कहलक – “हे दयालु रघुनाथजी! रक्षा करू, रक्षा करू! अहाँक अतुलित बल आर अहाँक अतुलित प्रभुता (सामर्थ्य) केँ हम मन्दबुद्धि नहि बुझि पेने रही। अपन कर्म सँ उत्पन्न फल हम पाबि गेलहुँ। आब हे प्रभु! हमर रक्षा करू! हम अहाँक शरण मे आयल छी।”

७. शिवजी कहैत छथि – “हे पार्वती! कृपालु श्री रघुनाथजी ओकर अत्यन्त आर्त्त (दुःख भरल) वाणी सुनिकय ओकरा एक आँखि सँ आन्हर (कन्हा) बना छोड़ि देलनि। ओ मोहवश द्रोह कयने छल। ताहि लेल यद्यपि ओकर वधे टा उचित रहैक, तथापि प्रभु कृपा कयकेँ ओकरा छोडि देलनि। श्री रामजीक समान कृपालु आर के होयत?”

८. श्री रघुपति एहि तरहें अनेकों प्रकारक सुन्दर लीला सब करैत चित्रकूट मे बहुतो दिवस धरि रहलथि। हुनकर ई चरित्र सभक लेल अमृत समान (प्रिय) बनल। किछु समय पश्चात् श्री रामजी मोन मे एना अनुमान लगेलनि जे आब एतय हमरा सब कियो चिन्हि गेल अछि, धीरे-धीरे एतय बहुत भीड़ लागि जायत।

हरिः हरः!!

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