स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

अरण्यकाण्डः तृतीय सोपान-मंगलाचरण

श्लोक :
मूलं धर्मतरोर्विवेकजलधेः पूर्णेन्दुमानन्ददं
वैराग्याम्बुजभास्करं ह्यघघनध्वान्तापहं तापहम्‌।
मोहाम्भोधरपूगपाटनविधौ स्वःसम्भवं शंकरं
वंदे ब्रह्मकुलं कलंकशमनं श्री रामभूपप्रियम्‌॥१॥

धर्मरूपी वृक्षक मूल, विवेकरूपी समुद्रक आनन्द देनिहार पूर्णचन्द्र, वैराग्यरूपी कमल केर (विकसित करयवला) सूर्य, पापरूपी घोर अन्धकार केँ निश्चय टा मिटेनिहार, तीनू ताप केर हरनिहार, मोहरूपी मेघक समूह केँ छिन्न-भिन्न करबाक विधि (क्रिया) मे आकाश सँ उत्पन्न पवन स्वरूप, ब्रह्माजीक वंशज (आत्मज) तथा कलंकनाशक, महाराज श्री रामचन्द्रजीक प्रिय श्री शंकरजीक हम वन्दना करैत छी।

सान्द्रानन्दपयोदसौभगतनुं पीताम्बरं सुंदरं
पाणौ बाणशरासनं कटिलसत्तूणीरभारं वरम्‌।
राजीवायतलोचनं धृतजटाजूटेन संशोभितं
सीतालक्ष्मणसंयुतं पथिगतं रामाभिरामं भजे॥२॥

जिनकर शरीर जलयुक्त मेघक समान सुन्दर (श्यामवर्ण) एवं आनन्दघन अछि, जे सुन्दर (वल्कल केर) पीत वस्त्र धारण कएने छथि, जिनकर हाथ मे बाण आर धनुष अछि, डाँर्ह उत्तम तरकस केर भार सँ सुशोभित छन्हि, कमल केर समान विशाल नेत्र छन्हि आर मस्तक पर जटाजूट धारण कएने छथि, ओहि अत्यन्त शोभायमान श्री सीताजी और लक्ष्मणजी सहित मार्ग मे चलैत आनन्द देनिहार श्री रामचन्द्रजी केँ हम भजैत छी।

सोरठा:
उमा राम गुन गूढ़ पंडित मुनि पावहिं बिरति।
पावहिं मोह बिमूढ़ जे हरि बिमुख न धर्म रति॥

हे पार्वती! श्री रामजीक गुण गूढ़ छन्हि, पण्डित आर मुनि ओ सब बुझिकय वैराग्य प्राप्त करैत छथि, मुदा जे भगवान सँ विमुख छथि आर जिनका धर्म मे प्रेम नहि छन्हि, ओ महामूढ़ (हुनका सुनिकय) मोह केँ प्राप्त होइत छथि।

चौपाई:
पुर नर भरत प्रीति मैं गाई। मति अनुरूप अनूप सुहाई॥
अब प्रभु चरित सुनहु अति पावन। करत जे बन सुर नर मुनि भावन॥1॥

पुरवासी लोकनिक आर भरतजीक अनुपम आर सुन्दर प्रेम केर हम अपन बुद्धि अनुसार गान कयलहुँ। आब देवता, मनुष्य आर मुनि सभक मोन केँ भाबयवला प्रभु श्री रामचन्द्रजीक ओ अत्यन्त पवित्र चरित्र सुनू, जे सब ओ वन मे कय रहला अछि।

हरिः हरः!!