जीतल ओ जे समय पर बुझलक
धृतराष्ट्र उवाच।
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय॥१॥
धृतराष्ट्र बजलाह – हे सञ्जय! कुरुक्षेत्र जेहेन धर्मक्षेत्र मे युद्ध लेल एकत्रित हमर लोक आ पाण्डव लोकनि कि सब कयलनि?
गीताक एहि प्रथम श्लोक मे राजा धृतराष्ट्र दिव्यदृष्टिसम्पन्न सञ्जय सँ पुछलखिन जे ‘हमर लोक’ आ ‘पाण्डव लोकनि’ युद्धक मैदान कुरुक्षेत्र जे धर्मक्षेत्र रूप मे विख्यात छल ताहि ठाम युद्ध लेल एकत्रित भेलाक बाद कि सब कयलनि। युद्ध मैदान के हाल जनबाक लेल राजा आतुर छथि। हुनका ‘हमर’ आ ‘ओकर’ – दुइ पक्ष बीच के अवस्था ‘जीत’ कि ‘हार’ जेहेन परिणामक चिन्ता छन्हि। युद्ध मे जे जीतत तखनहि ओकरा राज भेटतैक, ई जिद्द छलैक दुर्योधनक। पाण्डवक सब शान्ति प्रस्ताव केँ ओ नकारि चुकल छल। आ, आब युद्धक मैदान धरि बात पहुँचि गेल अछि। दिव्यदृष्टि सँ सम्पन्न सञ्जय जे आँखि सँ आन्हर राजा धृतराष्ट्र केँ युद्ध मैदानक सजीव दृश्य देखिकय कहि सकैत रहथि, हुनका सँ पुछल गेल एहि प्रश्न मे धृतराष्ट्रक अवस्था जेकाँ हम समस्त जीव जे सांसारिक सुख-भोग, धन-सम्पत्ति, मान-मर्यादा आदिक राज्य लेल आतुर रहैत छी तेकरा सभक अछि। देखल जाय त हम सब एहिना भ्रमित अवस्था मे द्वंद्व मे ओझरायल जीवन भरि भटकैत रहैत छी। अपन कर्तव्य-कर्म सँ परिचित रहितो बेसी पेबाक लोभ सँ ग्रसित रहि युद्ध लेल उद्यत् रहैत छी। आर जीवन जखन जीर्ण होमय लगैत अछि तखन आध्यात्मिक चिन्तन लेल सोच बनबैत छी। जखन कि गीताक गम्भीर अध्ययन सँ ई ज्ञात होइत अछि जे यथार्थतः जीवनक अर्थ कि होइत छैक, एकरा केना जिबाक चाही। ई ‘हमर’ आ ‘ओकर’ के चक्कर मे फँसब भयावह मोहावस्था थिक। जे समय पर बुझि गेल से जीत गेल।
हम सब धृतराष्ट्र समान आन्हर छी – कारण भविष्य आ परिणाम देखबाक सामर्थ्य हमरा सभक पास नहि अछि। जतबे कल्पना आन्हर धृतराष्ट्र कय सकैत रहथि, ततबे कामना-कल्पना हम सब करैत रहैत छी। धृतराष्ट्र जहिना आन्तरिक दृष्टि सँ आ छुबि-छाबिकय कोनो वस्तुक पहिचान कय लेल करथि, ठीक तहिना हम सब अपन बौद्धिक क्षमता व अन्तर्दृष्टि मात्र सँ कोनो गणना आ आकलन करैत आगू के सोचैत रहैत छी। आन्हर एक आरो दृष्टि सँ छी हमरा लोकनि – ओ ई जे कोनो घटना जे घटित भ’ जाइत छैक, कोनो अनपेक्षित बात अपने संग घटित भ’ जाइत अछि त ओकर कारण सेहो हम सब नहि देखि-बुझि पबैत छी। एतय सेहो बिल्कुल धृतराष्ट्र समान मात्र गणना, कल्पना आ अन्दाज मात्र लगबैत रहैत छी। उपरोक्त चर्चा मे द्वंद्वक स्थिति मे रहब हमरा लोकनिक पास स्थूल दृष्टि (आँखि) रहितो दृष्टिविहीन बनौने रहैत अछि। तेँ आध्यात्मिक उन्नतिक चेष्टा सदिखन करैत रहबाक चाही। आध्यात्मिक सबलता सँ अन्तर्दृष्टि मे दिव्यताक प्रवेश होइत छैक। हम सब सञ्जय जेकाँ दिव्यदृष्टिसम्पन्न बनि जाइत छी। अथवा सञ्जय जेहेन सहयात्री भेटि गेल करैत अछि आध्यात्मिक उन्नति सँ। राजा धृतराष्ट्र बेटा दुर्योधन जेकाँ बताह आ अहंकार मे कहियो नहि रहलाह, नहिये रानी गांधारी कहियो अपन बेटाक बतहपनी केँ सही ठहरेली। परञ्च दुनू प्राणी आँखि सँ विकलांग अपन बेटाक जिद्द आ अहंकार के आगू नतमस्तक रहथि। तथापि, आध्यात्मिक उपलब्धि एतेक रहनि जे सञ्जय जेहेन दिव्यदृष्टिसम्पन्न मित्र भेटि गेल छलन्हि।
हरिः हरः!!