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रामचरितमानस मोतीः भरतजीक अयोध्या लौटब, भरतजी द्वारा पादुकाक स्थापना, नन्दिग्राम मे निवास आर श्री भरतजीक चरित्र श्रवण केर महिमा

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

भरतजीक अयोध्या लौटब, भरतजी द्वारा पादुकाक स्थापना, नन्दिग्राम मे निवास आर श्री भरतजीक चरित्र श्रवण केर महिमा

१. छोट भाइ लक्ष्मणजी और सीताजी समेत प्रभु श्री रामचंद्रजी पर्णकुटी मे एना सुशोभित भ’ रहला अछि मानू वैराग्य, भक्ति और ज्ञान शरीर धारण कएने शोभित भ’ रहल होइथ।

२. मुनि, ब्राह्मण, गुरु वशिष्ठजी, भरतजी और राजा जनकजी सारा समाज श्री रामचन्द्रजीक विरह मे विह्वल छथि। प्रभुक गुणसमूह केँ मोन मे स्मरण करैत सब गोटे मार्ग मे चुपचाप चलल जा रहल छथि।

३. पहिल दिन सब गोटे यमुनाजी उतरिकय पार भेलाह। ओ दिन बिना भोजनहि के बीति गेल। दोसर दिन गंगाजी उतरिकय गंगापार श्रृंगवेरपुर मे बीतल। ओतय राम सखा निषादराज सबटा सुप्रबंध कय देलनि। फेर सई उतरिकय गोमतीजी मे स्नान कयलनि आर चारिम दिन सब गोटे अयोध्या पहुँचि गेलाह।

४. जनकजी चारि दिन अयोध्या मे रहला आ राजकाज एवं समस्त साज-समान केँ सम्हारिकय, मंत्री, गुरुजी तथा भरतजी केँ राज्य सौंपिकय, सारा साज-सामान ठीक कयकेँ तिरहुत लेल विदाह भेलाह।

५. नगरक स्त्री-पुरुष गुरुजी शिक्षा मानैत श्री रामजीक राजधानी अयोध्याजी मे सुखपूर्वक रहय लगलाह। सब कियो श्री रामचन्द्रजीक दर्शन लेल नियम आर उपवास करय लगलाह। ओ सब भूषण आर भोग-सुख सबटा छोड़ि-छाड़ि अवधि (१४ वर्ष) केर आशा पर जी रहल छथि।

६. भरतजी मंत्री लोकनि केँ आ विश्वासी सेवक सब केँ बुझा-बुझाकय काज मे उद्यत कय देलथि। ओ सब गोटे सीख पाबिकय अपन-अपन काज मे लागि गेलाह। फेर छोट भाइ शत्रुघ्नजी केँ बजाकय शिक्षा देलखिन आ हुनका सब माता लोकनिक सेवा सौंपि देलखिन्ह। ब्राह्मण लोकनि केँ बजाकय भरतजी हाथ जोड़िकय प्रणाम करैत अवस्था अनुसार विनय आ नेहोरा करैत कहलखिन जे अपने सब ऊँच-नीच (छोट-पैघ), नीक-बेजा जे किछु कार्य जरूरी बुझी ताहि लेल हमरा आज्ञा दैत रहब। कोनो बात लेल कखनहुँ संकोच नहि करब। भरतजी फेर परिवारक लोक सब केँ, नागरिक सब केँ तथा अन्य प्रजा सब केँ बजाकय, सभक समाधान कयकेँ हुनका सब केँ सुखपूर्वक बसबाक लेल प्रेरित कयलनि। फेर छोट भाइ शत्रुघ्नजी सहित ओ गुरुजीक घर गेलाह आ दंडवत करैत हाथ जोड़िकय बजलाह – “अपनेक आज्ञा होयत तँ आब हम नियमपूर्वक रहब आरम्भ करी!”

७. मुनि वशिष्ठजी पुलकित शरीर सँ प्रेम सहित कहलखिन – “हे भरत! अहाँ जे किछु बुझब, कहब आ करब, वैह जगत मे धर्म केर सार होयत।” भरतजी एतेक सुनिकय आर शिक्षा आ पैघ आशीर्वाद पाबिकय ज्योतिषी सब केँ बजौलनि आ दिन (नीक मुहूर्त) तकबाकय प्रभुक चरणपादुका केँ निर्विघ्नतापूर्वक सिंहासन पर विराजित करौलनि। फेर श्री रामजीक माता कौसल्याजी आ गुरुजी केर चरण मे सिर नमाकय आ प्रभुक चरणपादुका सँ आज्ञा लयकय धर्म केर धुरी धारण करय मे धीर भरतजी नन्दिग्राम मे पर्णकुटी बनाकय ओहि मे निवास करय लगलाह।

८. माथ पर जटाजूट और शरीर मे मुनि सभक (वल्कल) वस्त्र धारण कयने छथि। पृथ्वी केँ कनेक कोरिकय ताहि भीतर कुशक आसन बिछा, भोजन, वस्त्र, बर्तन, व्रत, नियम सब बात मे ऋषि लोकनिक कठिन धर्म केँ प्रेम सहित आचरण करय लगलाह।

९. गहना-कपड़ा आर अनेकों प्रकारक भोग-सुख केँ मन, तन आर वचन सँ तृण तोड़िकय (प्रतिज्ञा कयकेँ) त्यागि  देलनि। जाहि अयोध्याक राज्य सँ देवराज इन्द्र सिहरैत रहथि, आर जतय के राजा दशरथजीक सम्पत्ति सुनिकय कुबेरो लजा गेल करथि, ओहि अयोध्यापुरी मे भरतजी अनासक्त भ’ कय एहि तरहें निवास कय रहल छथि, जेना चम्पा फूल केर बाग मे भौंरा निवास करैत अछि।

१०. श्री रामचन्द्रजीक प्रेमी बड़भागी पुरुष लक्ष्मीक विलास (भोगैश्वर्य) केँ वमन भाँति त्यागि दैत अछि, फेर ओकरा दिश तकितो तक नहि अछि। तखन भरतजी त (स्वयं) श्री रामचन्द्रजीक प्रेम केर पात्र थिकाह। ओ एहि (भोगैश्वर्य त्याग रूप) चरित्र प्रस्तुत कयके कोनो पैघ नहि भेलाह, हुनका लेल त ई कोनो पैघ बात छले नहि। पृथ्वी उपरक जल नहि पिला सँ आर नीर-क्षीर-विवेक केर विभूति (शक्ति) सँ हंस केर सेहो खूब सराहना होइत छैक।

११. भरतजीक शरीर दिनानुदिन दुबराइत जा रहल अछि। तेज (अन्न, घृत आदि से उत्पन्न होयवला मेद*) घटि रहल अछि। बल आर मुख छबि (मुख केर कान्ति अथवा शोभा) ओहिना बनल रहैत अछि। राम प्रेम केर प्रण नित्य नव आर पुष्ट होइत अछि। धर्म केर दल बढ़ैत अछि। मोन उदास नहि अछि। खूब प्रसन्न अछि। (*संस्कृत कोष मे ‘तेज’ केर अर्थ मेद भेटैत अछि आर ई अर्थ लेला सँ ‘घटइ’ केर अर्थ मे सेहो कोनो तरहक खींचा-तानी नहि करय पड़ैछ।) जेना शरद ऋतुक प्रकाश (विकास) सँ जल घटैत छैक, मुदा बेंत शोभा पबैत छैक आर कमल विकसित होइत छैक।

१२. शम, दम, संयम, नियम आ उपवास आदि भरतजीक हृदयरूपी निर्मल आकाशक नक्षत्र (तारागण) थिक। विश्वासे ओहि आकाशक ध्रुवतारा थिक। चौदह वर्षक अवधि (केर ध्यान) पूर्णिमाक चान समान अछि। स्वामी श्री रामजीक सुरति (स्मृति) आकाशगंगा जेकाँ प्रकाशित अछि। राम प्रेम टा अचल (सदा रहयवला) आर कलंकरहित चन्द्रमा अछि। ओ अपन समाज (नक्षत्र) सहित नित्य सुन्दर सुशोभित अछि।

१३. भरतजीक रहनी, समझ, करनी, भक्ति, वैराग्य, निर्मल, गुण आर ऐश्वर्यक वर्णन करय मे सब सुकवि सकुचाइत छथि, कियैक तँ ओतय (आर लोकक त बाते की) स्वयं शेष, गणेश आर सरस्वती तक केर पहुँच नहि होइछ। ओ नित्य प्रति प्रभुक पादुकाक पूजन करैत छथि, हृदय मे प्रेम समाइत नहि छन्हि। पादुका सँ आज्ञा माँगि-माँगिकय ओ सब प्रकारक राज-काज करैत छथि। शरीर पुलकित छन्हि, हृदय मे श्री सीता-रामजी छथिन। जिह्वा राम नाम जपि रहल अछि। आँखि मे प्रेमक नोर भरल अछि। लक्ष्मणजी, श्री रामजी और सीताजी त वन मे बसैत छथि, मुदा भरतजी घरहि मे रहिकय तप द्वारा शरीर केँ कसि रहल छथि।

१४. दुनू दिशक स्थिति बुझैत सब लोक कहैत छथि जे भरतजी सब प्रकार सँ सराहना योग्य छथि। हुनकर व्रत आर नियम सब सुनिकय साधु-संत सेहो सकुचा जाइत छथि आर हुनकर स्थिति देखिकय मुनिराज सेहो लज्जित होइत छथि।

१५. भरतजीक परम पवित्र आचरण (चरित्र) मधुर, सुन्दर आर आनन्द-मंगल करयवला अछि। कलियुग केर कठिन पाप आ क्लेश सब केँ हरयवला अछि। महामोह रूपी रात्रि केँ समाप्त करय लेल सूर्यक समान अछि। पाप समूह रूपी हाथी लेल सिंह अछि। सारा संताप केर दल केँ नाश करयवला अछि। भक्त सब केँ आनन्द दयवला आ भव केर भार (संसारक दुःख) केँ भंजन करयवला तथा श्री रामप्रेमरूपी चन्द्रमाक सार (अमृत) अछि।

छन्द :
सिय राम प्रेम पियूष पूरन होत जनमु न भरत को।
मुनि मन अगम जम नियम सम दम बिषम ब्रत आचरत को॥
दुख दाह दारिद दंभ दूषन सुजस मिस अपहरत को।
कलिकाल तुलसी से सठन्हि हठि राम सनमुख करत को॥

श्री सीतारामजीक प्रेमरूपी अमृत सँ परिपूर्ण भरतजीक जन्म जँ नहि होइतय त मुनि लोकनिक मोनक अगम यम, नियम, शम, दम आदि कठिन व्रत सभक आचरण के करितय? दुःख, संताप, दरिद्रता, दम्भ आदि दोष सबकेँ अपन सुयश केर बहन्ने के हरण करितय? तथा कलिकाल मे तुलसीदास जेहेन शठ केँ हठपूर्वक श्री रामजीक सम्मुख के करितय? तुलसीदासजी कहैत छथि – जे कियो भरतजीक चरित्र केँ नियम सँ आदरपूर्वक सुनत, ओकरा अवश्ये टा श्रीसीतारामजीक चरण मे प्रेम हेतैक आर सांसारिक विषय रस सँ वैराग्य हेतैक।

मासपारायण, एक्कीसम विश्राम

इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने द्वितीयः सोपानः समाप्तः। कलियुग केर सम्पूर्ण पाप सबकेँ विध्वंस करयवला श्री रामचरित मानस केर ई दोसर सोपान समाप्त भेल॥
(अयोध्याकाण्ड समाप्त)

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