रामचरितमानस मोतीः लक्ष्मणजीक क्रोध आ श्री रामजीक धनुष तोड़बाक तैयारी

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

श्री लक्ष्मणजीक क्रोध

जनकजीक वचन सुनिकय चारूकात चुप्पी पसैर गेल अछि लेकिन ओतय मौजूद रघुवंशी राजकुमार आ ऋषि-मुनि लोकनि सहित सीताजी, रानी आ अन्य लोक सभक कि स्थिति अछि तेकर वर्णन तुलसीदासजी सन चतुर कविक दृष्टि सँ देखू –

१. जनकक वचन सुनिकय सब स्त्री-पुरुष जानकीजी दिशि देखिकय दुःखी भेलथि। लेकिन लक्ष्मणजी तमतमा उठला। हुनकर भौंह टेढ़ भ’ गेलनि, ठोर फड़कय लगलनि आर आँखि क्रोध सँ लाल भ’ गेलनि। श्री रघुवीरजी के डरे किछु कहि त नहि सकलथि, लेकिन जनकजीक वचन हुनका बाण जेकाँ लगलनि। जखन नहि रहि सकलथि तखन श्री रामचन्द्रजीक चरण कमल मे सिर नमाकय ओ यथार्थ वचन बजलाह –

रघुवंशी मे सँ कियो कतहु रहैत अछि ताहि ठाम एहेन वचन कियो नहि बजैछ जेहेन अनुचित बात रघुकुल शिरोमणि श्री रामजीक उपस्थिति जनितो जनकजी बजला अछि।

हे सूर्य कुल रूपी कमल केर सूर्य! सुनू, हम अपन स्वभाव सँ कहैत छी, किछु अभिमान कय केँ नहि, जँ अहाँ आज्ञा पाबी त हम ब्रह्माण्ड केँ गेन्द जेकाँ उठा ली आर ओकरा कच्चा घैला जेकाँ फोड़ि दी। हम सुमेरु पर्वत केँ मुरइ जेकाँ तोड़ि सकैत छी।

हे भगवन्‌! अहाँक प्रतापक महिमा सँ ई बेचारा पुरान धनुष कोन चीज छी! एना बुझैत हे नाथ! आज्ञा हो त किछु खेल करी, सेहो देखल जाउ। धनुष केँ कमलक ठार्हि जेकाँ चढाकय ओकरा सौ योजन तक दौड़ाबैत लय जाय।

हे नाथ! अहाँक प्रताप केर बल सँ धनुष केँ कुकुरमुत्ता (बरसाती छत्ता) जेकाँ तोड़ि दी। जँ एना नहि करब त प्रभुक चरण केर शपथ अछि, फेर हम धनुष आ तरकस केँ कहियो हाथ मे नहि लेब।

२. जखनहि लक्ष्मणजी क्रोध भरल वचन बजलथि कि पृथ्वी डगमगा उठली आर दिशा सभक हाथी काँपि उठल। सब लोक आ सब राजा सेहो डरा गेलाह। सीताजीक हृदय मे हर्ष भेलनि आर जनकजी लजा गेलाह। गुरु विश्वामित्रजी, श्री रघुनाथजी और सब मुनि मनहि मन खूब प्रसन्न भेलाह आर बेर-बेर पुलकित होबय लगलाह।

३. श्री रामचन्द्रजी इशारा सँ लक्ष्मण केँ मना कयलनि आर प्रेम सँ अपना लग बैसा लेलनि। विश्वामित्रजी शुभ समय जानि अत्यन्त प्रेम सँ भरल वाणी बजलाह – हे राम! उठू, शिवजीक धनुष तोड़ू आर हे तात! जनकक संताप मेटाउ।

४. गुरुक वचन सुनिकय श्री रामजी चरण मे सिर नमाकय, अपन मोन मे बिना कोनो हर्ष वा विषाद रखने अपन ऐंड़ी पर जवान सिंह केँ लजबय वला शैली मे उठिकय ठाढ़ भ’ गेलथि।

५. मंच रूपी उदयाचल पर रघुनाथजी रूपी बाल सूर्य केर उदय होइत सब संत रूपी कमल फुला गेलाह आर नेत्र रूपी भौंरा हर्षित भ’ गेल। राजा सभक आशारूपी राति नष्ट भ’ गेल। हुनकर वचन रूपी तारा सभक चमकनाय बंद भ’ गेल। ओ सब मौन भ’ गेलाह। अभिमानी राजा रूपी कुमुद मुरझा गेलाह आर कपटी राजा रूपी उल्लू सब सेहो नुका गेलथि। मुनि और देवता रूपी चकवा शोकरहित भ’ गेलथि। ओ सब फूल बरसाकय अपन सेवा प्रकट कय रहल छथि।

६. प्रेम सहित गुरु केर चरणक वन्दना कयकेँ श्री रामचन्द्रजी मुनि लोकनि सँ आज्ञा माँगलथि। समस्त जगत केर स्वामी श्री रामजी सुन्दर मतवाला श्रेष्ठ हाथीक चाइल सँ स्वाभाविके चलि देलाह। श्री रामचन्द्रजीक चलिते देरी नगर भरिक सब स्त्री-पुरुष सुखी भ’ गेलथि आर हुनका सभक शरीर मे रोमांच होबय लगलनि। ओ सब पितर और देवता लोकनिक वन्दना कयकेँ अपन पुण्यक स्मरण कयलनि।

“यदि हमर पुण्यक कनिकबो प्रभाव हो त हे गणेश गोसाईं! रामचन्द्रजी शिवजीक धनुष केँ कमलक ठाढ़ि जेकाँ तोड़ि देथि।”

७. श्री रामचन्द्रजी केँ वात्सल्य प्रेम सँ देखिकय आर सखी सब केँ नजदीक बजाकय सीताजीक माता स्नेहवश विलाप करिते ई वचन बजलीह –

“हे सखी! ई जे हमरा सभक हितकारी कहाइत छथि ओहो सबटा तमाशा टा देखयवला छथि। कियो हिनकर गुरु विश्वामित्र केँ बुझाकय नहि कहैत अछि जे ई बच्चा छथि, हिनका लेल एहेन हठ नीक नहि।”

८. जे धनुष रावण आर बाण जेहेन जगद्विजयी वीर द्वारा हिलबो नहि कयल से तोड़बाक लेल मुनि विश्वामित्रजी के रामजी केँ आज्ञा देनाय आर रामजी केर ओकर तोड़बाक लेल चलि देनाय रानी केँ हठ (जिद्द) जेकाँ बुझा पड़लनि, ताहि लेल ओ कहय लगलीह जे –

*गुरु विश्वामित्रजी केँ कियो बुझबैत कियैक नहि अछि। रावण आर बाणासुर जाहि धनुष केँ छुलक तक नहि आर सब राजा घमंड कयकेँ हारि गेलथि, सैह धनुष ई सुकुमार राजकुमार केर हाथ मे दय रहल छथि।

*हंसक बच्चा कतहु मंदराचल पहाड़ उठा सकैत अछि? आर कियो बुझाकय कहय वा नहि, राजा त बड समझदार आ ज्ञानी लोक छथि, हुनका त गुरु केँ बुझेबाक चेष्टा करबाक चाहैत छल, मुदा बुझि पड़ैत अछि जे राजा सेहो सबटा बुधियारी खत्म भ’ गेलनि अछि।

*”हे सखी! विधाताक गति किछुओ बुझय मे नहि अबैत अछि।” एतेक कहिकय रानी चुप भ’ गेलीह।

९. तखन एक चतुर रामजीक महत्व केँ बुझयवाली सखी कोमल वाणी सँ बजलीह –

*”हे रानी! तेजवान देखय मे छोटो भेलापर ओकरा छोट नहि गनबाक चाही।

*कतय घैला सँ उत्पन्न भेनिहार छोट सन मुनि अगस्त्य आर कतय समुद्र? मुदा ओ समुद्र केँ सोखि लेलनि जे सुयश सारा संसार मे पसरल अछि।

*सूर्यमंडल देखय मे छोट लगैत अछि, लेकिन हुनकर उदय होइते तीनू लोकक अंधकार भागि जाइत अछि।

*जेकर वश मे ब्रह्मा, विष्णु, शिव और सबटा देवता छथि से मंत्र अत्यन्त छोट होइत अछि।

*महान मतवाला गजराज केँ छोटे सन अंकुश वश मे कय लैत अछि।

*कामदेव द्वारा फूलहि केर धनुष-बाण लयकय समस्त लोक केँ अपना वश मे कयल गेल अछि।

*हे देवी! एना जानिकय सन्देह त्यागि दिअ। हे रानी! सुनू! रामचन्द्रजी धनुष केँ अवश्ये तोड़ता।”

१०. सखीक वचन सुनिकय रानी केँ श्री रामजीक सामर्थ्यक सम्बंध मे विश्वास भ’ गेलनि। हुनकर उदासी समाप्त भ’ गेलनि आर श्री रामजीक प्रति हुनकर प्रेम अत्यन्ते बढ़ि गेलनि।

११. ताहि समय श्री रामचन्द्रजी केँ देखिकय सीताजी भयभीत हृदय सँ जाहि-ताहि देवता सब सँ विनती कय रहल छथि। ओ व्याकुल होइत मनहि-मन मनबैत छथि –

*”हे महेश-भवानी! हमरा पर प्रसन्न होउ, हम अहाँक जैह किछु सेवा कयलहुँ अछि से सुफल करू आर हमरा स्नेह कयकेँ धनुषक भारीपन केँ खत्म कय दिअ।

*हे गण केर नायक! वर दयवला देवता गणेशजी! हम आइये अहाँक सेवा कयने छलहुँ। बेर-बेर हमर विनती सुनिकय धनुषक भारीपन केँ अत्यन्त कम कय देल जाउ।”

१२. श्री रघुनाथजी दिशि देखि-देखिकय सीताजी धीरज धेने देवता सब केँ मना रहल छथि। हुनकर नेत्र मे प्रेमक नोर भरल छन्हि आ शरीर मे रोमांच सेहो भरल छन्हि। खूब नीक सँ नेत्र भरिकय श्री रामजीक शोभा देखिकय, फेर पिताक प्रण केँ स्मरण कयकेँ सीताजीक मोन क्षुब्ध भ’ उठलनि। ओ मनहि-मन कहय लगलीह –

*”अहो! पिताजी बड कठिन जिद्द ठानि लेलनि, ओ लाभ-हानि किछुओ नहि बुझलनि। मंत्री सब डरा रहल छथि तेँ कियो हुनका ई सीख तक नहि दैत छथि, पंडित लोकनिक सभा मे ई बहुत अनुचित भ’ रहल अछि।

*कतय ई वज्र सँ बढ़िकय कठोर धनुष और कतय ई कोमल शरीर किशोर श्यामसुंदर!

*हे विधाता! हम हृदय मे कोन तरहें धीरज धरू! सिरस केर फूलक कण सँ कतहु हीरा छेदल जा सकत!

*समूचा सभाक बुद्धि मे बियाधि लागि गेल अछि, सब बावला भ’ गेल अछि, तेँ हे शिवजीक धनुष! आब त हमरा अहीं टा के आसरा अछि। अहाँ अपन जड़ता लोक सबकेँ दयकय श्री रघुनाथजीक सुकुमार शरीर देखैत ओतबे हल्लूक भ’ जाउ।”

१३. एहि तरहें सीताजीक मोन मे बहुते संताप भ’ रहल छन्हि। निमेषक एकहु लव (अंश) सौ युग समान बीति रहलनि अछि। प्रभु श्री रामचन्द्रजी केँ देखिकय फेर पृथ्वी दिश टकटकी लगा सीताजीक चंचल नेत्र एना शोभित भ’ रहल अछि मानू चन्द्रमंडल रूपी डोल मे कामदेवक दुनू माछ खेला रहल हो।

१४. सीताजीक वाणी रूपी भ्रमरी केँ हुनकर मुख रूपी कमल रोकि रखने अछि। लाज रूपी रात्रि केँ देखिकय ओ प्रकट नहि होइत अछि। नेत्र केर जल नेत्रहि केर कोण मे रहि जाइत अछि। जेना बड भारी कंजूस लोकक सोना (खजाना) कोनो कोणे मे गाड़ल रहि गेल करैत छैक। अपन बढ़ल व्याकुलता जानि सीताजी लजा गेलीह आर धीरज धयकय हृदय मे विश्वास लय अनलीह जे

*”जँ तन, मन और वचन सँ हमर प्रण सच्च अछि और श्री रघुनाथजीक चरण कमल मे हमर चित्त वास्तव मे अनुरक्त अछि, त सभक हृदय मे निवास करयवला भगवान हमरा रघुश्रेष्ठ श्री रामचन्द्रजीक दासी अवश्य बनओता।

*जेकरा जाहि पर सत्य स्नेह होइत छैक, ओ ओकरा जरूर प्राप्त होइत छैक, एहि मे कनिकबो सन्देह नहि अछि।”

१५. प्रभु दिश ताकि सीताजी शरीर द्वारा प्रेम ठानि लेलनि, यानि ई निश्चय कय लेलनि जे ई शरीर हुनकहि भ’ कय रहत या रहबे नहि करत।

१६. कृपानिधान श्री रामजी सबटा जानि गेलथि। ओ सीताजी केँ देखिकय धनुष दिश एना तकलाह जेना गरुड़जी छोट सन साँप दिश देखल करैत छथि।

१७. एम्हर जखन लक्ष्मणजी देखलनि जे रघुकुल मणि श्री रामचन्द्रजी शिवजीक धनुष दिश तकलनि अछि त ओ शरीर सँ पुलकित भ’ ब्रह्माण्ड केँ चरण सँ दबाकय निम्नलिखित वचन बजलाह –

*”हे दिग्गज लोकनि! हे कच्छप! हे शेष! हे वाराह! धीरज धयकय पृथ्वी केँ थामने रहब, जाहि सँ ई हिलय नहि।

*श्री रामचन्द्रजी शिवजीक धनुष केँ तोड़य चाहैत छथि। हमर आज्ञा सुनिकय सब सावधान भ’ जाउ।”

१८. श्री रामचन्द्रजी जखन धनुष के समीप अयलाह तखन सब स्त्री-पुरुष लोकनि देवता सब केँ पुण्य केँ मनौलनि।

१९. सभक सन्देह और अज्ञान, नीच राजा सभक अभिमान, परशुरामजीक गर्व केर गुरुता, देवता और श्रेष्ठ मुनि लोकनिक कातरता (भय), सीताजी केर सोच, जनक केर पश्चाताप और रानी लोकनिक दारुण दुःख केर दावानल, ई सबटा शिवजीक धनुष रूपी बड़का जहाज केँ पाबिकय, समाज बनाकय ओहि पर जाय चढ़लथि।

२०. ई श्री रामचन्द्रजीक भुजाक बल रूपी अपार समुद्र केर पार जाय चाहैत अछि, मुदा कियो केवट (खेवनिहार) नहि अछि।

हरिः हरः!!