रामचरितमानस मोतीः श्री राम-लक्ष्मण संग विश्वामित्र जीक धनुष यज्ञशाला मे प्रवेश

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

श्री राम-लक्ष्मण संग विश्वामित्र जीक धनुष यज्ञशाला मे प्रवेश

गुरुजी कहि रहल छथि जे हे राम – हे लक्ष्मण, चलू! जनकजी के बोलाहट आबि गेल अछि। आगू – चलिकय सीताजीक स्वयंवर केँ देखबाक चाही। देखी जे ईश्वर किनका बड़ाई दैत छथि।

१. लक्ष्मणजी कहलखिन – हे नाथ! जिनका पर अहाँ कृपा होयत, वैह बड़ाई के पात्र हेताह। धनुष तोड़बाक श्रेय हुनकहि प्राप्त हेतनि। ई श्रेष्ठ वाणी सुनि सब मुनिजन बहुत प्रसन्न भेलाह। सब कियो खूब सुख मानिकय आशीर्वाद देलनि। फेर मुनि सभक समूह सहित कृपालु श्री रामचन्द्रजी धनुष यज्ञशाला देखय चललाह।

२. दुनू भाइ रंगभूमि मे आयल छथि। ई खबरि जखन सब नगर निवासी पओलनि त कि बच्चा आ कि बूढ़, स्त्री, पुरुष सब कियो घर आ सारा काम-काज सब छोड़ि-छाड़ि रंगभूमि मे धनुष भंग यज्ञ देखय चलि देलनि।

३. जखन जनकजी देखलथि जे बहुत भारी भीड़ भ’ गेल अछि तखन ओ सब विश्वासपात्र सेवक सबकेँ बजबा लेलनि आ कहलनि जे अहाँ सब तुरन्त सब लोक सभ लग जाउ आ सब के यथायोग्य आसन दिऔक। ओ सेवक सब कोमल और नम्र वचन कहिकय उत्तम, मध्यम, नीच और लघु (सब श्रेणीक) स्त्री-पुरुष केँ अपन-अपन योग्य स्थान पर बैसौलनि।

४. ताहि समय राजकुमार (राम और लक्ष्मण) ओतय अयलाह। ओ एहेन सुन्दर छथि मानू साक्षात मनोहरते हुनकर शरीर पर छा रहल अछि। सुन्दर साँवला आ गोर हुनकर शरीर छन्हि आ ओ गुणक समुद्र, चतुर आ उत्तम वीर छथि। ओ राजाक समाज मे एना सुशोभित भ’ रहल छथि मानू तारागणक बीच मे दुइ पूर्ण चन्द्रमा होइथ।

५. जिनकर जेहेन भावना छलन्हि से प्रभुक तेहने मूर्ति देखलनि।
– महान रणधीर (राजा लोकनि) श्री रामचन्द्रजी केर रूप केँ एना देखि रहल छथि मानू स्वयं वीर रस शरीर धारण कय लेने हो।
– कुटिल राजा प्रभु केँ देखिकय डरा गेलाह मानू बड़ा भयानक मूर्ति होइथ।
– छल सँ जे राक्षस ओतय राजाक वेष मे बैसल रहथि, ओ सब प्रभु केँ प्रत्यक्ष काल समान देखलनि।
– नगर निवासी दुनू भाइ केँ मनुष्यक भूषण रूप और नेत्र केँ सुख दयवला देखलनि।
– स्त्रिगण हृदय मे हर्षित भ’ कय अपन-अपन रुचिक अनुसार हुनका देखि रहली अचि। मानू श्रृंगार रस अपने परम अनुपम मूर्ति धारण कयने सुशोभित भ’ रहल छल।
– विद्वान सब केँ प्रभु विराट रूप मे देखाय देलाह, जिनकर बहुतो रास मुंह, हाथ, पैर, नेत्र आ सिर छलन्हि।
– जनकजीक सजातीय (कुटुम्बी) प्रभु केँ केना प्रिय रूप मे देखि रहला अछि जेना सगा स्वजन (सम्बन्धी) प्रिय लगैत छथि।
– जनक समेत रानी सब हुनका अपन बच्चा जेकाँ देखि रहल छथि, हुनकर प्रीति के वर्णन नहि कयल जा सकैत अछि।
– योगी लोकनि केँ ओ शांत, शुद्ध, सम और स्वतः प्रकाश परम तत्व केर रूप मे देखाय पड़लाह।
– हरि भक्त लोकनि दुनू भाइ केँ सब सुख देनिहार इष्टदेव केर समान देखलथि।
– सीताजी जाहि भाव सँ श्री रामचन्द्रजी केँ देखि रहली अछि से स्नेह और सुख त कहय मे नहिये टा अबैत अछि। ओहि (स्नेह आर सुख) केँ ओ हृदय मे अनुभव कय रहली अछि, मुदा ओहो ओकरा वर्णन नहि सकैत रहथि। फेर कोनो कवि ओहि बात केँ कोन तरहें कहि सकैत अचि।

एहि तरहें जेकर जेहेन भाव रहैक ओ कोसलाधीश श्री रामचन्द्रजी केँ ओहने देखलक।

७. सुन्दर साँवला आर गोर शरीर वला तथा विश्व भरिक नेत्र केँ चोरबयवला कोसलाधीश केर कुमार राज समाज मे एना सुशोभित भ’ रहला अछि। दुनू मूर्ति स्वभावहि सँ बिना कोनो बनाव-श्रृंगार के मन केँ हरयवला छथि। करोड़ों कामदेव केर उपमा तक हुनका तुच्छ अछि। हुनकर सुन्दर मुख शरद् (पूर्णिमा) के चन्द्रमा केर सेहो निन्दा करयवला – ओकरा नीचाँ देखबयवला अछि आर कमल के समान नेत्र मन केँ बहुते भावैत अछि। सुन्दर चितवन (सारा संसार केर मन केँ हरयवला) कामदेव केर सेहो मन केँ हरयवला अछि। ओ हृदय केँ बहुते प्रिय लगैत अछि, लेकिन ओकर वर्णन नहि कयल जा सकैत अछि। सुन्दर गाल छन्हि, कान मे चंचल झुमैत कुंडल छन्हि। ठोड़ और ओठ सुन्दर छन्हि, कोमल वाणी छन्हि। हँसी, चन्द्रमाक किरणहु केर तिरस्कार करयवला अछि। भौंह टेढ़ आर नासिका मनोहर अछि। चौड़ा ललाट पर तिलक झलकि रहल अछि, दीप्तिमान भ’ रहल अछि। कारी घुंघराला केश देखिकय भौंराक पंक्ति सेहो लजा जाइत अछि। पियर चौकोर टोपी माथ पर सुशोभित अछि, जेकर बीच-बीच मे फूल केर कलि सँ काढ़ल अति सुन्दर लागि रहल अछि। शंख समान सुन्दर (गोल) गला मे मनोहर तीन टा रेखा अछि जे मानू तीनू लोक केर सुन्दरताक सीमा बखानि रहल अछि। हृदय पर गजमुक्ताक सुन्दर कंठी आर तुलसीक माला सुशोभित अछि। हुनकर कंधा बरदक कंधा जेकाँ ऊँच आ पुष्ट अछि, ऐंड़ (ठाढ़ होयबाक शान) सिंह समान अछि आर हाथ विशाल व बल केर भंडार अछि। डाँर्ड मे तरकस आ पीताम्बर बन्हने छथि। दाहिना हाथ मे बाण और बायाँ हाथ मे सुन्दर कंधा पर धनुष तथा पियर रंगक यज्ञोपवीत सुशोभित छन्हि। नख सँ लयकय शिखा तक सब अंग सुन्दर छन्हि जाहि पर महान शोभा उमड़ि रहल अछि।

८. हुनका देखिकय सब कियो सुखी भेलथि। नेत्र एकटक (निमेष शून्य) छन्हि आर पुतली सेहो चलनाय बन्द कय देने अछि। जनकजी दुनू भाइ केँ देखिकय बहुत हर्षित भेलाह। ओ मुनिक चरण कमल पकड़ि प्रणाम अर्पित कयलन्हि। विनतीपूर्वक अपन कथा सुनेलनि आर मुनि केँ पूरे रंगभूमि (यज्ञशाला) देखौलनि। मुनिक संग दुनू श्रेष्ठ राजकुमार जतय-जतय जाइत छथि ओतय-ओतय सब कियो आश्चर्यचकित भ’ देखय लगैत छथि। सब कियो रामजी केँ अपन-अपन दिश मुंह कएने देखैत छथि, मुदा एकर किछु विशेष रहस्य कियो नहि जानि सकलथि। मुनि फेर राजा सँ कहलथि – रंगभूमिक रचना बड सुन्दर अछि। विश्वामित्र जेहेन निःस्पृह, विरक्त और ज्ञानी मुनि सँ रचनाक प्रशंसा सुनिकय राजा प्रसन्न भेलाह आर बहुत सुख भेटलनि।

९. सब मंच सँ एकटा मंच बेसी सुन्दर, उज्ज्वल और विशाल छल। राजा अपनहि मुनि सहित दुनू भाइ केँ ओहि पर बैसौलनि। प्रभु केँ देखिकय सब राजा हृदय मे एना हारि गेलाह (निराश एवं उत्साहहीन भ’ गेलाह) जेना पूर्ण चन्द्रमाक उदय भेलापर तारा प्रकाशहीन भ’ जाइत अछि। हुनकर तेज देखि सभक मोन मे एना विश्वास भ’ गेलनि जे रामचन्द्रे जी धनुष केँ तोड़ता ताहि मे सन्देह नहि।

१०. एम्हर हुनकर रूप केँ देखि सभक मोन मे ई निश्चय भ’ गेलैक जे शिवजीक विशाल धनुष जे संभव अछि कि नहि टूटय, बिना तोड़नहियो जँ सीताजी श्री रामचन्द्रे जीक गला मे जयमाला पहिरेती, दुनू तरहें विजय रामचन्द्र जीक हाथ रहत। एना सोचिकय ओ सब कहल लगलाह – हे भाइ! एना विचारिकय यश, प्रताप, बल और तेज बिसरि अपन-अपन घर चलू।

११. दोसर राजा सब जे अविवेक सँ अन्हरायल रहथि, अभिमानी रहथि, ओ सब ई बात सुनिकय बड हँसलथि। ओ सब बजलथि जे धनुष तोड़लो उपरान्त विवाह होयब कठिन छन्हि, हम सब सहजहि जानकी केँ हाथ सँ जाय नहि देबनि, फेर बिना तोड़ने त राजकुमारी केँ ब्याहले कोना जा सकैत अछि। काले कियैक नहि हो, एक बेर त सीता लेल हम सब हुनको सँ युद्ध जीत लेब। ई घमंडक बात सुनिकय दोसर राजा सब जे धर्मात्मा, हरिभक्त और बुद्धिमान रहथि, से सब मुस्कुरेलथि आ सोचलथि जे एहि घमंडी राजा सभक गर्व दूर कय जे धनुष केकरो सँ नहि टूटि सकत से तोड़िकय श्री रामचन्द्रजी सीताजी संग विवाह करता। रहल बात युद्ध केर, से महाराज दशरथ केर पुत्र केँ रण मे कियो नहि जीति सकैत अछि। अनेरे किनको कमजोर अँकबाक बात व्यर्थहि जुनि करू। मोनक लड्डु सँ कहियो भूख मेटाइत छैक की? हमरा लोकनिक परम पवित्र (निष्कपट) सीख केँ सुनिकय सीताजी केँ अपना मोन मे साक्षात जगज्जननी बुझू आ हुनका पत्नी रूप मे पेबाक आशा एवं लिलसा छोड़ि दिअ। श्री रघुनाथजी केँ जगतपिता (परमेश्वर) विचारिकय नेत्र भरिकय हुनकर छबि देखि लिअ आ एहेन मौका बेर-बेर नहि भेटत से बुझि जाय जाउ। सुन्दर, सुख दयवला आर समस्त गुणक राशि ई दुनू भाइ शिवजीक हृदय मे बसयवला छथि, स्वयं शिवजी जिनका सदा हृदय मे नुकौने रहैत छथि, ओ अहाँक आँखिक सोझाँ आबि गेला अछि। समीप आयल भगवत्‍दर्शन रूप अमृतक समुद्र केँ छोड़िकय अहाँ सब जगज्जननी जानकी केँ पत्नी रूप मे पेबाक दुराशा रूप मिथ्या मृगजल केँ देखिकय दौड़िकय कियैक मरैत छी? भाइ! जिनका जे नीक लागय वैह करू, हम त श्री रामचन्द्रजीक दर्शन कयकेँ आइ जन्म लेबाक फल पाबि लेलहुँ, जीवन आर जन्म केँ सफल कय लेलहुँ। एना कहिकय नीक राजा लोकनि प्रेम मग्न भ’ कय श्री रामजीक अनुपम रूप देखय लगलाह। मनुष्यक त बाते कि देवता लोक सेहो आकाश सँ विमान पर चढ़ल दर्शन कय रहल छथि आर सुन्दर गान करैत ओ सब सेहो फूल बरसा रहल छथि।